82 वर्ष पू्र्व, जब नेताजी बोस और हिटलर का आमना सामना हुआ

Netaji Subhash Chandra Bose meeting with Hitler: नेताजी सुभाषचंद्र बोस कुल मिलाकर तीन बार जर्मनी में रहे। जर्मन तानाशाह आडोल्फ़ हिटलर से उनकी पहली और अंतिम मुलाक़ात, उनके तीसरे प्रवास के दौरान, 27 मई 1942 के दिन, बर्लिन में हुई थी।
 
नेताजी सुभाषचंद्र बोस पहली बार स्वास्थ्य लाभ के लिए जुलाई 1933 से जर्मनी में थे। लगे हाथ यूरोप के कई दूसरे देशों की भी यात्रा की और भारत के स्वतंत्रता संग्राम के बारे में वहां के नामी नेताओं से बातें कीं। जनवरी 1938 में वे दूसरी बार जर्मनी में थे। इस बार उन्हें जल्द ही भारत लौटना पड़ा। उसी वर्ष फरवरी के शुरू में उन्हें कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष चुना गया था। किंतु उन्होंने पाया कि गांधी-नेहरू जैसे बड़े नेताओं से उनकी पट नहीं रही है। इसलिए एक ही वर्ष बाद, 1939 में उन्होंने अध्यक्ष-पद त्याग दिया।
 
उसी वर्ष 1 सितंबर को, जर्मन तानाशाह आडोल्फ़ हिटलर ने पोलैंड पर अकस्मात आक्रमण के साथ दूसरा विश्वयुद्ध छेड़ दिया। दो ही दिन बाद, 3 सितंबर के दिन– पहले ब्रिटेन ने और छह घंटे बाद फ़्रांस ने भी– जर्मनी के खिलाफ़ युद्ध की घोषणा कर दी। दोनों देश पोलैंड की स्वतंत्रता के संरक्षक थे। भारत का इस युद्ध से कुछ भी लेना-देना नहीं था। तब भी ब्रिटिश भारत के वाइसरॉय, लॉर्ड लिनलिथगो ने, उसी दिन कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं तथा देश की जनता से कहा कि भारत भी अब जर्मनी के साथ युद्ध की स्थिति में है; उसे ब्रिटेन के हाथ मज़बूत करने होंगे। नेताजी बोस इसके सरासर विरुद्ध थे। उन्होंने अंग्रेज़ी सरकार के आदेशों की अवज्ञा का आन्दोलन छेड़ दिया। अतः उन्हें गिरफ्तार कर 11वीं बार जेल में डाल दिया गया। गिरफ्तारी के विरुद्ध जेल में जब वे अनशन करने लगे, तो एक सप्ताह बाद उन्हें उनके घर में नज़रबंद कर दिया गया। 
 
नेताजी गायब हुए : चार महीने इसी तरह बीत गए। तब आई 16 जनवरी, 1941 की रात। उस रात नेताजी बोस भेस बदलकर सबको चकमा देते हुए घर से गायब हो गए। पहुंच गए अफ़ग़ानिस्तान में काबुल। वहां भगतराम तलवार की सहायता से रूसी और इतालवी दूतावासों से संपर्क किया। रूसी पत्नी वाले इतालवी राजदूत पीएत्रो क़ुआरोनी से उन्हें इटली का डिप्लोमैटिक पासपोर्ट मिला। पासपोर्ट में उनका नाम था – ओर्लान्दो मज़ोत्ता। रूसी राजदूत ने उन्हें दिया सोवियत रूस का ट्रांज़िट वीसा। भगतराम तलवार एक अनोखे देशप्रेमी थे। इटली और रूस के अलावा जर्मनी, जापान और ब्रिटिश भारत के लिए भी जासूसी करते थे। उन्हीं का दिमाग़ था कि जर्मन गुप्तचरों ने नेताजी बोस को उज़बेकिस्तान की सीमा तक पहुंचाया और एक रूसी गुप्तचर सेवा ने वहां समरकन्द से मॉस्को तक की उनकी रेल-यात्रा की व्यवस्था की। नेताजी की इस बहुत ही साहसिक यात्रा का अधिकांश ख़र्च, पर्दे के पीछे रह कर, भारत के प्रथम रक्षामंत्री रहे सरदार बलदेव सिंह ने निजी तौर पर उठाया था! 
 
