पाकिस्तान की 'मदर टेरेसा' हैं अब्दुल सत्तार ईदी

सोमवार, 26 अक्टूबर 2015 (19:09 IST)
पाकिस्तान में ईदी फाउंडेशन के नाम से एक गैर सरकारी संगठन चलाने वाले अब्दुल सत्तार ईदी भारत में पैदा हुए थे।  पाकिस्तान में उनके नाम के घर-घर में लोग जानते हैं हालांकि भारत में मूक-बधिर लड़की गीता की स्वदेश वापसी के  साथ ही ईदी फाउंडेशन चर्चा में आया है। शायद आपको यह जानकार आश्चर्य हो कि अशांत रहने वाले इस देश में ईदी  कायदे आजम के बाद देश के इतिहास का सबसे सम्मानित और इज्जतदार नाम है। कभी खुद एक शरणार्थी के तौर पर  पाकिस्तान पहुंचे 87 वर्षीय अब्दुल सत्तार ने 1951 में कराची में फाउंडेशन की नींव रखी थी। 
वे तब मात्र 23 वर्ष के थे और उन्होंने अपने फाउंडेशन के लिए पहली एम्बुलेंस खरीदने के लिए कराची की सड़कों पर  लोगों से भीख भी मांगी। जितना पैसा वे एकत्र कर सके, उससे उन्होंने एक जीर्ण शीर्ण वैन खरीदी और इसे एक एम्बुलेंस  में बदला। उन पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाने वाले पत्रकार पीटर ऑबर्न का कहना है कि वे एक 'जीवित संत' हैं। वर्ष 2011 में  उन्होंने 'द टेलिग्राफ' में लिखा कि 'एक रिपोर्टर के तौर पर काम करते हुए उन्होंने राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और राज  परिवारों के प्रमुखों से बात की लेकिन जब उन्होंन ईदी से हाथ मिलाया तो उन्हें महसूस हुआ कि वे एक नैतिक और  आध्यात्मिक महानता से रूबरू हैं।
 
अब्दुल सत्तार ईदी ने अपने समूचे जीवन में सादगी को मन, वचन और कर्म से अपनाया। वे नीले रंग के कपड़े पहनते हैं  और जिन्ना टोपी पहनते हैं। पिछले साठ से अधिक वर्षों के दौरान उन्होंने समूचे देश में अपने सेंटर्स बनाए हैं। वे  अनाथालय, मानसिक रोगियों के लिए घर, नशे के शिकार लोगों के लिए पुनर्वास केन्द्र, सैकड़ों एम्बुलेंसेंज को चलवाते हैं।  परित्यक्त महिलाओं, बच्चों, बीमारों के लिए उन्होंने होस्टल्स भी बनवाए हैं। उन्होंने गरीबों को भोजन दिया और मरने के  बाद उन्हें दफनाने के काम भी आए। उनमें दयाभाव कूट-कूटकर भरा है।
 
जिन्ना की ही तरह एक गुजराती मुस्लिम ईदी वर्ष 1928 में जूनागढ़ के बांतवा में पैदा हुए थे। विभाजन के बाद हुए दंगों  के बाद वे कराची पहुंचे और उन्होंने शहर को अपना घर बनाया। उनका परिवार इस्लामिक समुदाय मेमनों का है और वे  इसकी एक धर्मार्थ शाखा में काम करने लगे। पर जब कुछ समय बाद उन्हें पता चला कि मेमनों की यह संस्था केवल  मेमनों के लिए काम करती है तो उन्होंने इसका विरोध किया। वे संस्था से अलग हो गए और उन्होंने अपने घर के बाहर  खुद के सोने के लिए सीमेंट की बेंच बनवाई ताकि अगर रात में कोई मदद मांगने आए तो उसे निराशा नहीं हो।
 
