सिंहासन खाली करो,हमारे राजा आ रहे है,राजा आओ देश बचाओं जैसे नारों के साथ काठमांडू में आगे बढती हुई भीड़ नेपाल में एक बार फिर राजतन्त्र की वापसी की मांग को लेकर हिंसक प्रदर्शन कर रही है। 28 मई 2008 में नेपाल में 240 सालों से चली आ रही राजशाही ख़त्म हुई थी,लेकिन डेढ़ दशक बीतने के बाद से देश में राजनीतिक अस्थिरता बनी हुई है। देश का सबसे बड़ा राजनीतिक संगठन नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी तीन हिस्सों में बंट गया है जिसमें एक तरफ़ ओली के नेतृत्व वाली यूएमएल,दूसरी तरफ यूनिफाइड सोशलिस्ट और तीसरी तरफ़ माओवादी है।
नेपाल में राजशाही ख़त्म होने के बाद से कम्युनिस्टों की सरकार रही है। नेपाली कांग्रेस की भी रही तो कम्युनिस्टों का समर्थन से रही। वो चाहे प्रचंड की अध्यक्षता वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) हो या केपी शर्मा ओली की अध्यक्षता वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी)। सत्ता में राजनीतिक दलों के बने रहने का इतना जूनून है की कोई विपक्ष में रहना ही नहीं चाहता। सभी पार्टियां जोड़ तोड़ करके सत्ता में बने रहना चाहती है और आम जनता के मूद्दे नजरअंदाज कर दिए गए है।
नेपाल के लोगों में मौजूदा सरकार को लेकर निराशा है,वे ग़ुस्से में हैं और यहां की जनता वैकल्पिक राजनीति की तलाश कर रही है। सितंबर 2015 में नेपाल ने अपना नया संविधान लागू किया था। नेपाल के समाज में काफी विविधता है पर संविधान समावेशी नहीं बनाया गया। यहीं कारण है की देश में गरीबी,असमानता और अराजकता बनी हुई है। 1990 के दशक में जब नेपाल में माओवादी जनयुद्ध चल रहा था,तब देश में वंचित वर्गों की वकालत की जा रही थी लेकिन सत्ता में आने के बाद सबने आम जनता से जुड़े मुद्दों को किनारे रख दिया है। नेपाल की सत्तारूढ़ माओवादी पार्टी की शक्तिशाली पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए)
जिसने डेढ़ दशकों तक राज्य के खिलाफ लगातार युद्ध छेड़ा था और 2006 में राजा ज्ञानेंद्र की सेना समर्थित सरकार के पतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी उससे निकले नेता सत्तावादी हो गये है। नेपाली सेना में माओवादियों को शामिल करने की मांग से न तो भारत सहमत था और न ही नेपाल की सेना को यह स्वीकार था। 2006 में संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में शांति प्रक्रिया शुरू हुई और माओवादी छापामारों ने हथियार डाल दिए। फिर लोकतंत्र की बहाली हुई और माओवादियों ने नेपाल में सत्ता भी संभाल ली। जनमुक्ति छापामार सेना यानी पीएलए का नेपाल की सेना में विलय कर दिया गया तथा पीएलए के कैम्प ख़त्म कर दिए गए।
नेपाल की गरीबी दर अभी भी बहुत अधिक है। नेपाल में गरीबी बदस्तूर जारी है तथा विभिन्न सरकारें अत्यधिक गरीबी दर को कम करने में विफल रही है। भूकंप,बाढ़ और भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए लोकतान्त्रिक सरकार कोई आपदा प्रबंधन योजना लागू नहीं कर सकी है। दूरदराज के क्षेत्रों में अपर्याप्त बुनियादी ढांचे समस्याओं को बढ़ा रहे है। सड़क,शिक्षा और स्वास्थ्य की अनदेखी से लोग परेशान है। कोविड-19 महामारी ने नेपाल में गरीबी के संकट को और भी बदतर बना दिया है। विश्व बैंक का अनुमान है कि कोविड ने 70 मिलियन अतिरिक्त लोगों को अत्यधिक गरीबी रेखा से नीचे धकेल दिया है।
नेपाल के कई लोगों की तरह कमज़ोर आबादी पर इसका बहुत ज़्यादा असर हुआ है। नेपाल अभी भी महामारी के प्रभाव से जूझ रहा है,जिससे गरीबी से जुड़े मुद्दों को हल करने के लिए कार्रवाई की ज़रूरत पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरी हो गई है। गरीबी में पैदा होने वाले बच्चे को आर्थिक स्थिरता हासिल करने के लिए कभी भी पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाते हैं। आम जनता महसूस करती है की उन्हें समस्याओं से मुक्ति मिलें। लोकतांत्रिक सरकार नेपाल में गरीबी उन्मूलन के प्रयासों में वृद्धि करें तथा यह कार्य तेजी से हो। शिक्षा,स्वास्थ्य सेवा,बुनियादी ढांचे और सतत रोजगार में निवेश करना नेपाल के सभी लोगों के लिए समृद्धि बढ़ाने के लिए आवश्यक गति बनाने के लिए महत्वपूर्ण है तथा नेपाल की अर्थव्यवस्था को इस तरह से विकसित करना है जिससे उसके सभी समुदायों को लाभ हो।
