पंछी भी सुर में गाते-गुनगुनाते हैं

मंगलवार, 10 मई 2011 (11:48 IST)
दक्षिण भारत में नाच-गाने का मौसम है और यहाँ इसमें खूब विविधता पाई जाती है। लगभग इसी समय वैज्ञानिकों के बीच बहस छिड़ी हुई है कि इंसान के अलावा और कौन-से जानवर गा सकते हैं और अपने मजे के लिए गाते हैं

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धरती पर मौजूद सारे जीवों में से दो ही गाते हैं- एक हम और दूसरे गायक पक्षी। सारे पक्षी नहीं गाते, सिर्फ वही पक्षी गाते हैं जिन्हें हम सांगबर्ड्‌स यानी गायक पक्षी कहते हैं, मसलन मुर्गे और फ़ाख्ता सिर्फ आवाजें निकाल सकते हैं और उनका 'गीतों' का खज़ाना बहुत सीमित है। दूसरी ओर, यदि आपने तोता पाला हो तो आप जानते ही होंगे कि तोते और हमिंगबर्ड दूसरों का सुनकर नए-नए गीत सीख लेते हैं। पक्षियों की 9 हजार से ज्यादा प्रजातियां हैं और इनमें से आधी गायक पक्षियों की है। ये वे पक्षी हैं, जो स्वरचित नए और पेचीदा संगीत-खंड गा सकते हैं।

'दी साइंटिस्ट' के 7 जनवरी 2011 के अंक में वेनेसा शिपानी ने बताया है कि न्यू जर्सी इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के डेविड रॉथेनबर्ग पिट्सबर्ग पक्षी संग्रहालय जाकर अपना क्लेरिनेट बजाकर पक्षियों को सुनाते हैं। खासतौर से एक पक्षी, व्हाइट क्रेस्टेड लॉफिंग थ्रश, उनके साथ सुर से सुर मिलाकर गाने लगता है। रॉथेनबर्ग का कहना है कि वे इस तरह से पक्षियों के साथ संवाद कर सकते हैं, क्योंकि वे दोनों संगीत और सौंदर्य की एक समान सराहना करते हैं। शिपानी इस संदर्भ में चार्ल्स डारविन का हवाला देती हैं। डारविन ने दी डिसेंट ऑफ मैन में लिखा था- 'क्यों कुछ चटख रंग और तालमेल में होने पर कतिपय ध्वनियां खुशी को उकसाती हैं, यह बात वैसी ही है, जैसे कुछ गंध ज्यादा पसंद आती है, मगर इतना तय है कि उन्हीं रंगों और उन्हीं ध्वनियों को हम भी पसंद करते हैं और कई अन्य निम्नतर जंतु भी।'

अव्वल तो सवाल यह है कि पक्षी गाते या ध्वनियां पैदा ही क्यों करते हैं? परंपरागत वैज्ञानिक समझ यह है कि इनके माध्यम से वे प्रजनन के लिए साथी को आकर्षित करते हैं। सरल ध्वनि-उत्पादन, जिसे पुकार कहा जाता है, का उपयोग अन्य पक्षियों से संपर्क बनाने और उन्हें भोजन के स्रोत या संभावित खतरे के प्रति आगाह करने के लिए किया जाता है। गीत ज्यादा पेचीदा होते हैं और इनकी अवधि भी ज्यादा लंबी होती है। इनमें जटिल ध्वनि पैटर्न होते हैं। इनका उपयोग अपनी निजी पहचान बताने, इलाका चिह्नित करने और प्रजनन के उद्देश्य से साथियों को आकर्षित करने के लिए किया जाता है।

यह बात बढ़ते क्रम में साफ होती जा रही है कि जटिल गीत रचने के लिए सीखना जरूरी होता है। इसी संदर्भ में हम मुर्गे और कोयल के बीच भेद करते हैं। आप मुर्गे के सामने चाहे जितनी बीन बजाएँ या वह अपने कबीले से चाहे जो सुने, उसके पास ध्वनियों का जो समूह है, उसमें इजाफा नहीं होता। यदि उसकी ध्वनियों को संगीत कहा जा सके तो वह बहुत सीमित है, अविकसित है और उसके डीएनए में अंकित है।

