भारत विभाजन से जुड़ी दस बातें...

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15 अगस्त 1947 को भारतवर्ष हिन्दुस्तान तथा पाकिस्तान दो हिस्सों में बंटकर स्वतंत्र हो गया। लोग मानते हैं कि ब्रिटेन की छलपूर्ण नीति, मुस्लिम लीग की फूटनीति, भारतीय जनता में दृढ़ता और सामर्थ्य का अभाव, कांग्रेस की गैर- जिम्मेदारीपूर्ण भूमिका व अवसर के प्रति अचेत रहना और गांधीजी की अहिंसा के कारण देश का विभाजन सही नहीं हुआ।

भारत की आजादी के साथ जुड़ी देश-विभाजन की कथा बड़ी व्यथा-भरी है। कुछ लोग भारत विभाजन के खिलाफ थे, कुछ पक्ष में थे और कुछ ऐसे लोग थे, जो भारत के धर्म आधारित विभाजन के खिलाफ थे, तो कुछ लोग ऐसे भी थे जो यह मानते थे कि जब धर्म के आधार पर विभाजन हो ही रहा है तो फिर जनता की अदल-बदली भी होनी चाहिए और ठीक-ठीक विभाजन होना चाहिए ता‍कि बाद में किसी प्रकार का विवाद न हों।

मौलाना अबुल कलाम आजाद और डॉ. राममनोहर लोहिया ने विभाजन को कभी सही नहीं ठहराया।

 

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स्वतंत्रता के समय 'भारत' के अंतर्गत तीन तरह के क्षेत्र थे-

1. 'ब्रिटिश भारत के क्षेत्र'- ये लंदन के इंडिया ऑफिस तथा भारत के गवर्नर-जनरल के सीधे नियंत्रण में थे।
2. 'देसी राज्य'
3. फ्रांस और पुर्तगाल के औपनिवेशिक क्षेत्र (चंदननगर, पाण्डिचेरी, गोवा आदि)

नोट : 1947 के भारत विभाजन के दौरान ही ब्रिटिश भारत में से सीलोन (अब श्रीलंका) और बर्मा (अब म्यांमार) को भी अलग किया गया, लेकिन इसे भारत के विभाजन में नहीं शामिल किया जाता है जबकि अखंड भारत में ये सभी शामिल थे।

इस तरह कुल मिलाकर भारतवर्ष में 662 रियासतें थीं जिसमें से 565 रजवाड़े ब्रिटिश शासन के अंतर्गत थे। 565 रजवाड़ों में से से 552 रियासतों ने स्वेच्छा से भारतीय परिसंघ में शामिल होने की स्वीकृति दी थी। जूनागढ़, हैदराबाद, त्रावणकोर और कश्मीर को छोडकर बाकी की रियासतों ने पाकिस्तान के साथ जाने की स्वीकृति दी थी।

मुगल तथा मराठा साम्राज्यों के पतन के बाद भारतवर्ष बहुत से छोटे-बड़े राज्यों में विभक्त हो गया था। इन राज्यों में सिंध, भावलपुर, दिल्ली, अवध, रुहेलखंड, बंगाल, कर्नाटक, मैसूर, हैदराबाद, भोपाल, जूनागढ़ और सूरत में मुस्लिम शासक थे। इन मुस्लिम शासकों के राज्य में हिन्दू बहुसंख्यक थे जबकि जम्मू और कश्मीर में हिन्दू शासक थे लेकिन कश्मीर में मुस्लिम बहुसंख्यक थे।

दूसरी ओर पंजाब तथा सरहिंद में अधिकांश सिक्खों के राज्य थे।

असम, मणिपुर, कछार, त्रिपुरा, जयंतिया, तंजोर, कुर्ग, त्रावनकोर (केरल), सतारा, कोल्हापुर, नागपुर, ग्वालियर, इंदौर, बड़ौदा तथा राजपुताना, बुंदेलखंड, बघेलखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, काठियावाड़, मध्यभारत और हिमाचल प्रदेश के राज्यों में हिन्दू शासक थे और हिन्दू ही बहुसंख्यक थे।

