भारत के ओडिशा राज्य के पुरी नगर में हर साल आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा निकाली जाती है। भगवान रथ पर सवार होकर अपनी मौसी रानी रानी गुंडिजा के मंदिर में जाते हैं और वहां पर 7 दिनों तक रहने के बाद लौट आते हैं। रथ यात्रा से एक दिन पहले श्रद्धालुओं के द्वारा गुंडीचा मंदिर को शुद्ध जल से धोकर साफ किया जाता है। इस परंपरा को गुंडीचा मार्जन कहा जाता है। यह गुंडीचा कौन थीं और क्या है पुरी शहर का नगर।
गुंडिचा कौन थीं?
सतयुग में मालवा प्रदेश के चक्रवर्ती सम्राट इंद्रद्युम्न ने ही पुरी में जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कराया था। उन्होंने ही भगवान जगन्नाथ की मूर्ति की स्थापना भी कराई थी। गुंडीचा इन राजा की पत्नी थीं। जिन्हें जगन्नाथ की मां भी कहा जाता है। जबकि मौसी का नाम अर्धशोषिणी था। सुभद्रा ने अपने अंश से अर्धशोषिणी देवी को जन्म दिया जो प्रलय में डूब गई धरती को बाहर निकालने के लिए आधा पानी खुद पी जाती है। जगन्नाथ पुरी में रोहिणी कुंड नामक स्थान पर यह देवी विराजमान हैं।
इंद्रद्युम्न विष्णुजी के परम भक्त थे। वे उनके दर्शन करना चाहते थे। उनके मंत्री ने बताया कि पुरी में एक पहाड़ की गुफा में विष्णुजी नीलमाधव रूप में निवास करते हैं। सबर जाति के लोग उनकी पूजा करते हैं। राजा वहां गए और उन्होंने सबर के आदिवासी लोगों को उस जगह ले जाने का कहा। मजबूरन सबर जाति के लोग उन्हें नीलमाधव की गुफा में ले गए लेकिन वहां पहुंकर सम्राट के सामने ही नीलमाधव की चमत्कारी मूर्ति जिसमें से प्रकाश निकलता था अचानक ही प्रत्यक्ष ही गायब हो गए। यह देखकर सभी दंग रह गए और विष्णु भक्त सम्राट रो पड़े और कहा कि अब से में अन्न जल छोड़ता हूं और अब मुझे नहीं जीना है। तब आकाशवाणी हुई कि हे राजा! यदि तू मेरी भक्ति और सेवा करना चाहता है तो तुझे यहीं रहकर यह कार्य करना होगा। समुद्र में तैरती हुई एक दारु नामक लकड़ी आएगी उससे मेरी मूर्ति बनाकर यहां स्थापित करना।
राजा यह सुनक खुश हो गया। राजा ने पुरी में एक भव्य मंदिर बनाने का आदेश दिया और अपने सेवकों को समुद्र के पास तैनात कर दिया कि यहां जब वह तैरता हुआ लकड़ी का लट्ठा आए तो बताना। मंदिर तैयार हो गया था अब बस मूर्ति की स्थापना करना थी। जा के सेवकों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए। तब राजा को समझ आ गया कि नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्ववसु की ही सहायता लेना पड़ेगी। सब उस वक्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।
अब बारी थी लकड़ी से भगवान की मूर्ति गढ़ने की। राजा के कारीगरों ने लाख कोशिश कर ली लेकिन कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब तीनों लोक के कुशल कारीगर भगवान विश्वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए। उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे। कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई। लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं। राजा इंद्रदयुम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पाई। वह दरवाजे के पास गई तो उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। वह घबरा गई। उसे लगा बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने राजा को इसकी सूचना दी।
अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया। जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें 3 अधूरी मूर्तियां मिली पड़ी मिलीं। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे।
राजा कहा कि अब मंदिर में इनको कौन प्रतिष्ठित करेगा? प्राण प्रतिष्ठा कौन करेंगे। यह जानकर नारद जी आए और उन्होंने कहा कि जो सभी को प्रतिष्ठित करते हैं उन्हें भला साधारण मानव कैसे प्रतिष्ठित करें। तब नारद ने कहा कि इन्हें ब्रह्माजी ही प्रतिष्ठित करेंगे। राजा ने कहा कि फिर आप मुझे ब्रह्मा जी के पास ले चलो। राजा इंद्रद्युम्न तो नारद के सात ब्रह्मलोक चले गए।
इधर रानी गुंडिचा ने भगवन जगन्नाथ से कहा कि मेरे स्वामी तो जा रहे हैं। पता नहीं कब तक आएं। इसलिए आप मुझ पर एक कृपा करो कि आप हर बार मुझसे मिलने वहां आओगे जहां में तप कर रही होऊंगी। रानी महल छोड़कर तप करने के लिए एक गुफा में संकल्प लेकर बैठ गई।
राजा इंद्रद्युम्न जब ब्रह्मलोक में ब्रह्मा से मिले तो ब्रह्मा ने कहा कि मैं प्राण प्रतिष्ठा करने के लिए तैयार हूं परंतु अभी जब तुम यहां आए हो तो धरती पर सतयुग और त्रैतायुग बीत गया है और इस समय द्वार का अंतिम समय भी चला गया है। कई अवतार हो चुके हैं। आपने जो मंदिर बनाया था वह संपूर्ण मंदिर और स्थान समुद्री रेत में डूब गया है।
बाद में राजा इंद्रद्युम्न और ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं के साथ पुरी के समुद्री तट से रेत हटाकर मंदिर को उजागर किया और वहां मंदिर में भगवान जगन्नाथ की मूर्ति स्थापित करके उनकी प्राण प्रतिष्ठा की।
पुरी नगर का रहस्य :
हिन्दू धर्म के चार धामों में से एक ओड़ीसा के पुरी नगर की गणना सप्तपुरियों में भी की जाती है।
इस पवित्र तीर्थ क्षेत्र को पुराणों में पुरुषोत्तम क्षेत्र कहा गया है।
नीलमाधव को पुरुषोत्तम की कहा गया है। जगन्नाथ नाम तो बहुत बाद में रखा गया।
पुरुषोत्तम भगवान सर्वप्रथम भगवान यहां पर नीलमाधव के रूप में प्रकट हुए थे।
यह स्थान भगवान विष्णु का प्राचीन स्थान है जिसे वैकुंठ भी कहा जाता है।
पुरी को मोक्ष देने वाला स्थान कहा गया है। इसे श्रीक्षेत्र, श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरि और श्री जगन्नाथ पुरी भी कहते हैं।
पुराण के अनुसार नीलगिरि में पुरुषोत्तम हरि की पूजा की जाती है।
रामायण के उत्तरकाण्ड के अनुसार भगवान राम ने रावण के भाई विभीषण को अपने इक्ष्वाकु वंश के कुल देवता भगवान जगन्नाथ की आराधना करने को कहा था। आज भी पुरी के श्री मंदिर में विभीषण वंदापना की परंपरा कायम है।
माना जाता है कि भगवान विष्णु जब चारों धामों पर बसे और जब अपने धामों की यात्रा पर जाते हैं तो हिमालय की ऊंची चोटियों पर बने अपने धाम बद्रीनाथ में स्नान करते हैं। पश्चिम में गुजरात के द्वारिका में वस्त्र पहनते हैं। पुरी में भोजन करते हैं और दक्षिण में रामेश्वरम में विश्राम करते हैं।
यहां लक्ष्मीपति विष्णु ने तरह-तरह की लीलाएं की थीं। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार यहां भगवान विष्णु 'पुरुषोत्तम नीलमाधव' के रूप में अवतरित हुए और सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए।
सबसे प्राचीन मत्स्य पुराण में लिखा है कि पुरुषोत्तम क्षेत्र की देवी विमला है और यहां उनकी पूजा होती है।
इस मंदिर का सबसे पहला प्रमाण महाभारत के वनपर्व में मिलता है। कहा जाता है कि सबसे पहले सबर आदिवासी विश्ववसु ने नीलमाधव के रूप में इनकी पूजा की थी। आज भी पुरी के मंदिरों में कई सेवक हैं जिन्हें दैतापति के नाम से जाना जाता है।