शानदार मोबाइल, टेबल पर कम्प्यूटर, गोदी में लैपटॉप, चांदी-सी चमकती रेशमी सड़कों पर चमचमाती हुईं कारें, आधुनिक सुविधाओं से लैस शताब्दी और राजधानी एक्सप्रेस जैसी रेलगाड़ियां! आज से 60 साल पहले इनकी कल्पना करना भी संभव नहीं था।
परंतु कल-कल करतीं नीली-नीली नदियां, झर-झर बहते, किनारों-झाड़ियों से किल्लोल करते पत्थरों पर लोटते झरने, गगन को चूमते हुए ऊंचे-ऊंचे पेड़, बस्ती से बाहर निकलते ही करौंदों, मकोरों और झरबेरी की झाड़ियां जिनमें लगे हुए छोटे-छोटे मीठे-खट्टे फल और विशाल घने जंगल... इन सबका अद्भुत आत्मिक आनंद आधुनिक सारी सुविधाओं की तुलना में भारी ही पड़ता था। वे दिन क्या दिन थे! बस स्मरण मात्र से मन में गुदगुदी होने लगती है।
बात 1954-55 की है, जब हमारा परिवार मध्यप्रदेश के सागर जिले के रहली नामक स्थान में रहता था। रहली तहसील मुख्यालय था। बड़े भाई साहब शिक्षा विभाग में थे। उस समय मैं 4थी कक्षा पास कर 5वीं में पहुंचा था। मेरा सौभाग्य यह था कि 3 रुपए महीने के शंकरराव मलकापुरकर के जिस मकान में हम लोग किराए से रहते थे, उस मकान में 5 साल पहले अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद की माताश्री कुछ समय के लिए रही थीं।
शंकरराव के भाई सदाशिवराव, चन्द्रशेखर आजाद के अनन्य साथी थे। आजाद तो बहुत पहले ही देश के लिए कुर्बान हो चुके थे। आजादी के बाद जब क्रांतिकारियों के परिवारजनों की खोजबीन हुई तो सदाशिवजी उनकी मां जगरानीदेवी को तलाश कर, जो कि भाबरा (मप्र) में भिखारियों की-सी जिंदगी जी रही थीं, रहली लेकर आए थे। कुछ महीने वहां रखने के बाद वे उन्हें झांसी ले गए थे, जहां 22 मार्च 1951 में उन्होंने देह त्याग किया।
उन दिनों सड़कें तो थीं ही नहीं और मुख्य मार्ग तो मुरम-गिट्टी का था, परंतु घर को जोड़ने वाली गली मिट्टी-धूल से पटी रहती थी। बरसात में तो मजे ही मजे थे। कीचड़ इतना कि पैर घुटनों तक धंसता चला जाए। बड़े-बड़े बोल्डर डाल दिए जाते थे और हम लोग कूदते हुए सर्कस-सा करते हुए सड़क पार करते थे।
जब पानी मूसलधार और कई-कई दिनों तक लगातार गिरता था तो कीचड़ तो दलदल-सा बन जाता था। बोल्डर भी कीचड़ में अंदर चले जाते। फिर तो पैर अपना करिश्मा दिखाते। एक पैर आगे बढ़ता, कीचड़ में धंसता और जब पंजा जमीन तलाश लेता तो मालूम पड़ता कि पैर घुटनों के ऊपर तक कीचड़ में धंसा है। फिर पीछे वाला पैर आगे आता, कीचड़ में धंसता, पंजा जमीन तलाशता। इसी तरह की बाजीगरी हम हर बरसात में करते थे।
गर्मी में आंगन में सब लोग खटिया बिछाकर सोते थे। बिजली तो उन दिनों थी ही नहीं। अंधेरे में नीले आकाश में असंख्य तारे मन को आनंदित करते रहते थे। तारे तो रोज बाराती बने रहते। कभी शुक्र ग्रह दूल्हा बना नजर आता तो कभी मंगल ग्रह। जिस दिन चांद दूल्हा बना होता, उस दिन तो लगता जैसे हम किसी परीलोक में हों।
मकान मालिक शंकररावजी ने हमें सप्त ऋषि छोटा, सप्तऋषि, ध्रुव तारा और मंगल, गुरु, शनि इत्यादि सभी ग्रहों के बारे में बता दिया था। सदाशिवरावजी जिन्हें हम 'काका' कहते थे, गर्मियों में झांसी से रहली आ जाते थे। हम लोगों को चन्द्रशेखर आजाद के किस्से सुनाया करते थे। काका तो आजाद के साथ कंधे से कंधा मिला जंगल-जंगल घूमे थे।