इससे उन्हें मेमनों के कोप का शिकार होना और उन्हें भरोसा हो गया कि वे लोग उनकी हत्या तक कर सकते हैं तो  उन्होंने यूरोप की पैदल यात्रा की। वे रास्ते भर मांगते रहे। एक सुबह जब वे रोम के रेलवे स्टेशन की बेंच पर सोए थे तो  उन्हें पता चला कि उनके जूते चोरी हो गए हैं। पर वे परेशान नहीं हुआ और अगले ही दिन एक वृद्ध महिला ने उन्हें पुराने  गमबूट दे दिए। उन्हें जूते तो मिल गए लेकिन उन्हें पहनकर चलना मुश्किल था क्योंकि दोनों जूतों का साइज अलग-अलग  था लेकिन फिर भी उन्होंने अपनी यात्रा के दौरान उन बड़े आकार के जूतों से काम चलाया। 
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लंदन में पहुंचकर उन्होंने ब्रिटिश शासन की लोक कल्याणकारी व्यवस्था को सराहा लेकिन यह भी महसूस किया यह भी  लोगों में निर्भरता की संस्कृति को पैदा करती है। ब्रिटेन में उन्हें काम देने की पेशकश की गई लेकिन उनका कहना था कि  वे पाकिस्तान में लोगों की मदद करना चाहते हैं। यूरोप से लौटने के बाद उनका भाग्य की तय हो गया था। पचास के  दशक में उनका हुलिया कुछ इस प्रकार का था कि एक के बाद एक सात महिलाओं ने उनके विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा  दिया। बाद में, उन्होंने पवित्रता को अपनाते हुए अपनी समूची ऊर्जा से दूसरों के कल्याण में जुट गए। 
 
सिंध में अपनी एम्बुलेंस से उन्होंने गरीबों को अस्पताल पहुंचाया, मृतकों के शवों को पुलिस थाने लेकर गए और अगर  कोई शव लावारिस मिला तो उन्होंने खुद ही इसे दफना भी दिया। वर्ष 1996 में उनकी जीवनी प्रकाशित हुई जिससे लोगों  को जानकारी मिली कि उन्होंने कैसे पीडितों की मदद की। जब उन्होंने देखा कि अविवाहित माताएं सामाजिक अपयश से  बचने के लिए नवजातों को छोड़ देतीं या उन्हें मार देतीं तो उन्होंने नवजात बच्चों के लिए अनाथालय खुलवाए। उन्होंने  देखा कि एक मस्जिद के बाहर कठमुल्लाओं के आदेश पर भीड़ ने एक नवजात की पत्थर मार-मार कर हत्या कर दी। 
 
इस बात से नाराज ईदी ने अपने प्रत्येक सेंटर के बाहर एक छोटा पालना रखवाया और इसके नीचे लिखे एक पोस्टर में  लोगों से कहा कि एक और पाप न करें। बच्चे को हमारी देखरेख में सौंप दें।' इस प्रकार उन्होंने 35 हजार से ज्यादा बच्चों  को बचाया और करीब आधे बच्चों को ऐसे परिवारों को सौंपा जो कि उन्हें बडे यत्नपूर्वक रखते हैं। जनरल जिया के शासन  काल में सरकार का इस्लामीकरण किया जाने लगा तो उन्होंने इसके खिलाफ भी आवाज उठाई।   
 
उनके करीबी साथी कहते हैं कि हालांकि उनकी पृष्ठभूमि एक पर परम्परागत मुस्लिम की रही लेकिन संवेदनशील  सामाजिक मामलों पर उन्होंने हमेशा ही खुले दिल दिमाग से काम लिया। उन्होंने महिलाओं को काम करने के लिए प्रेरित  किया। उनकी पत्नी बिलकीस बानो ईधी एक पेशेवर नर्स हैं और समूचे पाकिस्तान में उन्हें ' द मदर ऑफ पाकिस्तान' के  नाम से जाना जाता है। उन्होंने महिलाओं के लिए बहुत से कल्याणकारी कार्यक्रम चलाए हैं और वे देश में महिलाओं के  लिए बहुत कुछ कर रही हैं। पाकिस्तान जैसे कट्‍टरपंथियों के देश में ईधी विशाल रेगिस्तान में एक झरने की तरह से हैं। 

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