मार्च 1941 के तीसरे सप्ताह में नेताजी बोस ट्रेन द्वारा मॉस्को पहुंचे। मॉस्को में वे सात दिन रहे। वहां क्या किया? किससे मिले और क्या बातें कीं? यह सब आज तक अज्ञात है। समझा जाता है कि इस बारे में जो भी जानकारी थी, वह उस समय की सोवियत गुप्तचर सेवा 'केजीबी' के पास रही होनी चाहिए। किंतु 1991 में सोवियत संघ के विघटन के साथ 'केजीबी' का भी अंत हो गया। उसकी जगह अब तक दो नई गुप्तचर सेवाएं ले चुकी हैं। मॉस्को में जर्मनी के राजदूत ने नेताजी के बर्लिन जाने की व्यवस्था की। वे बुधवार, 2 अप्रैल 1941 को बर्लिन पहुंचे थे। 
 
नेताजी बर्लिन में : बर्लिन पहुंचने के हफ़्ते भर में ही नेताजी बोस ने भारत की मुक्ति की अपनी योजना तैयार करली। 'जर्मन सरकार के नाम स्मृतिपत्र' शीर्षक इस योजना को, 9 अप्रैल 1941 के दिन उन्होंने पेश कर दिया। योजना में ब्रिटेन की हार को उन्होंने भारत और जर्मनी का साझा लक्ष्य घोषित किया। यह भी लिखा कि धुरी-शक्तियां – यानी जर्मनी, जापान और इटली – उनकी प्रस्तावित 'आज़ाद हिंद सरकार' को मान्यता प्रदान करेंगी और अपनी विजय के बाद भारत की स्वतंत्रता बनाए रखने की गारंटी देंगी। भारतीय सेना और जनता द्वारा विद्रोह के लिए रोडियो प्रसारणों की सुविधा प्रदान की जाएगी। जो भी धन और कर्ज़ मिलेंगे, भावी 'आज़ाद हिद सरकार' युद्ध के अंत के बाद उनकी भरपाई करेगी।
 
हिटलर को उन्होने लिखा कि ब्रिटिश सरकार के पास भारत में सरकार-भक्त ब्रिटिश सैनिकों और सहायकों की अधिकतम संख्या 70 हज़ार है। भारतीय मूल के सैनिक यदि विद्रोह कर दें, तो इंग्लैंड को अकेले ब्रिटिश सैनिकों के भरोसे भारत पर क़ब्ज़ा बनाए रख पाना मुश्किल हो जाएगा। यदि इसी मौके पर आधुनिक हथियारों से लैस 50 हज़ार सैनिकों की एक छोटी-सी खेप सहायता के लिए भारत भेजी जा सके, तो अंग्रेज़ों को भारत से पूरी तरह भगाया जा सकता है।
 
नेताजी पर शक : नेताजी बोस को यह नहीं पता था कि जिस दिन वे बर्लिन पहुंचे, उसी दिन तीसरे पहर जर्मन विदेश मंत्रालय के भारत संबंधी प्रकोष्ठ को आगाह किया गया कि वे 'एक सोवियत एजेंट हैं।' शायद इसी का परिणाम था कि स्मृतिपत्र के तीन ही दिन बाद, 12 अप्रैल1941 को, जर्मन विदेश मंत्रालय में अवरसचिव व्यौएरमान ने विदेशमंत्री योआख़िम फ़ॉन रिबेनट्रोप के नाम अपने एक गुप्त नोट में लिखा कि भारत की स्वतंत्रता के बारे में अभी से कोई औपचारिक घोषणा कर देना और 'भारत की स्वतंत्रता जर्मन युद्ध का लक्ष्य घोषित करना सही नहीं रहेगा... तब कोई सीधी राजनीतिक प्रगति हमारे लिए कठिन हो जाएगी और बोस को धुरी शक्तियों के हाथों बिक गया समझा जाएगा।'  
 
'सीधी राजनीतिक प्रगति' का अर्थ यह भी रहा हो सकता है कि नेताजी बोस जब काबुल में थे, उन्हीं दिनों, 17 फ़रवरी 1941 को, हिटलर ने अल्फ्रेड योडल नाम के अपने एक जनरल को आदेश दिया था कि वह, सोवियत रूस पर आक्रमण के 'ऑपरेशन बार्बारोसा' के तुरंत बाद, भारत की ओर बढ़ते हुए अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश करने की एक योजना तैयार करे। हिटलर का मानना था कि 6 से 8 सप्ताहों में सोवियत रूस 'ऑपरेशन बार्बारोसा' के आगे घुटने टेक देगा। तब सोवियत कॉकेशिया होते हुए भारत की तरफ़ आगे बढ़ना असान हो जाएगा।
 
