धर्म ही जीवन जीने का सही मार्ग

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राष्ट्र जागृति का उद्घोष कर नारद भक्ति सूत्र प्रवचनों के माध्यम से वृंदावन के संत स्वामी गिरीशानंद सरस्वती महाराज कहते हैं कि धर्म और मोक्ष से संपुटित अर्थात्‌ बंधे रहने से अर्थ और काम कल्याणकारी होता है। अन्यथा अनियंत्रित अर्थ और काम ही मानव जीवन को समूल नष्ट कर देता है।

गिरीशानंदजी ने कहा कि व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण ही आज समाज में सारी अव्यवस्था हो रही है। वस्तुतः सबसे बड़ा सुख त्याग में ही है। जितना आनंद स्वयं खाने में नहीं आता, उससे अधिक आनंद दूसरों को खिलाने में आता है।

इतना ही नहीं दूसरों को खिलाकर यदि भूखा भी रहना पड़े तो वह परमानंद हो जाता है। लेकिन आज अतिसंग्रह और स्वार्थ से जकड़ा व्यक्ति संसार के नाशवान वस्तुओं में सुख-शांति खोजने में भटक रहा है। जो संभव ही नहीं है।

सद्गुरु एवं संत की प्राप्ति ही भक्ति मार्ग पर चलने वालों की पहली सीढ़ी है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि केवल संतों का संग मिल जाना ही अंतिम लक्ष्य नहीं है। अपितु संतों के संग में सत्संग, उनसे तत्व ज्ञान का श्रवण करना और उसके बाद उसका निधिध्यासन होने पर ही भक्ति साफल्य को प्राप्त होती है।

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गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं, 'एक घड़ी आधी घड़ी आधी की पुनि आध, तुलसी संगत साधु की कटे कोटि अपराध' इसी बात को नारद भक्ति सूत्र में कहा है, 'तस्मिन्‌ तज्जने भेदाभावात्‌, तदेव साध्यताम्‌' अतः भगवान की भक्ति के लिए उनके स्वभाव, स्वरूप और प्रभाव का ज्ञान आवश्यक है।

भगवान की व्यवस्था की वह भक्त एवं निष्ठावानों को उनके अनुरूप ही संगत दे देते हैं और जो चतुर चालाक और केवल संसार में अपने भरण-पोषण के लिए ही दौड़ते रहते हैं उन्हें भी ऐसे ही लोगों का संग प्राप्त होता है। लौकिक व्यवहार में भी यदि सच्चाई एवं निष्ठा का भाव रहेगा तो दुनियादारी भी कभी न कभी ऐसा अवसर प्रदान कर देगी कि व्यक्ति का जीवन ईश्वर भक्ति की ओर लग ही जाएगा।

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