उस जमाने में पृथ्वी थिएटर था नहीं और हिन्दी रंगमंच से लगाव रखने वालों की बैठकी का अड्डा मुंबई के दादर इलाके का छबीलदास स्कूल हुआ करता था। वहीं पहले पहल मेरी सत्यदेव दुबेजी से मुलाकात हुई। उस दिन मोहन राकेश के नाटक आधे अधूरे का मंचन वहाँ होना था, मैं उन दिनों नाटकों की बारीकियाँ सीख रहा था।
आधे अधूरे का जो मंचन उस दिन हुआ, उसमें अमरीश पुरी और डॉ. सुनीता प्रधान मुख्य भूमिकाएँ कर रहे थे, नीना कुलकर्णी ने उस नाटक में बड़की का किरदार किया था। नाटक खत्म होने के बाद दुबेजी से मुलाकात हुई। पहली मुलाकात में ही उन्होंने एक सीनियर का ही नहीं बल्कि एक अभिभावक का-सा जो अपनत्व दिखाया, उसने मेरा उनसे हमेशा-हमेशा का रिश्ता कायम कर दिया।
उस पहली मुलाकात की छाप मेरे अब तक के रंगमंच निर्देशन और अभिनय के लिए दीये की लौ का काम करती रही। मैं अपने थिएटर ग्रुप "यात्री" के जन्म और उसके पोषण में सत्यदेव दुबे की ही प्रेरणा मानता हूँ। पिछले साल "यात्री" के ३० साल पूरे होने पर सत्यदेवजी हमें आशीर्वाद देने आए, उन्होंने ही यात्री उत्सव का जब दीप जलाकर उद्घाटन किया तो मेरी आँखों के सामने तीस साल का पूरा सफर सिनेमा की रील की तरह घूम गया। दुबेजी ने ही हमें सिखाया कि हिन्दी रंगमंच भी इतना विस्तार पा सकता है। प्रकाश और ध्वनि के संयोजन के जो प्रयोग उन्होंने हिन्दी रंगमंच पर किए वे किसी चमत्कार से कम नहीं हैं। दर्शक पूरे समय किसी सम्मोहन में बँधे बैठे रहते थे। किसी जादूगर की तरह रंगमंच पर नाटक का चित्र खींच देने में उन्हें महारत हासिल थी।
जिस जमाने में सत्यदेव दुबेजी ने इब्राहिम अल्काजी के ग्रुप का उत्तरदायित्व संभाला, मुंबई में हिन्दी रंगमंच ने बस चलना सीखा ही था। उन्होंने मराठी और हिन्दी नाटकों के बीच की न सिर्फ दूरी पाटी बल्कि दोनों भाषाओं के नाटकों के बीच अपनी मेहनत से बने पुल को दूसरे कई किनारों तक भी ले जाने में रंगमंच के पितामह की तरह काम किया।
हिन्दी रंगमंच को आम लोगों तक ले जाने के लिए नाटककार उनके हमेशा ऋणी रहेंगे। उनकी प्रस्तुतियों का स्तर भव्य होने के अलावा मर्मस्पर्शी भी होता था। आधे-अधूरे के अलावा गिरीश कर्नाड के नाटक हयवदन को भी उन्होंने रंगमंच की बुलंदियों तक पहुँचाया। अमरीशपुरी जैसे कलाकार सत्यदेव दुबे की खासियतों के आगे नतमस्तक रहा करते थे।
मुझ पर तो उनका लाड़ रहा ही, हिन्दी रंगमंच के लिए समर्पित हर कलाकार और निर्देशक के लिए उनके दरवाजे हमेशा खुले रहते थे। कभी भी किसी तरह की सलाह माँगने पर उन्होंने किसी को भी दुत्कारा नहीं। इतना रसूख और रुआब होने के बाद भी वे हमेशा जमीन से जुड़े रहे। यही एक सच्चे कलाकार की पहचान होती है। जिंदगी को उन्होंने न सिर्फ जिया बल्कि उसे अपनी साधना का संबल बनाया। काम में कोताही उन्हें बर्दाश्त नहीं होती थी। अपने हुनर के हर साधक की तरह वेभी हर कलाकार से उसका सौ फीसद चाहते थे। ऐसा न होने पर वे कभी-कभी हमें डाँटते भी थे, लेकिन एक अच्छे शागिर्द की तरह हमने उनकी डाँट को भी आशीर्वाद की तरह ग्रहण किया।
हिन्दी रंगमंच उनके इस प्यार और दुलार के लिए हमेशा उनका आभारी रहेगा। रंगमंच पर उन्होंने अपने जीवन से निकालकर तमाम रंग बिखेरे और अब जब वो एक-दूसरे रंगमंच की यात्रा पर निकल गए हैं तो भी उनके रचे इंद्रधनुष की झिलमिलाहट हिन्दी रंगमंच को कई-कई पीढ़ियों तक यूँ ही सावन की बरसात सरीखी भिगोती रहेगी।