हिटलर की भारत के प्रति मान्यताः हिटलर वास्तव में भारत को स्वतंत्र कराना नहीं, बल्कि अंग्रेज़ों के बदले अपना शासन थोपना चाहता था। अपनी पुस्तक 'माइन काम्फ़' (मेरी लड़ाई) में उसने भारतीय स्वतंत्रता संग्रामियों को 'एशियाई बाजीगर' बताते हुए साफ़ लिखा थाः 'आज़ादी पाना भारतीय नेताओं के वश की बात नहीं है। इंग्लैंड को हराना कितना कठिन है, इसे हम जर्मन खूब जानते हैं। एक जर्मनवंशी (अर्थात आर्य) होते हुए भी मैं, हर चीज़ के बावजूद भारत को, किसी और के मुकाबले अंग्रेज़ों की दासता में देखना अधिक पसंद करता हूं।' 
 
नेताजी बोस जर्मनी के अपने पिछले दोनों प्रवासों के समय हिटलर की इस विचारधारा से भलीभांति परिचित हो चुके थे। तब भी वे तीसरी बार संभवतः तीन नए कारणों से जर्मनी गए : पहला यह, कि रूस के प्रति उनके वामपंथी झुकाव के बावजूद रूसी तानाशाह स्टालिन उनकी उपेक्षा कर रहा था। दूसरा यह, कि जर्मनी और सोवियत रूस के बीच एक-दूसरे पर आक्रमण नहीं करने की अनाक्रमण संधि थी। नेताजी मान रहे थे कि दोनों के बीच कोई लड़ाई नहीं होगी। तीसरा यह, कि नेताजी के बर्लिन पहुंचने तक जर्मनी ने ब्रिटेन को भारी हवाई हमलों द्वारा दहला दिया था। तब तक यूरोप के क़रीब एक दर्जन देशों पर हिटलर क़ब्ज़ा भी कर चुका था। ऐसे विजेता का साथ पाना भला किसे तर्कसंगत नहीं लगता। 
 
हिटलर का दोगलापन : हिटलर अपने सार्वजनिक वक्तव्यों में उन दिनों कह भी रहा था कि ब्रिटेन 'भारत की करोड़ों दमित जनता को उसकी स्वतंत्रता और स्वाधीनता से वंचित रख रहा है।' 1940 के अंतिम दिनों में वह सोवियत रूस को सलाह तक देने लगा था कि उसे भारत से अंग्रेज़ों को खदेड़ देना चाहिए। इन बातों का उस समय यह अर्थ कोई नहीं लगा रहा था कि हिटलर, सोवियत रूस और अंग्रेज़ों को लड़ा कर, शायद दोनों को दुर्बल बनाना और भारत को स्वयं हथियाना चाहता है। नेताजी बोस ही, गांधी और नेहरू के बाद, भारत के सबसे नामी नेता थे। उनके सहयोग से भारतीयों के लिए मनभावन बनना जर्मनी के लिए कहीं आसान रहा होता। तब भी, बर्लिन में उन्हें उचित आवभगत नहीं मिल रही थी। 
 
तीन सप्ताहों की बेचैनी भरी प्रतीक्षा के बाद, विदेशमंत्री योआख़िम फ़ॉन रिबेनट्रोप ने, 29 अप्रैल1941 के दिन, नेताजी बोस को मिलने का समय दिया। वियेना के इम्पीरियल होटल में हुई इस मुलाक़ात में जर्मन विदेशमंत्री ने उनसे भारत की राजनीतिक स्थिति और जर्मनी के प्रति जनभावनाओं के बारे में कई प्रश्न पूछे। नेताजी ने कहा कि भारत में नाज़ीवाद और 
साम्राज्यवाद के प्रति दुर्भावना और सोवियत संघ के प्रति किसी हद तक सद्भवना ही है। यह सोवियत रूस पर जर्मनी के आक्रमण के केवल दो महीने पहले की बात है। 
 
