इतिहासकारों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के जनजातीय नायकों के साथ अन्याय किया, बोले शहीद समरसता मिशन के संस्थापक मोहन नारायण

Webdunia
रविवार, 19 फ़रवरी 2023 (20:17 IST)
इंदौर। शहीद समरसता मिशन के संस्थापक व राष्ट्रीय संयोजक मोहन नारायण ने कहा है कि इतिहासकारों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के जनजातीय नायकों के साथ अन्याय किया। उसके शौर्य, त्याग और बलिदान को गुमनामी के खंदको में डालकर, इतिहास की किताबों में विदेशी आक्रांताओं का महिमामंडन भर दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज स्वयं के पौरुष व सामर्थ्य से कभी परिचित ही नहीं हो सका। वो सदैव स्वयं को हीन व विदेशी आततायियों को श्रेष्ठ मानता रहा उनकी गुलामी को स्वीकार करता रहा है। 
 
वे यहां शासकीय होलकर विज्ञान महाविद्यालय में आयोजित कार्यक्रम में 'स्वतंत्रता संग्राम में जनजातीय नायकों का योगदान' विषय पर संबोधित कर रहे थे। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में मोहन नारायण ने कहा कि जनजातीय नायक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वे सूर्य है, जिन्होंने राष्ट्राय स्वाहा की बलिवेदी पर स्वयं को न्यौछावर कर इस राष्ट्र को प्रकाशमयी किया है।

उनके सर्वोच्च त्याग, पराक्रम और बलिदानी से समूचा भारतीय भू-भाग इतिहास भरा हुआ है लेकिन दुर्भाग्य है कि ताकतों के गुलाम रहे तत्कालीन तथाकथित इतिहासकारों ने उन्हें गुमनामी के दौर में झोक दिया और इतिहास की किताब में विदेशी इस्लामिक आक्रांताओं जैसे मोहम्मद गजनवी, सिकंदर, अकबर आदि को महान घोषित कर दिया। आज के इतिहासकार यह बताने में मुंह छिपाते हैं कि जनजातीय योद्धाओं से मुंह की खाने वाला सिकंदर महान कैसे हुआ?

सच्चे इतिहास को पढ़ने पर ज्ञात होता कि मृत्यु के शाश्वत सिद्धांत को परास्त करके दुनिया मैं बने रहे महान मृत्युंजयी भारत के विभिन्न कालखंड में  स्वीकारा गया है। इस राष्ट्र की यशस्वी बलिदान परंपरा को हमारे बलिदानियों ने अपने रक्त से सींचा और इनमें जनजातीय योद्धाओं का योगदान अविस्मरणीय रहा है।

मोहन नारायण ने कहा कि किस तरह इस्लामिक आक्रांताओं ने सनातन संस्कृति पर आक्रमण करते हुए भारत को सांस्कृतिक व आर्थिक रूप से ध्वस्त किया। इस बीच जनजातीय योद्धाओं ने अपना सर्वस्व इस राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा के लिए न्यौछावर कर दिया।

मोहम्मद गजनी ने जब भारतीय संस्कृति के केंद्र रहे सोमनाथ के मंदिर पर जब आक्रमण किए तो गाजी भील ने गिर के जंगलों में अपने मुट्ठी भर जनजाति योद्धा साथ उसकी विशालतम सेना का सामना किया । यह संघर्ष उस अंतिम क्षण तक जारी रहा जब तक की एक आखरी जनजातीय योद्धा वीरगति को प्राप्त नहीं हो गया लेकिन इतिहास में कहीं इस संघर्ष का वर्णन नहीं मिलता।

तथाकथित इतिहासकारों ने भारत में सती प्रथा के कुछ सिलेक्टिव मॉलस को दुनिया को यह बताने का भरसक प्रयास किया कि दुनिया में महिलाओं की अगर सबसे दयनीय स्थिति कहते है तो वो भारत में है लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि किस तरह गढ़ मंडला की रानी दुर्गावती ने अकबर की सेना को 1 या 2 नहीं 4-4 बार परास्त किया और राष्ट्र व स्वयं की अस्मिता की रक्षार्थ सर्वोच्च बलिदान दिया।

ये सिकंदर को महान बताते है, लेकिन ये छुपाते है कि किस तरह पंजाब के जंगलों में हमारे जनजातीय योद्धाओं से परास्त होकर वो और उसकी सेना उल्टे पैर भागे थे। ये राणा पूंजा भील के समर्पण को नहीं बताते जिन्होंने राष्ट्र व महाराणा प्रताप की सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया और हल्दीघाटी के इतिहास को अपने शीर्ष से अमर कर दिया। ऐसे गिनाने को अनेकों उदाहरण है, जिन्हें राष्ट्र विरोधी षड्यंत्रकारी ताकतों के चाटुकार रहे  इतिहासकारों ने अनदेखा कर दिया। हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है कि हम इन क्रांतिवीरों, बलिदानियों के 'सर्वोच्च बलिदान को सर्वोच्च सम्मान दें, जिनके वे अधिकारी है।
 
मोहन नारायण ने बताया कि जो इतिहास बीते 25 सालों में हमारे माथे मड़ दिया गया वो हमें सिर्फ यह बताता है कि हम कितने कमजोर है। इतिहास हमें आत्महीनता के बोध से भर देता है, वो इतिहास हमें सिद्ध कराता है कि हमारे राष्ट्र में सभ्यता, संस्कृति, साहस की कोई संरचना ही नहीं रही....! जिसके पीछे की इन राष्ट्र विरोधियों की मंशा स्पष्ट थी कि हम आगे भी सदियों तक इन विदेशियों के सामने हाथ में कटोरा लिए समृद्ध होते हुए भी भीख मांगते रहे। लेकिन आज हमें यह स्वीकारना होगा कि इतिहासकारों ने किताबों में कोरा झूठ परोसा है।

उन्होंने अंग्रेजों से संघर्ष करने वाले प्रथम नायक के रूप में मंगल पांडे को स्थापित किया लेकिन यह पूरा सच नहीं है। मंगल पांडे तो हमारे आराध्य है लेकिन इनसे लगभग सौ साल पहले बाबा तिलका मांझी ने राजमहल के जंगलों से निकलकर ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ स्वतंत्रता का बिगुल फूंका था, राजमहल के जंगलों को स्वतंत्र घोषित कर दिया था।

इतिहास में वीर सिद्ध- कान्ह, चांद-भैरव इन चार भाईयों और इनकी दो बहनों फूली और झानी, रानी के अलावा टंट्या मामा भील, भीमा नायक के सर्वोच्च बलिदान को कही वर्णित नहीं किया गया क्योंकि ये हमें हमारे सामर्थ्य का बोध कराते हैं जो कि राष्ट्रविरोधी कभी नहीं चाहते है। ये बताते है कि अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा महात्मा गांधी ने दिया लेकिन सच ये है कि दोबारी की पहाड़ी पर इस नारे का उद्घोष करके भगवान बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ घोषणा की थी।

अतिथियों का स्वागत कॉलेज के प्राचार्य डॉ. सुरेश सिलावट ने किया। संचालन प्रो. शीतल उड़के ने किया। आभार डॉ. भूमिता बड़े ने माना।

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