डोरिस लेसिंग संग बिताए लम्हे

चंद्रकांत देवताले
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लगभग चार दशक पूर्व भोपाल में शमशेर, नागार्जुन और त्रिलोचन जैसे हमारी भाषा-साहित्य के बड़े कवियों को एक मंच पर एक साथ देख एक नामालूम किस्म का आह्लाद हो रहा था। पास ही बैठे एक अग्रज कथाकार से मैंने कहा- 'पहली बार तीनों को एक साथ देख मुझे रोमांच हो रहा है'। उन्होंने कंधे उचकाकर कहा- 'चंद्रकांत! यह तुम्हारी कस्बाई मानसिकता है।' उनकी इस टिप्पणी से मैं खुश ही हुआ था- यह सोचकर कि मैं जहाँ भी हूँ अपनी जड़ों के साथ हूँ।

अबसे दो वर्ष पूर्व मेरी यह कस्बाई मानसिकता पतंग बन गई थी जब मैंने 11 अक्टूबर 2007 को सुना,परदे पर देखा कि ब्रिटेन की साहित्यकार डोरिस लेसिंग को नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया है। वजह रही बीस वर्ष पूर्व (9 से11 सितंबर 1987) हम चार भारतीय कवि शहरयार, निदा फाजली, गिरधर राठी और मैं इटली के दक्षिणी द्वीप सिसिली की राजधानी पलेर्मो के एक अंतरराष्ट्रीय साहित्य-समारोह में काव्य-पाठ हेतु आमंत्रित थे।

इस समारोह में डोरिस लेसिंग को सम्मानित किया गया था। अत्यंत सहज, सौम्य, विनम्र और आत्मीय डोरिसजी को देखा भर ही होता तो भी बहुत था, किंतु अनायास ही उनका स्नेह-पात्र बन गया और उनसे पुस्तक-प्रेम तथा साहित्य-अध्यापन को लेकर लंबी बातचीत हुई। एक बार बस में दर्शनीय स्थलों के भ्रमण और दूसरी बार बोट से अन्य उपद्वीप मोत्सिया की यात्रा के दौरान।

पिछले दिनों पुरानी डायरियों को खंगालने के दौरान उनसे हुई बातचीत के नोट्स, कुछ फोटो और उनके द्वारा भेजे शुभकामना कार्ड हाथ आ गए। बोट में हम पास-पास बैठे थे। उन्होंने एकाएक पूछ लिया- मैं क्या करता हूँ। अव्वल मैंने यह बताना ही उचित समझा कि मैं टूटी-फूटी अँगरेजी में ही बात कर सकता हूँ- फिर बताया-चाहता तो था पत्रकार बनना, जो न हो सका और पिछले 30 वर्षों से हिन्दी साहित्य पढ़ा रहा हूँ और कविताएँ वगैरह गंभीरता से लिखता हूँ। यह सुन वे उत्साहित हो चहक पड़ी और बताने लगीं- वे भी आभिजात्य अँगरेजी परिवार-परिवेश की नहीं हैं।

बचपन की संघर्षपूर्ण परिस्थितियाँ, अफ्रीका के युवावस्था के अनुभव और यह भी कि वे धरती से जुड़ी हैं। इससे मुझे भी राहत मिली और मैं सहज हो आया-समझ गया कि मैं किसी अद्वितीय-प्रतिष्ठा बोझ से लदे साहित्यकार से मुखातिब नहीं हूँ। फिर एकाएक उन्होंने 'अच्छा तो तुम साहित्य पढ़ाते हो, तो जरूर विद्यार्थी उपाधि पाने के बाद पुस्तकों से विमुख हो जाते होंगे। मैंने विनम्रतापूर्वक प्रतिवाद करते कहा- नहीं मैं वैसा अध्यापक नहीं रहा। मेरे संपर्क में आए कई छात्रों की न केवल पुस्तकों-पत्रिकाओं में रुचि बढ़ी बल्कि वे सृजनात्मक लेखन में सक्रिय भी हैं।

फिर उन्होंने विकट प्रश्न दागा- 'तुम्हारे यहाँ कितने प्रतिशत लोग साहित्यिक किताबें पढ़ते होंगे? लगा जैसे मुझे करोड़ों की 'निरक्षरता' के काले समुद्र में फेंक दिया है। जैसे-तैसे, सोचते-संभलते-बचते हुए मैंने कहा- आपके यहाँ जैसा इस मामले में समृद्ध नहीं है मेरा देश और फिर मेरे लिए अनुमान लगाना भी बेहद कठिन है। पर मुझे नहीं लगता कि एक प्रतिशत भी ताउम्र पुस्तकों से जुड़े रहते होंगे। जिन्हें हम पुस्तक-प्रेमी कहते हैं आपके यहाँ तो पचास प्रतिशत के लगभग होंगे ही। उन्होंने बताया- 'मुश्किल से दस प्रतिशत, मैं नहीं कहती कि सभी हो जाएँ, पर तीस प्रतिशत तो हों।'

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उनका कहना था कि यह कितना दुःखद है कि इतने विशाल सृजनात्मक अभियान को बहुत कम पाठकों, क्रेताओं का समर्थन मिल पाता है, जिसमें प्रकाशक, पुस्तक-प्रचारक-विक्रेता, शिक्षण-संस्थाएँ, ग्रंथालय, साहित्यिक पत्रिकाएँ और लेखक समुदाय भी शामिल हैं, यह राजनेताओं-धनिकों और विशेषज्ञों में भी अज्ञान की महामारी फैली हुई है। वे साहित्य को गैरजरूरी उत्पाद मानते हैं।

उन्होंने बताया- थोड़े दिन पहले वे ऑस्ट्रेलिया के विभिन्न शहरों में 'साहित्य कैसे पढ़ाया जाए' विषय पर व्याख्यान देने गई थीं और नार्वे के ठेठ उत्तरी कस्बे में युवा छात्राओं के साथ रहीं, जहाँ साहित्य और पुस्तक-प्रेम के बारे में ही चर्चा हुई थी। लड़कियाँ साहित्य में रुचि रखती थीं, पर पढ़ाने के बेढब तरीकों के कारण अब उनकी पुस्तकों में दिलचस्पी खत्म होती जा रही है।

लेसिंग ने बताया कि अफ्रीकी गुलामों की बस्ती के अनुभव, रंगभेद के चलते अत्याचार, स्त्रियों के उत्पीड़न के बीच वे बड़ी हुई हैं। साहित्य के 'मसीहाओं' के प्रति उनकी चिढ़ भी प्रकट हुई जो शास्त्र-पुस्तकों के श्रेष्ठ ज्ञान के बूते साहित्यिक-संगठनों, शिक्षा-संस्थानों की मशीन के पुर्जे बन गए हैं, किंतु जो संकीर्ण सीमाओं में ही श्रेष्ठ हैं।

मुझे बेहद खुशी हुई कि वे ज्ञान और भाषा पर वर्चस्व के कारण जीवन-संघर्ष-विमुख बौद्धिक अहंकार को निरर्थक कह रही हैं। पहली पुस्तक कब पढ़ी, दूसरा विश्वयुद्ध और भारत का स्वतंत्रता संग्राम जैसे विषयों पर भी उन्होंने बातें कीं। सादगी और आत्मीयता की ऐसी पराकाष्ठा के साथ बड़े-बड़े शब्दों से बचते छोटे सवालों पर उनकी चिंता और प्रश्नाकुलता की अमिट छाप मेरे चित्त पर अंकित है।

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