नेताजी रूठकर रोम गए : रिबेनट्रोप ने इस बातचीत से हिटलर को भी अवगत कराया। दोनों को उनकी बातें अच्छी नहीं लगी होंगी। नेताजी भी ख़ुश नहीं थे। वे जो चाहते थे, वह हो नहीं रहा था। रूठकर वे 29 मई को रोम चले गए। वे रोम में ही थे, जब हिटलर ने सोवियत रूस के साथ अपनी अनाक्रमण संधि को भंग करते हुए, 22 जून 1941 को, उस पर हमला कर दिया। नेताजी को इससे भारी निराशा हुई। दूसरी ओर, उनके छह सप्ताह के रोम प्रवास के दौरान ही जर्मन विदेश मंत्रालय के अंतर्गत बर्लिन में 7 लोगों का एक 'विशेष भारतीय विभाग' गठित किया गया। उसने बर्लिन में एक 'आज़ाद हिंद केंद्र' की स्थापना की।
 
कूटनीतिक मिशन का दर्जा प्राप्त इस केंद्र ने, 29 अक्टूबर 1941 को, अपना काम शुरू किया। उसे अपने काम-काज के लिए एक करोड़ राइश मार्क उधार और उसके प्रमुख नेताजी बोस को उनके निजी उपयोग के लिए 12 हज़ार राइश मार्क मासिक भत्ता देना तय हुआ। प्रमुख भारतीय भाषाओं में रेडियो प्रसारणों के लिए भी 10 लाख राइश मार्क मिलने थे। उस समय का एक राइश मार्क आज के सवा चार अमेरिकी डॉलर के बराबर था। रहने के लिए नेताजी को, बर्लिन की एक सुंदर बस्ती में, लाल ईंटों का बना एक विला भी दिया गया। बोस तब भी खुश नहीं थे, क्योंकि उनके ऊपर निरंतर नज़र रखी जाती थी। उनके टेलीफ़ोन सुने और पत्र आदि सेंसर किए जाते थे।
 
बोस जब नेताजी कहलाए : अक्टूबर 1941 से फ़रवरी 1943 तक नेताजी बोस इसी घर में रहे। यहीं वे 'नेताजी' कहलाए। यह संबोधन उन्होंने खुद नहीं चुना था। 'आज़ाद हिंद फ़ौज' की जर्मनी में पहली रेजिमेंट के गठन के दौरान एक सैनिक ने उनका अभिनन्दन करते हुए 'नेताजी की जय' क्या कहा, यही उनका नया नाम और अभिनन्दन-संबोधन, सब कुछ बन गया। यहीं भारत का राष्ट्रीय अभिवादन 'जयहिंद' जन्मा। 'आज़ाद हिंद फौज़' के गठन की योजना बनी और नेताजी ने आह्वान किया : 'तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा!'  
 
29 नवंबर 1941 को नेताजी विदेशमंत्री रिबेनट्रोप से पुनः मिले। उसे जर्मनी की ओर से भारत की स्वतंत्रता संबंधी गारंटी की घोषणा में हो रही देर की याद दिलाई। यह भी कहा कि हिटलर की पुस्तक 'मेरी लड़ाई' में भारत के बारे में कही आपत्तिजनक टिप्पणियों का ब्रिटेन प्रचारात्मक लाभ उठा रहा है। वे इन बातों की केवल याद ही दिला सकते थे।
 
हिटलर का दिमाग़ बहुत अबूझ था। बर्लिन में जापानी राजदूत ओशिमा और हिटलर की, 3 जनवरी 1942 की एक वार्ता के संलेख (प्रोटोकोल) के अनुसार हिटलर ने कहाः ''इंग्लैंड ने भारत को यदि खोया, तो दुनिया का बंटाधार हो जाएगा। भारत ही ब्रिटिश साम्राज्य का नाभिक है। इंग्लैंड की सारी अमीरी भारत की ही देन है।'' उसी वर्ष 19 फ़रवरी के दिन, नेताजी ने 'आज़ाद हिंद रेडियो' पर अपना पहला भाषण दिया। अक्टूबर का मध्य आने तक 'आज़ाद हिंद', 'आज़ाद मुस्लिम' और 'राष्ट्रीय कांग्रेस' नाम के तीन अलग-अलग ट्रांसमीटरों से हिंदुस्तानी, बंगाली, पश्तो, फ़ारसी, अंग्रेज़ी, तेलुगू और कुछ नियत दिनों पर गुजराती तथा मराठी में भी प्रतिदिन कुल मिलाकर सवा तीन घंटों तक का प्रसारण होने लगा।
 