आधे से कम भाग पर मुस्लिम राजाओं का और आधे से कुछ ज्यादा भाग पर हिन्दू राजाओं का राज था। 7वीं सदी से शुरू हुई राजाओं की लंबी लड़ाई का परिणाम यह हुआ कि भारत के पश्चिम में जहां कश्मीर, बलूचिस्तान, खैबर-पख़्तूनख्वा, कबायली इलाके में मुस्लिम आबादी आबाद हो गई वहीं दूसरी ओर पूर्व में पूर्वी बंगाल मुस्लिम बहुल इलाका बन गया।

लेकिन सिंध और पंजाब में हिन्दू और सिख बहुमत में थे इसके बावजूद दोनों प्रांतों को विभाजन की त्रासदी झेलना पड़ी। दूसरी ओर समूचे बंगाल की बात करें तो हिन्दू बहुसंख्यक थे लेकिन पूर्वी बंगाल में मुस्लिम शासक थे। विभाजन का सबसे ज्यादा दर्द झेला कश्मीर, बंगाल, पंजाब और सिंध के हिन्दू और मुसलमानों ने।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सर्वप्रथम संबंध व्यापार के उद्देश्य से सूरत, कर्नाटक, हैदराबाद, बंगाल आदि समुद्र तट पर स्थित राज्यों से हुए। बंगाल में मीर जाफर की गद्दारी के चलते सिराजुद्दौला के साथ प्लासी का युद्ध (1757) हुआ और ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों ने उसे हराकर अपने शासन की शुरुआत की। बाद में देशी राज्यों के आपसी झगड़ों से लाभ उठाकर कंपनी ने अपनी कूटनीति और सैनिक शक्ति द्वारा सारे भारत पर सार्वभौम सत्ता स्थापित कर ली।

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ब्रिटिश फॉर्मूला : भारत का विभाजन माउंटबेटन योजना ( '3 जून प्लान' ) के आधार पर तैयार भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के आधार पर किया गया। इस अधिनियम में कहा गया कि 15 अगस्त 1947 को भारत एवं पाकिस्तान नामक दो अधिराज्य बना दिए जाएंगे और उनको ब्रितानी सरकार सत्ता सौंप देगी।

नोट : 1947 के भारत विभाजन के दौरान ही ब्रिटिश भारत में से सीलोन (अब श्रीलंका) और बर्मा (अब म्यांमार) को भी अलग किया गया, लेकिन इसे भारत के विभाजन में नहीं शामिल किया जाता है जबकि अखंड भारत में ये सभी शामिल थे।

माउंटबेटन ने भारत की आजादी को लेकर जवाहरलाल नेहरू के सामने एक प्रस्ताव रखा था जिसमें यह प्रावधान था कि भारत के 565 रजवाड़े भारत या पाकिस्तान में किसी एक में विलय को चुनेंगे और वे चाहें तो दोनों के साथ न जाकर अपने को स्वतंत्र भी रख सकेंगे। इन 565 रजवाड़ों जिनमें से अधिकांश प्रिंसली स्टेट (ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा) थे में से भारत के हिस्से में आए रजवाड़ों ने एक-एक करके विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। बचे रह गए थे त्रावणकोर, हैदराबाद, जूनागढ़, कश्मीर और भोपाल।

आखिर क्यों आजाद मुल्क चाहते थे त्रावणकोर, हैदराबाद, कश्मीर, जूनागढ़ और भोपाल के राजा...