करीब डेढ़ दशक पहले राजा के ख़िलाफ़ नेपाल की जनता में नाराज़गी बढ़ गई थी और बड़े जन आंदोलन के बाद उन्होंने संसद को बहाल करते हुए अंतरिम सरकार को सत्ता सौंप दी थी। अब जनता एक बार फिर उसी तरह आंदोलन कर रही है। यह भी दिलचस्प है की राजतन्त्र की वापसी के आंदोलन की बागडोर एक माओवादी नेता कमांडर दुर्गा प्रसाई के हाथों में है। नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) के प्रमुख और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड ने कहा है कि जब रिपब्लिकन पार्टियां लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने में विफल हो जाती हैं,तो राजशाही समर्थक अपना सिर उठाने की कोशिश करते हैं। राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के के साथ और कई राजशाही समर्थक समूहों ने राजा के पक्ष में प्रदर्शन किए है।
2006 से पहले नेपाल सेना को रॉयल नेपाली सेना के नाम से जाना जाता था और यह नेपाल के राजा के नियंत्रण में थी। 2006 में नेपाली संसद द्वारा शाही शक्ति को कम करने वाला एक विधेयक पारित किया गया था जिसमें सेना का नाम बदलना भी शामिल था। 2006 तक नेपाल के राजा देश की सभी सैन्य ताकतों पर नियंत्रण रखते थे। राजशाही से गणतंत्र में परिवर्तन के बाद राष्ट्रीय सेना का नाम बदलकर रॉयल नेपाली सेना से नेपाली सेना कर दिया गया। नेपाली सेना के सर्वोच्च कमांडर का पद अब नेपाल के राष्ट्रपति के पास है।
नेपाल में कोसी,मधेस,बागमती,गंडकी,लुंबिनी,कर्णाली और सुदूरपश्चिम को मिलाकर कुल सात प्रांत हैं जबकि सेना की सुदूर पश्चिमी,मध्य पश्चिमी,वेस्टर्न,केंद्रीय,पूर्वी और घाटी जैसी छह डिवीजन है। नेपाल की सेना का प्रमुख काम क्षेत्रीय अखंडता, संप्रभुता और स्वतंत्रता की रक्षा करना है तथा आंतरिक सुरक्षा बनाए रखने में नेपाल की नागरिक सरकार को सहायता प्रदान करना है।
पिछले साल नेपाल के सेना प्रमुख जनरल अशोक राज सिगडेल ने देहरादून में भारतीय सैन्य अकादमी की पासिंग आउट परेड में कैडेट्स से प्राचीन भारतीय रणनीतिकार चाणक्य को उद्धृत करते हुए कहा था कि,आपके कर्म आपका भविष्य तय करेंगे। इसलिए,भरोसा रखें कि आप अपनी योग्यता के बजाय अपने कार्यों की योग्यता से आगे बढ़ेंगे।
नेपाल के माओवादी कहते है की,एक अन्यायपूर्ण राज्य जो हथियार चलाता है उसका मुकाबला केवल हथियारों से ही किया जा सकता है। काठमांडू में सेना को लोगों के हिंसक संघर्ष का सामना करना पड़ रहा है। लोकतांत्रिक दलों से लेकर ताजा विरोध प्रदर्शनों में माओवादियों की भूमिका नेपाल की संप्रभुता का संकट बढ़ा रहे है।
भारत की सत्ताधारी पार्टी भाजपा के वरिष्ठ नेता और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह पहले ही कह चूके है की,नेपाल की मौलिक पहचान एक हिंदू राष्ट्र की है और इस पहचान को मिटने नहीं देना चाहिए। राजशाही के दौरान नेपाल एक हिंदू राष्ट्र के तौर पर जाना जाता था,तब नेपाल दुनिया का एकमात्र हिंदू राष्ट्र था। नेपाल में राजशाही की वापसी का मुद्दा गरम है तथा माओवादियों के प्रभाव से सेना में नाराजगी बढ़ रही है।
भारत माओवादियों के प्रभाव वाली सरकारों से परेशान रहा है,ओली और प्रचंड की साम्यवादी विचारधाराओं ने चीन की चुनौतियों को बढ़ाया है। अब नेपाल में राजशाही वापस लाने के लिए भी एक माओवादी नेता दुर्गा प्रसाई लड़ रहे है। भारत और नेपाल के सैन्य संबंध बेहद मजबूत है और भारत का उसे हमेशा समर्थन हासिल रहा है। जाहिर है माओवाद के प्रभाव, नेपाली लोगों की समस्याओं और आकांक्षाओं को देखते हुए आश्चर्य नहीं की सेना,देश की सुरक्षा समेत अन्य कार्य अपने हाथ में ले ले। नेपाल के इतिहास में यह अभूतपूर्व होगा लेकिन जो परिस्थितियां पड़ोसी देश में बन रही है उसके समाधान के संकेत सैन्य शासन की तरफ जा रहे है।