जापान की भूमिका : जापान1942 में ही भारत की स्वतंत्रता संबंधी गारंटी की घोषणा के लिए तैयार था, जबकि हिटलर कह रहा था : 'मैं समझ नहीं पाता कि मैं ही क्यों? क्या सिर्फ़ इसलिए कि जापानी ऐसा चाहते हैं, इसलिए मैं भी एक ऐसी घोषणा करने में शामिल हो जाऊँ!' जापानी घोषणा का प्रारूप तार द्वारा 11 अप्रैल 1942 को बर्लिन पहुंच भी गया। जापानी सेना उस समय भारत की ड्यौढ़ी पर खड़ी थी। पर, हिटलर चाहता था कि भारत या तो उसकी मुठ्ठी में हो या फिर अंग्रेज़ों के हाथ में ही रहे। इटली का तानाशाह मुसोलिनी भी जापान से सहमत था, पर हिटलर को नाराज़ नहीं करना चाहता था। दोनों तानाशाहों की 29 अप्रैल 1942 को ऑस्ट्रिया के शहर ज़ाल्सबुर्ग में एक बैठक थी। भारत की स्वतंत्रता संबंधी घोषणा की बात उठने पर हिटलर ने कहा कि उसे यह प्रश्न 'अत्यावश्यक नहीं लगता। इसके लिए आराम से इंतज़ार किया जा सकता है।'  
 
हिटलर से आमना-सामना : नेताजी बोस के धीरज का बांध टूट रहा था। हिटलर से मिलकर वे बहुत पहले ही कोई स्पष्टीकरण पा लेना चाहते थे। अंततः 27 मई 1942 का वह दिन आया, जब हिटलर ने उन्हें मिलने का समय दिया। उसके मुख्यालय में हुई इस मुलाक़ात के समय विदेशमंत्री रिबेनट्रोप, कुछ अन्य उच्च अधिकारी और बातचीत का संलेख लिखने वाले स्टेनोग्रफ़र भी बैठे हुए थे। इंग्लैंड के साथ युद्ध की स्थिति का वर्णन करने के बाद, हिटलर ने नेताजी बोस की मुख्य चिंता, 'भारत घोषणा' की ओर रुख किया।

इस टिप्पणी के साथ शुरुआत की कि वह हमेशा बहुत सोच-समझ कर सावधानी से काम करता है। 'जर्मनी से भारत इतना दूर है,' उसने कहा कि वहां 'रूस के शव पर से होकर ही पहुंचा जा सकता है।' इसलिए उसका सुझाव है कि आप 'जापानियों के पास जाएं और अपनी क्रांतिकारी लड़ाई भारत की सीमाओं पर से शुरू कर देश के भीतर तक ले जाएं।' जहां तक जर्मन सेना का प्रश्न है, तो 'जर्मन सैनिक एक या दो साल बाद ही भारत की सीमाओं तक पहुंच पाएंगे।' 
 
नेताजी बोस समझ गए कि हिटलर से किसी बड़ी सहायता की आशा नहीं की जा सकती। अतः उन्होंने उसका ध्यान उसकी पुस्तक 'माइन काम्फ़' (मेरी लड़ाई) की तरफ़ खींचने का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि ब्रिटिश प्रचारतंत्र भारत के बारे में उसमें लिखे विचारों ताथा अन्य मौकों पर कही गई बातों को 'तोड़मरोड़ कर उन्हें जर्मनी की छवि खराब करने के लिए इस्तेमाल कर रहा है।' अतः वे फ़्यूरर से निवेदन करना चाहते हैं कि वे किसी उचित अवसर पर भारत के प्रति जर्मन पक्ष को स्पष्ट करते हुए कुछ शब्द कहें। इससे भारत की जनता को वांछित स्पष्टता खुद ही मिल जाएगी।' यह नेताजी की एक कूटनीतिक चाल थी, जर्मनी-विरोधी ब्रिटिश प्रचार के बहाने से भारत की स्वतंत्रता संबंधी घोषणा पाने की।
हिटलर का अड़ियलपन : हिटलर भी कुछ कम उस्ताद नहीं था। उसका एक जटिल-सा उत्तर थाः 'मैंने उस समय केवल कुछ ऐसी प्रवृत्तियों का विरोध किया था, जिनका आशय यह था कि उत्पीड़ित लोगों को अपने उत्पीड़कों के खिलाफ एक आम मोर्चा बनाना चाहिए। इन लोगों की असहायता के चलते मैंने इसे पूरी तरह से ग़लत माना; विशेषकर इसलिए कि जर्मनी में भी ऐसे विचारों के लोग जर्मन साम्राज्य के प्रति निष्क्रिय प्रतिरोध के इस भारतीय नमूने का समर्थन करते हैं, जोकि पूरी तरह ग़लत होगा।' यानी, हिटलर ने अपनी पुस्तक में जो कुछ लिखा था, उससे पीछे हटने के लिए तैयार नहीं था। महात्मा गांधी का नाम लिए बिना उसने उनके अहिंसात्मक आन्दोलनों को 'असहायों का मोर्चा' कहा और अपने जर्मन साम्राज्य को इतना उत्तम बताने का प्रयास किया कि उसका अहिंसात्मक विरोध भी ग़लत काम होगा।
  