662 देशी रियासतों में से ब्रिटिश शासन के अधीन थे 565 रजवाड़े। इनमें से 552 रियासतों ने स्वेच्छा से भारतीय परिसंघ में शामिल होने की स्वीकृति दे दी, बाकी बची 110 में से 105 ने पाकिस्तान में मिलने की स्वीकृति दी जबकि जूनागढ़, हैदराबाद, भोपाल, त्रावणकोर और कश्मीर ने स्वीकृति नहीं दी थी।

इन पांचों क्षेत्र के राजा स्वेच्छाचारी थे। कश्मीर के राजा जहां अपना अधिकतर समय गोल्फ खेलने और जंगलों में शिकार के लिए बिताते थे तो जूनागढ़ के राजा को कुत्ते पालने का शौक था उनके पास देसी-विदेशी मिलाकर 500 से ज्यादा कुत्ते थे। भोपाल के नवाब तो नवाब ठहरे और हैदराबाद के निजाम अक्खड़ किस्म के थे जिनमें कट्टरपंथी सोच थी।

मुस्लिम बहुल कश्मीर के हिन्दू राजा हरिसिंह अपने राज्य को आजाद मुल्क बनाना चाहते थे जबकि मुसलमान और हिन्दू पंडित भारत संघ में मिलना चाहते थे। दूसरी ओर हिन्दू बहुल हैदराबाद और भोपाल के मुस्लिम निजाम और नवाब आजाद मुल्क बनाना चाहते थे जबकि उनकी जनता भारत संघ में मिलने की इच्छुक थीं। दूसरी ओर जूनागढ़ के राजा मुसलमान थे जबकि उनका क्षेत्र हिन्दू बहुल था। वे अपने राज्य को पाकिस्तान में मिलाना चाहते थे।

पांच राज्य चाहते थे आजाद मुल्क : जूनागढ़, हैदराबाद, भोपाल, त्रावणकोर और कश्मीर ने स्वीकृति नहीं दी थी। वे खुद को आजाद मुल्क बनाना चाहते थे लेकिन भौगोलिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के चलते ऐसा होना संभव नहीं था।

सबसे पहले त्रावणकोर के राजा ने अपने क्षेत्र को आजाद मुल्क घोषित कर दिया था। त्रावणकोर के राजा हिन्दू थे और वहां की जनता भी हिन्दू बहुल थी। त्रावणकोर के राजा उथरादोम तिरुनल मार्तन्ड वर्मा ने सबसे पहले अपने क्षेत्र को आजाद मुल्क घोषित किया था।

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वर्ष 1947 में भारत की आजादी और रियासतों के भारतीय संघ में विलय से दक्षिण केरल के त्रावणकोर ने खुद को आजाद मुल्क बनाने की घोषणा की। त्रावणकोर में 1934 से ही आजादी के लिए आंदोलन चल रहा था। लेकिन वहां साम्यवादी पार्टी का जोर था।

1938-39 ईस्वीं में त्रावणकोर (त्रसवणकोर) और कोच्चि के आंदोलनकर्मी लोकतांत्रिक और आजाद मुल्क बनने की राह पर चल रहे थे। त्रावणकोर में कांग्रेस और युवा लीग पार्टियों के आंदोलन के चलते राजा और सरकार दोनों ही परेशान थे। राज्य कांग्रेस और युवा लीग पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। बाद में दीवान को लेकर कांग्रेस के अंदर फूट पैदा हो गई। युवा लीग ने समाजवादी पार्टी बनाने के लिए राज्य कांग्रेस को छोड़ दिया। अक्टूबर 1946 में सबसे हिंसक क्रांति पुन्नप्रा-वायलर विद्रोह का विद्रोह हुआ जिसे अंग्रेजों ने दबा दिया।

जब ब्रिटिशों ने भारत छोड़ने की घोषणा की तो राजनीतिक संकट पैदा हो गया। त्रावणकोर के दीवान ने घोषणा की कि ब्रिटिश राज्य के खात्मे के बाद भी त्रावणकोर अब भी एक स्वतंत्र राज्य है। इससे विवादों को हवा मिली। इससे दीवान की दमन की ताकत खत्म हो गई। दमन और अफरा-तफरी के बीच उनके जीवन का सबसे असफल प्रयास किया गया। सबसे बेहतर वकील को रखा गया और दीवान ने राज्य में अपनी उपस्थिति कायम रखी। आजादी के बाद ही त्रावणकोर भारतीय संघ का हिस्सा बन गया।

पहले दक्षिण केरल में शासन करने वाले पूर्ववर्ती त्रावणकोर राजघराने के प्रमुख राजा उथरादोम तिरुनल मार्तन्ड वर्मा के थे।