रहली की बीच बस्ती में से नदी बहती थी सुनार नदी। अवकाश के दिनों में कभी-कभी और गर्मियों की छुट्टी में लगभग रोज ही हम नदी में नहाने जाते थे। मेरे घर से लगभग आधा किलोमीटर दूर किले घाट के नाम से मशहूर घाट था। मुगल सूबेदारों द्वारा बनवाए गए किले से बिलकुल लगा हुआ घाट। कल-कल, छल-छल करता हुआ नीला-नीला पानी। नदी में उतरते ही 8-10 चुल्लू पानी तो एक ही बार में पी जाते थे।
गर्मियों में मई के पहले पखवाड़े तक तो किले घाट में बहुत पानी रहता था किंतु फिर पानी कमने लगता। तब हम थोड़े और ऊपर की तरफ मुंडा घाट पर नहाने जाते थे। यहां तो अथाह पानी रहता था। लोग कहते थे कि यहां हाथी डुब्बन पानी है। मैंने तैरना सीख लिया था। मुंडा घाट में पानी तो गहरा था, परंतु पाट 125-150 फुट से ज्यादा चौड़ा नहीं था। मैं अपने मित्रों के साथ आराम से नदी पार कर लेता था। कभी-कभी तो 2 बार नदी पार हो जाती। लोग कहते थे कि किसी जमाने में मुंडा घाट में मगर आता था किंतु कई सालों से नहीं दिखाई दिया था।
एक दिन मैं अपने दोस्तों के साथ नदी में तैर रहा था। उस पार जाने की होड़ थी। मैं बेफिक्र तैरता जा रहा था कि अचानक ऐसा लगा कि किसी ने मुझे पेट पर नीचे से धक्का मारकर उछाल दिया हो। मैं घबरा गया और पानी में गिरकर गुट्ट-गुट्ट करने लगा। मुझे समझ में ही नहीं आया कि क्या हुआ? एक क्षण को तो लगा कि मुझे मगर ने पकड़कर उछाल दिया है और अब आक्रमण करके मुझे खा जाएगा। नाक में पानी भरने लगा था। मैं ऊपर आने के लिए हाथ-पैर मार रहा था कि अचानक किन्हीं दो हाथों ने मुझे पकड़कर खींच लिया और पानी के ऊपर कर दिया। मैं तो बुरी तरह घबराया और डरा हुआ था तथा थर-थर कांप रहा था। मुंह से बोल ही नहीं फूट रहे थे।
'अरे मैं हूं मुन्ना, डरो नहीं कुछ नहीं हुआ'।
मैंने मिचमिचाते हुए आंखें खोलीं। अरे ये तो तिवारी कक्का थे। मेरी कुछ जान में जान आई। फिर भी मुंह से बोल नहीं पा रहा था। कक्का मुझे पानी से खींचकर किनारे पर लाए पीठ थपथपाई और वहीं रेत में बिठाल दिया।
'क... क्या हुआ कक्का क्या मग... मगर... था?' मैंने हिचकी लेते हुए पूछा।
'अरे नहीं रे, मैं था, मगर नहीं था', कक्का ठहाका मारकर हंस पड़े।
'कक्का, आप कैसे?'
'मुन्ना भैया, मैं डुबकी साधकर पानी में बैठा था कि तैरते हुए तुम निकल पड़े। जब तुम मेरे ठीक ऊपर से निकल रहे थे, मैं उठ खड़ा हुआ और तुम मेरे सिर के ऊपर से पेट के बल टकराकर पानी में गिर पड़े। बस इतनी सी बात थी।'
मेरी जान में जान आ चुकी थी। फिर भी अनजान-सा भय डराए जा रहा था।
'तो क्या वह मगर नहीं था?'
'इस नदी में मगर नहीं है न, क्यों डर रहे हो?
कक्का मुझे मेरे घर ले आए। चूंकि वे हम सबके परिचित थे तो उन्होंने बड़े चटखारे ले-लेकर घर के लोगों को यह वाकया सुनाया तो हम सबने खूब मजे लिए। हालांकि मुझे चेतावनी दी गई कि अकेले नदी पर नहाने न जाएं।
1956 में हमने रहली छोड़ दिया था। उसके बाद 2011 में वहां जाने का सौभाग्य मिला। वह घर क्रांतिकारियों का स्मारक बन चुका है। उस जगह को हमने नमन किया, जहां हम रहते थे। उस जगह की मिटटी चूमी, जहां हम बैठकर पढ़ते थे।
आखिर आजाद की माताश्री के पावन पैर कई वर्षों पहले वहां पड़े थे!