अंतरिक्ष से उतरेगी बिजली और रोशन होगी धरती!

बात विज्ञान की गल्पकथा (साइंस फिक्शन) जैसी लगती है। लेकिन, जल्द ही सूर्य की धूप से अंतरिक्ष में बनी बिजली, सीधे वहीं से पृथ्वी पर पहुंचाने का पहला प्रयास होने जा रहा है। 
 
पृथ्वी से 400 किलोमीटर की ऊंचाई पर रहकर दो दशकों से उसकी अविराम परिक्रमा कर रहा अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) हो या अंतरिक्ष में स्थापित चंद्रा, हबल अथवा जेम्स वेब जैसा कोई टेलिस्कोप हो, इन सब को अपने काम के लिए बिजली चाहिए। सभी ऐसे सौर फलकों (सोलर पैनलों) से लैस होते हैं, जो सूर्य की धूप से उनके लिए आवश्यक बिजली बनाते हैं। अब तक यह बिजली अंतरिक्ष में स्थापित इन चीज़ों के ही काम आ रही थी। किंतु अब उसे बिना किसी केबल या तार के अंतरिक्ष से सीधे पृथ्वी पर भेजने के उपक्रम होने जा रहे हैं।
 
अमेरिका में 'कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी' की सौर ऊर्जा टीम का अपने एक वक्तव्य में कहना है कि शोधकर्ताओं ने, अत्यंत पतले (अल्ट्रा-थिन) और बहुत ही उच्चकोटि के ऐसे फ़ोटोवोल्टाइक मॉड्यूल विकसित किए हैं, जिन्हें अंतरिक्ष में उपयोग के लिए विशेष रूप से अनुकूलित किया गया है। हर मॉड्यूल हल्के गैलियम-आर्सेनाइड फोटोवोल्टाइक सेलों की ऐसी 'टाइल्स' (वर्गाकार चपटी पट्टियों) के रूप में है, जो सूक्ष्म एलेक्ट्रॉनिक अवयवों और माक्रोवेव ट्रांसमिटर से लैस, अपने आाप में एक लघु सौर बिजली इकाई के समान है।
 
अत्यंत पतले, हल्के मॉड्यूल : 10x10 सेंटीमीटर बड़ी और बहुत ही पतली-चपटी ये टाइलें 3 ग्राम से भी कम भारी हैं। इन टाइलों को 2 मीटर चौड़े और 60 मीटर तक लंबे पैनल के आकार में व्यवस्थित करते हुए, उदाहरण के लिए 60 वर्ग मीटर जितने बड़े 'मॉड्यूल' का रूप दिया जा सकता है।

उन्हें फोल्ड होने वाले ऐसे बहुत ही हल्के ढांचों पर फिट किया जाएगा, जो अंतिरक्ष में पहुंचने के बाद अपने आप खुल जाएंगे। इस तरह, ऐसे सैकड़ों-हज़ारों मॉड्यूलों को संयोजित करते हुए, बाद में समय के साथ, उन्हें 3-3 किलोमीटर तक लंबे-चौड़े षट्भुजाकार (हेक्सागॉनल) वितान जैसा आकार देने का विचार है। ढांचे की सामग्री का प्रति वर्गमीटर भार केवल 150 ग्राम है।
 
कहा यह भी जा रहा है कि सभी मॉड्यूलों को किसी तार या केबल से आपस में जोड़ने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि हर मॉड्यूल अपने आप में एक पूर्ण इकाई होगा। तार या केबल की कोई ज़रूरत नहीं होने से इन चीज़ों को अंतिरक्ष में ले जाने, उनका भार ढोने और जुड़ाई करने से मुक्ति मिल जाएगी। पैसा भी बचेगा। इस परियोजना पर अब तक 11 करोड़ 75 लाख डॉलर ख़र्च हो चुके हैं।
 
परिक्रमा कक्षा भी महत्वपूर्ण है : अभी यह तय नहीं है कि अमेरिकी इंजीनियर और वैज्ञानिक दिसंबर में जो फ़ोटोवोल्टाइक बिजलीघर परीक्षण के तौर पर अंतिरिक्ष में बनाना शुरू करने जा रहे हैं, उसे पृथ्वी से 35,786 किलोमीटर दूर की तथाकथित भूस्थिर परिक्रमा कक्षा में स्थापित किया जाए या उससे नीचे की किसी कक्षा में रखा जाए। कोई निचली कक्षा लागत की दृष्टि से सस्ती पड़ेगी, पर बिजली का उत्पदन, कम ऊंचाई के अनुसार कुछ कम हो जाएगा। 
 