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भारत के गुजरात प्रांत का एक क्षेत्र जूनागढ़। 15वीं शताब्दी तक राजपूतों का गढ़ रहे जूनागढ़ पर 1472 में गुजरात के महमूद बेगढ़ा ने कब्जा कर लिया जिन्होंने इसे मुस्तफाबाद नाम दिया।

जूनागढ़ में 80 फीसदी लोग हिन्दू थे। भारत विभाजन के दौरान जूनागढ़ के नवाब मोहम्मद महाबत खानजी ने जब अपनी रियासत का विलय 15 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में कर दिया तो उसे लेकर न सिर्फ जूनागढ़ की जनता में बड़े पैमाने पर आक्रोश पैदा हुआ, बल्कि विद्रोह की घोषणा भी हो गई। आरजी हुकूमत नाम से एक जन आंदोलन शुरू हुआ और जूनागढ़ रियासत के अंदर आने वाले गांवों और प्रमुख कस्बों पर एक के बाद स्वतंत्रता सेनानियों ने न सिर्फ अहिंसक, बल्कि जरूरत पड़ने पर हिंसक संघर्ष के जरिए भी कब्जा करना शुरू किया।

परिणाम यह हुआ कि नवाब 24 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान भाग गया। वह इतना भयभीत था कि अपनी एक बेगम को उसके हवाई अड्डे पर समय से न पहुंचने के कारण उसे छोड़कर चला गया। कुत्तों को साथ ले गया और बेगम को छोड़ गया।

जूनागढ़ के दीवान शाहनवाज भुट्टो को बदली हुई परिस्थितियों में नवाब की सहमति से आठ नवंबर, 1947 को जूनागढ़ का कब्जा लेने के लिए भारत सरकार को अनुरोध करना पड़ा और इस अनुरोध के हिसाब से नौ नवंबर, 1947 को भारत सरकार ने अपने प्रतिनिधि नीलम बुच के जरिए जूनागढ़ का प्रशासन अपने हाथ में लिया और शांति बहाली की प्रक्रिया शुरू की। बीस फरवरी 1948 को जूनागढ़ की जनता ने जनमत के माध्यम से भारत के साथ विलय कर दिया।

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1720 से चले आ रहे हैदराबाद के निजाम शासन को 1798 में ब्रिटिश भारत शासन के अंतर्गत करना पड़ा। 7 निजामों ने लगभग दो शताब्दियों यानी 1947 में भारत की स्वतंत्रता तक हैदराबाद पर शासन किया। अंतिम निजाम उस्मान अली खान ने हैदराबाद पर 17 सितंबर 1948 तक शासन किया।

हैदराबाद की रियासत की जनसंख्या का 80 प्रतिशत भाग हिन्दू था, लेकिन हैदराबाद के कट्टरपंथी मुस्लिम कासिम रिजव ने निजाम पर दबाव बनाया और उन्हें भारतीय संघ में नहीं मिलने के लिए राजी किया।

केएम मुंशी ने कासिम रिजवी के बारे में लिखा कि उसने राज्य की मुस्लिम जनता को भड़काकर दंगे करवाए और निजाम से कहकर उदार मंत्री मिर्जा अस्माइल को प्रधानमंत्री पद से हटवा दिया और छतारी के नवाब को इस पर बैठा दिया।

छतारी के नवाब ने जिन्ना से पूछा कि यदि भारत ने हैदराबाद पर आक्रमण किया तो क्या पाकिस्तान उसकी मदद के लिए आएगा? जिन्ना ने दो-टूक शब्दों में उत्तर दिया- नहीं आ सकते। यह सुनकर छतारी के नवाब के पैरों तले की जमीन खिसक गई और उन्होंने हैदराबाद छोड़ दिया।

कासिम रिजवी की कट्टरपंथी बातों में फंसकर हैदराबाद का निजाम भारत विरोधी बन गया था। बहुत इंतजार के बाद जब निजाम ने भारत में विलय का पत्र नहीं सौंपा तो सरदार पटेल ने पुलिस एक्शन लिया। इसके चलते रिजवी भाग गया और निजाम को सरदार के सामने झुकना पड़ा।