हार मानकर नेताजी ने 'जर्मनी से भारत के लिए नैतिक और राजनयिक समर्थन की मांग की, ताकि उसे पूरी तरह जापान पर निर्भर न रहना पड़े।' इस बातचीत के संलेखक ने नोट किया: 'युद्ध के बाद भारत के लिए जर्मनी के समर्थन के प्रश्न पर फ्यूहरर ने टिप्पणी की कि यह केवल आर्थिक समर्थन हो सकता है।' कहने की आवश्यकता नहीं कि हिटलर के साथ आमने-सामने की इस बातचीत से नेताजी बोस बेहद निराश हुए। अपने भारतीय मित्रों को उन्होंने बताया कि हिटलर के साथ कुछ मिनटों के लिए भी तार्किक रूप से किसी भी मामले पर चर्चा करना लगभग असंभव था। 
 
नेताजी का भ्रम टूटा : नेताजी सुभाषचंद्र बोस का रहा-सहा भ्रम भी अब टूट चुका था। अब एक ही विकल्प था–– जापान। जापान में रासबिहारी बोस के प्रयासों से वहां की सरकार, 16 फ़रवरी 1942 को ही, नेताजी के नेतृत्व में स्वतंत्र भारत की सरकार को मान्यता देने के लिए राज़ी हो गई थी। जापानी सैनिक भारत की पूर्वी सीमाओं तक पहुंच गए थे। दो महीनों के गहन चिंतन-मनन के बाद, 23 जुलाई 1942 को, नेताजी ने विदेशमंत्री रिबेनट्रोप को एक पत्र लिख। उससे अनुरोध किया कि उन्हें दूरपूर्व की यात्रा पर जाने दिया जाए।

इतालवी सरकार से उनकी उड़ान की व्यवस्था करने का अनुरोध किया जाए। इस यात्रा पर जाने से पहले,16 अक्टूबर को, रिबेनट्रोप ने अपने कार्यालय में नेताजी को विदा कही। यह भी कहा कि उनकी सुरक्षा की दृष्टि से उनके लिए विमान के बदले पनडुब्बी की व्यवस्था की जा रही है। 8 फ़रवरी 1943 के दिन वे जर्मनी के कील बंदरगाह में खड़ी U-180 नाम की एक जर्मन पनडुब्बी में बैठे। 28 अप्रैल 1943 की सुबह मेडागास्कर के पास जापानी पनडुब्बी U-29 उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। नेताजी ने पनडुब्बी ही नहीं बदली, पाला भी बदल दिया।
 
हिटलर और नेताजी बोस के बीच संवाद का मूल अविकल संलेख (प्रोटोकोल/मिनट)  या तो उसके कार्यालय पर हुए हवाई हमले में नष्ट हो गया या फिर हिटलर ने उसे तब नष्ट करवा दिया, जब 16 जनवरी 1945 से वह अपने राइश-चांसलर कार्यालय के लॉन में बने तीन मीटर मोटी दीवारों वाले भूमिगत बंकर में रहने लगा था। मूल संलेख के ऐसे हिस्सों की नकलें कुछ मंत्रालयों तथा इटली और जापान के बर्लिन में दूतावासों को भेजी गईं, जिनका उन से संबंध हो सकता था। इसलिए कुछ बातें पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पातीं। (फोटो : वेबदुनिया संदर्भ) 
Edited by: Vrijendra Singh Jhala

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