न्यूयॉर्क के वैज्ञानिक डॉ. ओफर चेर्नीचोव्स्की, डेविड रॉथेनबर्ग के काम से प्रभावित होते हुए भी कहते हैं कि- 'मुर्गों और मेंढक जैसे जीवों में ध्वनि के पैटर्न हार्डवायर्ड (यानी उनके अंदर अंकित हैं), क्योंकि उन्हें ये ध्वनियां पैदा करने के लिए किसी से सुनना नहीं पड़ता।'

दूसरी ओर पक्षी जगत की एमएस सुब्बालक्ष्मी के अनुसार बुलबुल के पास 200 अलग-अलग गीतों का खजाना होता है। और तो और, वह परिस्थिति के अनुसार उसमें फेरबदल भी कर सकती है। हो सकता है एक बार वे चमबगीक क्रम में गाएँ और किसी अन्य मौके पर मीगक में गाने लगे। इसके अलावा, जब वे जोड़ी या कोरस में (यानी जुगलबंदी या सवाल-जवाब शैली में) गाते हैं तो गीत काफी जटिल होता है। इसी मामले में विज्ञान में स्पष्ट समझ नहीं है।

हालांकि यह माना जाता है कि मादा पक्षी ऐसे नर को पसंद करती है जिसका गीत ज्यादा जटिल हो और लंबी अवधि का हो, मगर क्या मानना सही होगा कि मामला हमेशा प्रजनन का ही होता है या क्या माजरा इससे अधिक कुछ है? इतना तो साफ है कि इंसानों के समान गायक पक्षी भी सुनकर सीखते हैं और नए पक्षी पुरानों की अपेक्षा ज्यादा संगीत की रचना करते हैं। कुछ गायक पक्षियों की मस्तिष्क संरचना के अध्ययन से पता चलता है कि उनमें और इंसानों में काफी समानता है।

मानव मस्तिष्क की संरचना द्विपक्षीय है। बाएं गोलार्ध का संबंध भाषा, विश्लेषणात्मक कार्य, समय क्रम निर्धारण वगैरह से होता है, जबकि दायां गोलार्ध संगीत क्षमता, हास्य, दृश्य-स्थान संबंधी क्षमता आदि से संबंधित होता है। इस बात के प्रमाण बढ़ते जा रहे हैं कि गायक पक्षियों, व्हेल्स और अन्य उच्चतर स्तनधारी प्राणियों में भी इस तरह की द्विपक्षीयता पाई जाती है।

दूसरा सवाल यह है कि क्यों कुछ पक्षी गा पाते हैं और अन्य नहीं। इसकी कुछ व्याख्या तो उनकी ध्वनि उत्पादन रचनाओं की बनावट से हो जाती है। सिरिंक्स नामक उपांग की शरीर में स्थिति और जटिलता ही गायक पक्षियों को अलग करती है।

जहां व्हेल के मस्तिष्क और उसके ध्वनि उत्पादन अंगों की संरचना पर तो और अनुसंधान चल रहा है, वहीं यह स्पष्ट है कि गोरिल्ला, चिंपेंजी, गिबन जैसे प्राणियों (एप्स) की मस्तिष्क संरचना और ध्वनि उत्पादन अंग हमारे जैसे ही हैं। तो वे जटिल ध्वनियां और भाषा तो नहीं बोल पाते हैं, मगर उनमें निश्चित तौर पर लय की समझ होती है। संगीत शास्त्री कार्ल सेक्स और फ्रांसवाइज बर्नार्ड मेशे ने बताया कि गोरिल्ला का कोई समूह साथ आकर एक सुर में ध्वनि उत्पादन कर सकता है- 'गोरिल्ला-उच्चार। इसी प्रकार से चिंपेंजी पेड़ के तने पर सरल ताल बजा सकते हैं।

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मेशे ने पाया कि गायक पक्षियों में लय की गहरी समझ होती है। ऐसे कई पक्षी अलग-अलग लय के पैटर्न पर गीत बना सकते हैं (काल प्रमाणम) और बीच-बीच में तबले के 'खाली' के समान निर्धारित अवधि की चुप्पी भी रख सकते हैं। वे ऐसा सब क्यों करते हैं? सिर्फ प्रजनन साथी को आकर्षित करने के लिए या अपने मजे के लिए या उसके सौंदर्य की तलाश में? और मोर जैसे नृतक पक्षियों के बारे में क्या कहेंगे? क्या वे कत्थक का पक्षी संस्करण प्रस्तुत करते हैं? गायक प्राणियों में सौंदर्य बोध की उत्पत्ति पर विज्ञान काफी शोध कर सकता है।

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