सरदार ने कहा कि हैदराबाद के मुसलमानों ने हमारा साथ दिया जिसका निश्चित रूप से अच्छा प्रभाव पड़ा। निजाम ने रिजवी की कट्टरपंथी इस्लामिक सोच को कोसा और अपने किए पर प्रायश्चित किया।

सरदार पटेल ने निजाम को लिखा- महामहिम जैसा कि मैंने आपसे कहा, गलती करना मनुष्य की कमजोरी है। ईश्वरीय निर्देश भूल जाने व क्षमा करने का संकेत देते हैं।

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यह अजीब विडंबना थी कि जम्मू और कश्मीर की जनता भारतीय संघ में मिलना चाहती थी जबकि वहां का राजा खुद के राज्य को आजाद मुल्क बनाना चाहता था। इस कशमकश के चलते पाकिस्तान इस प्रयास में लग गया कि कश्मीर को जबरदस्ती पाकिस्तान में मिला लिया जाए। मोहम्मद अली जिन्ना के इशारे पर कश्मीर में कबाइलियों ने आक्रमण कर दिया।

इस आक्रमण के चलते महाराजा हरिसिंह की मुश्किलें बढ़ गईं। अब उनके पास एक ही विकल्प बचा था भारतीय संघ से मदद मांगना। उन्होंने दिल्ली की सरकार से मदद की गुहार लगाई लेकिन तब तक बहुत देर हो गई थी। कबाइलियों ने कश्मीर के आधे से ज्यादा हिस्से पर कब्जा कर लिया था और लूटपाट शुरू कर दी थी। बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम किया गया जिसके चलते लाखों कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़कर जम्मू की ओर पलायन करना पड़ा।

भोपाल भी नहीं मिलना चाहता था भारतीय संघ में...


15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता मिलने के उपरांत भोपाल के नवाब ने अपने चैम्बर ऑफ प्रिंसेस को अधिकृत कर कार्यरत घोषित कर दिया। भोपाल का नवाब 25 जुलाई 1947 की उस बैठक में भी नहीं गया था जिसको माउंटबेटन ने दिल्ली में आहूत किया था। उसने कह दिया था कि यह बैठक घोंघों को दरियाई घोड़े और कठफोड़वे के साथ चाय पीने के लिए बुलावा देने के समान है। नवाब भोपाल को आजाद मुल्क बनाना चाहते थे।

भोपाल के नवाब हमीदुल्लाह खान की रियासत भोपाल, सीहोर और रायसेन तक फैली हुई थी। इस रियासत की स्थापना 1723-24 में औरंगजेब की सेना के बहादुर अफगान योद्धा दोस्त मोहम्मद खान ने सीहोर, आष्टा, खिलचीपुर और गिन्नौर को जीतकर स्थापित की थी। 1728 में दोस्त मोहम्मद खान की मृत्यु के बाद उसके बेटे यार मोहम्मद खान के रूप में भोपाल रियासत को अपना पहला नवाब मिला था।

मार्च 1818 में जब नजर मोहम्मद खान नवाब थे तो एंग्लो भोपाल संधि के तहत भोपाल रियासत भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य की प्रिंसली स्टेट हो गई। 1926 में उसी रियासत के नवाब बने थे हमीदुल्लाह खान।

नवाब हमीदुल्लाह 14 अगस्त 1947 तक ऊहापोह में थे कि वे क्या निर्णय लें। जिन्ना उन्हें पाकिस्तान में सेक्रेटरी जनरल का पद देकर वहां आने की पेशकश दे चुके थे और इधर रियासत का मोह था। 13 अगस्त को उन्होंने अपनी बेटी आबिदा को भोपाल रियासत का शासक बन जाने को कहा ताकि वे पाकिस्तान जाकर सेक्रेटरी जनरल का पद सभाल सकें, किंतु आबिदा ने इससे इंकार कर दिया।

