भारत में बहुत सारी झीलें हैं जिन्हें सरोवार भी कहा जाता है। जैसे कैलाश मानसरोवर झील, पंपा सरोवर, पैंगोंग झील, पुष्कर सरोवर, नारायण सरोवर, बिंदु सरोवर, डल झील, लोणार झील आदि। भारत में ऐसी कई झीलें या ताल हैं जो कि बहुत ही रहस्यमयी है जैसे महाराष्ट्र में बुलढाना जिले में स्थित लोणार की झील। इसी तरह रूपकुंड झील या नदी हिमालय पर्वतों में स्थित है। आओ जानते हैं इसके बारे में संक्षिप्त जानकारी।
उत्तराखंड की रहस्यमयी रूपकुंड झील के बारे में कई किस्से हैं। समुद्र तल से 5,029 मीटर की ऊंचाई पर स्थित रूपकुंड झील में समय समय पर बड़ी संख्या में कंकाल पाए जाने की घटनाओं ने सभी को कुछ वर्ष पूर्व हैरत में डाल दिया था। झील के आसपास यहां-वहां बिखरे कंकालों की वजह से इसे 'कंकाल झील' अथवा 'रहस्यमयी झील' भी कहा जाने लगा था। हर साल जब भी बर्फ पिघलती है तो यहां कई सौ खोपड़ियां देखी जा सकती है।
इस झील के चारों ओर ग्लेशियर और बर्फ से ढके पहाड़ हैं। यह झील लगभग 2 मीटर गहरी है। रूपकुंड में 12 साल में एक बार होने वाली नंदा देवी राजजात यात्रा में भाग लेने के लिए श्रद्धालु दूर-दूर से यहां आते हैं।
इस झील के तट पर मानव कंकाल पाए गए हैं। शोधकर्ताओं के अंतरराष्ट्रीय दल का कहना है कि उत्तराखंड की रहस्यमयी रूपकुंड झील दरअसल पूर्वी भूमध्यसागर से आई एक जाति विशेष की कब्रगाह है जो भारतीय हिमालयी क्षेत्र में 220 वर्ष पहले वहां आए थे।
शोधकर्ताओं ने 'नेचर कम्युनिकेशंस' जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा है कि रूपकुंड झील में जो कंकाल मिले हैं वे आनुवंशिक रूप से अत्यधिक विशिष्ट समूह के लोगों के हैं, जो एक हजार साल के अंतराल में कम से कम दो घटनाओं में मारे गए थे।
शोधकर्ताओं का मानना है कि सात से 10 शताब्दी के बीच भारतीय मूल के लोग अलग-अलग घटनाओं में रूपकुंड में मारे गए। परंतु अब भी यह स्पष्ट नहीं है कि कि ये लोग रूपकुंड झील क्यों आए थे और उनकी मौत कैसे हुई।
हालांकि कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि झील के पास मिले लगभग 200 कंकाल जो मिले हैं वो लगभग नौवीं सदी के आसपास के उन भारतीय आदिवासियों के हैं जो ओले की आंधी में मारे गए थे।
इन कंकालों को सबसे पहले साल 1942 में ब्रिटिश फॉरेस्ट गार्ड ने देखा था। तब यह माना जा रहा था कि यह नर कंकाल उन जापानी सैनिकों के थे जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इस रास्ते से गुजर रहे थे। यह भी कहा जाता था कि यह खोपड़िया कश्मीर के जनरल जोरावर सिंह और उसके आदमियों की हैं, जो 1841 में तिब्बत के युद्ध से लौट रहे थे और खराब मौसम की चपेट में आ गए। ऐसा भी कहा जाता था कि ये लोग किसी संक्रामक रोग की चपेट में आ गए होंगे या फिर तालाब के पास आत्महत्या की कोई योजना बनाई होगी।
हालांकि अब इसका खुलासा हो गया है कि ये कंकाल 850 ईसवी में यहां आए श्रद्धालुओं और स्थानीय लोगों के हैं जो दो समूह में बंटे थे। पहला समूह एक ही परिवार का था और दूसरा समूह छोटे कद वाले लोगों का था। ये लोग यहां पर बर्फिली आंधी में फंस गए थे। उनकी मौत उनके सिर के पीछे आए घातक तूफान की वजह से हुई है। खोपड़ियों के फ्रैक्चर के अध्ययन के बाद पता चला है कि मरने वाले लोगों के ऊपर क्रिकेट की गेंद जैसे बड़े ओले गिरे थे।