अंग्रेजों के विरुद्ध सन् 1763 से 1773 तक चला संन्यासी आंदोलन सबसे प्रबल आंदोलन था। आदिगुरु शंकराचार्य के दसनामी संप्रदाय ने एकजुट होकर भारतीय धर्म और संस्कृति को बचाने के लिए शस्त्र युद्ध का बिगुल बजाया। इतिहास प्रसिद्ध इस विद्रोह की स्पष्ट जानकारी बंकिमचन्द्र चटर्जी के उपन्यास 'आनंदमठ' में मिलती है।
शंकराचार्य के अनुयायियों को देखकर मुस्लिम फकीरों ने भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर भारत की आजादी का आंदोलन लड़ा। संन्यासियों में उल्लेखनीय नाम हैं- मोहन गिरि और भवानी पाठक जिन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। फकीरों के नेता के रूप में मजनूशाह का नाम प्रसिद्ध है।
संन्यासी-फकीरों के इस विद्रोह में उन्होंने अंग्रेजों की कई कोठियों पर कब्जा कर अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार दिया। ये लोग 50-50 हजार सैनिकों के साथ अंग्रेज सेना पर आक्रमण करते थे। इन फकीरों और संन्यासियों के साथ जमींदार, कृषक, शिल्पियों ने साथ दिया था।
संन्यासी विद्रोह के कारण :
1. बंगाल में सबसे ज्यादा अत्याचार हिंदुओं पर होता था। अंग्रेजों ने हिंदुओं को उनके तीर्थ स्थानों पर जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था जिसके चलते शांत रहने वाले संन्यासियों में असंतोष फैल गया।
2. बंगाल में अंग्रेजों की नीति के चलते जमींदार, कृषक, शिल्पकार सभी की स्थिति बदतर हो गई थी।
3. बंगाल में जब 1770 ईस्वी में भयानक अकाल आया तो अंग्रेज सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया और जनता को उनके हाल पर ही छोड़ दिया।
4. बंगाल में हिंदुओं का धर्मांतरण चरम पर था। गरीब जनता की कोई सुनने वाला नहीं था।
क्यों असफल हो गया यह आंदोलन?
अंग्रेजों की 'फूट लो और राज करो' की नीति के चलते बंगाल में संन्यासियों और फकीरों ने साथ मिलकर लड़ने के बजाय अलग-अलग लड़ने का फैसला किया। अंग्रेजों ने मुस्लिम फकीरों को लालच किया तब उन्होंने हिन्दू संन्यासियों का साथ छोड़ दिया। इस फूट और बिखराव के चलते अंततोगत्वा संन्यासी विद्रोह को दबा दिया गया। इस विद्रोह को कुचलने के लिए वारेन हेस्टिंग्स को कठोर कार्रवाई करनी पड़ी थी। उन्होंने बेरहमी से संन्यासियों और हिन्दू जनता का कत्लेआम किया।
बंकिम चंद्र चटर्जी चट्टोपाध्याय ने इस विद्रोह की गाथा अपने उपन्यस 'आनंद मठ' में लिखी है। इसी उपन्यास में पहली बार 'वंदे मातरम्' नारे का उद्भोधन किया गया था।