मार्च 1948 में नवाब हमीदुल्लाह ने भोपाल के स्वतंत्र रहने की घोषणा की। मई 1948 में नवाब ने भोपाल सरकार का एक मंत्रिमंडल घोषित कर दिया था जिसके प्रधानमंत्री चतुरनारायण मालवीय थे।

अक्टूबर 1948 में नवाब हज पर चले गए और दिसंबर 1948 में भोपाल के इतिहास का जबरदस्त प्रदर्शन विलीनीकरण को लेकर हुआ, कई प्रदर्शनकारी गिरफ्तार किए गए जिनमें ठाकुर लाल सिंह, डॉ. शंकरदयाल शर्मा, भैंरो प्रसाद और उद्धवदास मेहता जैसे नाम भी शामिल थे। पूरा भोपाल बंद था। राज्य की पुलिस आंदोलनकारियों पर पानी फेंककर उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश कर रही थी।

इन सबके बीच सरकार के प्रतिनिधि वीपी मेनन एक बार फिर से भोपाल आए। मेनन ने नवाब को स्पष्ट शब्दों में कहा कि भोपाल स्वतंत्र नहीं रह सकता। भौगोलिक, नैतिक और सांस्कृतिक नजर से देखें तो भोपाल मालवा के ज्यादा करीब है इसलिए भोपाल को मध्यभारत का हिस्सा बनना ही होगा।

वायसराय माउंटबेटन ने भोपाल के नवाब को समझाया और उसे भारत के साथ विलय प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने के लिए प्रेरित किया, जिसने उसे कुछ हिचकिचाहट के साथ मान लिया।

अंतत: 1 जून 1949 को भोपाल रियासत भारत का हिस्सा बन गई। केंद्र द्वारा नियुक्त चीफ कमिश्नर एनबी बैनर्जी ने कार्यभार संभाल लिया और नवाब को मिला 11 लाख सालाना का प्रिवीपर्स। भोपाल का विलीनीकरण हो चुका था। लगभग 225 साल पुराने (1724 से 1949) नवाबी शासन का अंत हुआ।

भारत विभाजन की घोषणा और हिंदुओं का कत्लेआम...


भारत विभाजन को भारतीय राजनीतिज्ञ स्वीकार नहीं कर रहे थे लेकिन जिन्ना और ब्रिटिश शासक विभाजन पर अड़े थे, ऐसे में दोनों ने मिलकर भारतीय राजनीतिज्ञों पर दबाव बढ़ाने के लिए देशभर में दंगे कराए।

अंग्रेजों ने योजनाबद्ध रूप से हिन्दू और मुसलमान दोनों संप्रदायों के बीच फूट डालने के लिए एक प्लान पर काम किया जिसके तहत मुस्लिम लीग का गठन कराया गया। मुस्लिम लीग से पाकिस्तान की मांग उठवाई गई और फिर उसके माध्यम से सिंध और बंगाल में हिन्दुओं का कत्लेआम कराया गया। अगस्त 1946 में 'सीधी कार्रवाई दिवस' मनाया और कलकत्ता में भीषण दंगे किए गए जिसमें करीब 5,000 लोग मारे गए और बहुत से घायल हुए। यहां से दंगों की शुरुआत हुई।

ऐसे माहौल में सभी नेताओं पर दबाव पड़ने लगा कि वे विभाजन को स्वीकार करें ताकि देश पूरी तरह युद्ध की स्थिति में न आ जाए। लेकिन जनता को पीछे की राजनीति नहीं मालूम चल रही थी। 1947 को स्पष्ट हुआ कि देश का विभाजन किया जाएगा।

बहुत से विद्वानों का मत है कि ब्रिटिश सरकार ने विभाजन की प्रक्रिया को जान-बूझकर ठीक ढंग से नहीं संभाला। चर्चिल और माउंटबेटन ने मिलकर भारतीय राजनीतिज्ञों में पहले फूट डाली और फिर स्वतंत्रता की घोषणा की। स्वतंत्रता की घोषणा के बाद धर्म के आधार पर विभाजन की घोषणा की गई। ऐसे में देश में शांति कायम रखने की जिम्मेवारी नेहरू और पटेल पर आ गई।