कम ऊंचाई वाली कक्षा होने पर अंतरिक्ष से आ रही बिजली को ज़मीन पर ग्रहण करने के लिए ज़रूरी एन्टेना-स्टेशनों की संख्या, घटती ऊंचाई के अनुपात में, बढ़ानी पड़ेगी। भूस्थिर कक्षा में होने पर चौबीसों घंटे बिजली बन सकती है और ज़मीन पर एक ही रिसीविंग स्टेशन काफ़ी होगा। दोनों स्थितियों में, उपभोक्ताओं के लिए बिजली की प्रतिकिलोवाट-घंटे की दर एक से दो अमेरिकी डॉलर के बीच पड़ेगी। इस समय अमेरिका में यह दर मात्र 17 सेंट के आस-पास है।
अंतरिक्ष में धूल-धक्कड़ और बादल आदि नहीं होते। वहां धूप भी ज़मीन पर की धूप की अपेक्षा कहीं अधिक प्रखर होती है। 10x10 सेंटीमीटर वाले नए मॉड्यूल अंतरिक्ष में उपलब्ध सूर्य प्रकाश को, पृथ्वी पर उपयोग के लिए इस समय प्रचलित फोटोवोल्टाइक मॉड्यूलों की तुलना में, 8 गुना अधिक बिजली में बदल सकते हैं।
 
चौबीसों घंटे अविराम बिजली : ऐसा इसलिए भी संभव है कि पृथ्वी से 35,786 किलोमीटर दूर की तथाकथित भूस्थिर परिक्रमा कक्षा में स्थापित संचार उपग्रहों की तरह, फोटोवोल्टाइक मॉड्यूल वाले किसी संयंत्र को भी यदि भूस्थिर कक्षा में स्थापित किया जाए, तो इस ऊंचाई पर उसे सदा प्रखर धूप मिलेगी। वहां रात कभी होती ही नहीं। चौबीसों घंटे अविराम बिजली बनती रह सकती है। अंतरिक्ष में फ़ोटोवाल्टाइक बिजलीघर बनाने का यही सबसे बड़ा लाभ है। 
 
इस बिजली को पृथ्वी पर प्रेषित करने की दिशा में भी इस बीच भारी प्रगति हुई है। इसे 'माइक्रोवेव बीम' (तरंगपुंज) के रूप में, वायरलेस तरीके से पृथ्वी पर ठीक वहां प्रेषित किया जा सकता है, जहां ज़रूरत हो या जहां बिजली आपूर्ति की पहले कोई व्यवस्था नहीं थी। अमेरिकी तकनीशियनों ने ऐसे अत्यंत छोटे, हल्के और सस्ते कनवर्टर विकसित किए हैं, जो फ़ोटोवाल्टाइक पैनलों की DC (डायरेक्ट करेंट) बिजली को, अंतरिक्ष में ही, उच्च-आवृत्ति वाली (हाई फ्रीक्वेंसी) रेडियो तरंगों जैसी माइक्रोवेव में परिवर्तित करेंगे। मोबाइल फ़ोन तकनीक में भी ऐसा ही होता है।
 
बिजली आएगी माइक्रोवेव-बीम के रूप में : माइक्रोवेव को, तथाकथित 'फ़ेज़ मैनिप्युलेशन' विधि द्वारा, लेजर प्रकाश की बीम की तरह, एक गठी हुई अदृश्य बीम के रूप में पृथ्वी की ओर भेजा जाएगा। पृथ्वी पर एक ऐसा माइक्रोवेव एन्टेना स्टेशन या बिजलीघर होगा, जो इस बीम को ग्रहण करेगा और उसे पुनः बिजली में परिवर्तित करेगा। अमेरिकी शोधकर्ता इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि माइक्रोवेव विकिरण, धधकते सूरज की तुलना में, काफी कम हानिकारक है।
 
'कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी' का कहना है कि अंतरिक्ष में फ़ोटोवोल्टाइक बिजलीघर स्थापित करने की इस परियोजना के प्रोटोटाइप, यानी प्रथम प्रारूप को, एक प्रयोग के तौर पर, दिसंबर 2022 में अंतरिक्ष में भेजा जाएगा। इसके साथ ही अमेरिका ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश बन जाएगा। 
 
चीन, जापान, ब्रिटेन और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ESA में भी इस दिशा में तैयारियां हो रही हैं। भारत में भी इसरो के वैज्ञानिक इसमें दिलचस्पी लेते बताए गए हैं, पर अभी तक कुछ सुनने में नहीं आया है। चीन ने इसी साल कहा कि वह 2030 के बदले 2028 तक अंतरिक्ष में अपने पहले फ़ोटोवाल्टाइक बिजली संयंत्र का निर्माण शुरू कर देगा। 
Edited by: Vrijendra Singh Jhala

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