किसी ने यह नहीं सोचा था कि बहुत से लोग इधर से उधर जाएंगे। लोगों का विचार था कि दोनों देशों में अल्पमत संप्रदाय के लोगों के लिए सुरक्षा का इंतजाम किया जाएगा, लेकिन दोनों ही देशों की नई सरकारें हिंसा को रोकने में अक्षम थीं, क्योंकि सेना ब्रिटिश अधिकारियों के अधीन थी। फलस्वरूप दंगा-फसाद और पलायन हुआ। यही ब्रिटिश अधिकारी चाहते भी थे।

भारत विभाजन के दौरान बंगाल, सिंध, हैदराबाद, कश्मीर और पंजाब में दंगे भड़क उठे। पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित इन दंगों में हिन्दू, ईसाई, सिख, बौद्ध और शिया मुसलमानों की जिंदगी तबाह हो गई।

कबाइलियों का हमला करवाकर कश्मीर से जहां शिया मुसलमानों और पंडितों का कत्लेआम किया गया वहीं सिंध, बंगाल और पंजाब में हिन्दू और सिखों का कत्लेआम किया गया। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही कौमें दंगा नहीं चाहती थीं, लेकिन ये दंगे राज्य द्वारा प्रायोजित थे।

हैदराबाद में निजाम के चहेते कासिम रिजवी ने हिन्दुओं के खिलाफ दंगे भड़काकर हैदराबाद में कत्लेआम मचाया और अंत में उसे भागना पड़ा। इस सबके जवाब में भारत के पंजाब से मुसलमानों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा।

नाथूराम गोडसे ने क्यों मारी महात्मा गांधी को गोली, अगले पन्ने पर...


विभाजन के बाद के महीनों में दोनों नए देशों के बीच भारी संख्‍या में जन-पलायन हुआ। पाकिस्तान में बहुत से हिन्दुओं और सिखों को बलात् बेदखल किया गया। हिन्दू और सिखों की भूमि और घर पर कब्जा किया और उन्हें देश छोड़ने पर मजबूर किया गया जबकि दूसरी ओर भारत में गांधीजी ने कांग्रेस पर दबाव डालकर मुस्लिमों की सुरक्षा सुनिश्चित की और भारतीय मुसलमानों से कहा कि आपको अपना मुल्क छोड़कर जाने की जरूरत नहीं। वहां से ज्यादा आप यहां सुरक्षित रहेंगे।

गांधीजी की बात आज सच साबित हुई। जो मुसलमान भारत छोड़कर चले गए थे उन्हें आज वहा मोहाजिर कहा जाता है और उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार कर उनका जीना मुश्किल कर रखा है।

1951 की विस्थापित जनगणना के अनुसार विभाजन के एकदम बाद 72,26,000 मुसलमान भारत छोड़कर पाकिस्तान गए और 72,49,000 हिन्दू और सिख पाकिस्तान छोड़कर भारत आए। इसमें से 78 प्रतिशत स्थानांतरण पश्चिम में, मुख्यतया पंजाब में हुआ।

भारत के विभाजन से करोड़ों लोग प्रभावित हुए। विभाजन के दौरान हुई हिंसा में करीब 5 लाख लोग मारे गए और करीब 1.45 करोड़ शरणार्थियों ने अपना घर-बार छोड़कर बहुमत संप्रदाय वाले देश में शरण ली।

अंत में संपत्ति का बंटवारा : ब्रिटिश भारत की संपत्ति को दोनों देशों के बीच बांटा गया, लेकिन यह प्रक्रिया बहुत लंबी खिंचने लगी। गांधीजी ने भारत सरकार पर दबाव डाला कि वह पाकिस्तान को धन जल्दी भेजे, जबकि इस समय तक भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरू हो चुका था। भारत सरकार को इस दबाव के आगे झुकना पड़ा और पाकिस्तान को धन भेजना पड़ा। नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी के इस काम को उनकी हत्या करने का एक कारण बताया।

- वेबदुनिया संदर्भ ग्रं

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