॥ श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी ॥

- प्रो. आर.के .जै

विक्रम सं. 1883 पौष शुक्ल 7 गुरुवार तदनुसार 3 दिसंबर 1827 के दिन भरतपुर में श्री ऋषभदासजी की धर्मपत्नी श्रीमती केसरबाई की कोख से जन-जन के गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी का जन्म हुआ था। उनके बचपन का नाम 'रत्नराज' रखा गया था। वे इतने प्रतिभा संपन्न थे कि 10-12 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने सभी शिक्षाएँ प्राप्त कर ली थीं। उनकी मनोवृत्ति निरंतर वैराग्य की ओर ही आकर्षित रहा करती थी।

बारह वर्ष की अवस्था में पिता की आज्ञा लेकर बड़े भाई माणिकचंदजी के साथ उन्होंने श्री कैसरियाजी तीर्थ की यात्रा की। रत्नराज कुछ दिन भाई के साथ व्यापार के निमित्त बंगाल, सिंहलद्वीप (श्रीलंका) तथा कलकत्ता भी रहे। बाद में पुनः भरतपुर आ गए। माता-पिता के स्वर्गगमन से रत्नराज की परोपकारी चित्तवृत्ति निरंतर वैराग्य की ओर होती गई। वे उच्चतम आचार्यों एवं मुनिराजों के दर्शन करने के प्रति उत्साहित रहने लगे।

विक्रम संवत्‌ 1903 वैशाख शुक्ल 5 को शुभ नक्षत्र में श्री प्रमोद विजयजी के कहने से उनके बड़े भ्राता श्री हेम विजयजी के पास 'मति दीक्षा' स्वीकार की और संघ के समक्ष उनका नाम 'श्री रत्न विजयजी' रखा गया उनके अनेक गुणों और प्रतिभाशाली प्रभुत्व को देखकर श्री देवेन्द्रसूरीजी ने उन्हें उदयपुर में बड़ी दीक्षा और पन्यास पदवी प्रदान करवाई। सं. 1923 का चातुर्मास श्री धरणेन्द्रसूरीजी ने राजस्थान के धाणेराव नगर में किया।

उस समय पन्यास रत्न विजयजी आदि 50 यति साथ में थे। इसके बाद श्री रत्न विजयजी भादवा सुदी 2 के दिन श्री प्रमोदरुचिजी तथा धनविजयजी आदि कई योग्य यतियों को साथ लेकर आहोर आए। श्रीसंघ की सम्मति से पूर्व परंपरागत 'सूरी' मंत्र देकर रत्न विजयजी को महोत्सवपूर्वक सं. 1923 वैशाख शुक्ल 5 बुधवार के दिन श्री पूज्य पदवी प्रदान की गई।

ज्योतिषशास्त्र के पूर्ण ज्ञाता श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी की विद्वता संपूर्ण भारत में प्रख्यात थी। उनकी साधु क्रिया अत्यंत कठिन थी। वृद्धावस्था होने पर भी वे अपने उपकरण आदि भार अपने सुशिष्यों को नहीं देते थे। उनकी पैदल विहार शक्ति अद्भुत थी। युवा साधु भी उनके समक्ष पराजित होते से लगते थे। कठोर ठंड में भी वे खुले शरीर रहते हुए ध्यान तथा प्रतिक्रमण किया करते थे। साधु क्रिया से बचे हुए समय में शिष्यों को पढ़ाना, शास्त्र विचार करना, धार्मिक चर्चा करना, यही उनका प्रमुख कार्य था।

श्रीमद् गुरुदेव ने अपने जीवनकाल में 121 ग्रंथों की रचना की। उनका महत्वपूर्ण ग्रंथ 'अभिधान राजेन्द्र कोष' प्राकृत महाकोष है। इसमें श्लोक संख्या करीब साढ़े चार लाख है और 'अ' कारादि वर्णानुक्रम से 60 हजार प्राकृत शब्दों का संग्रह है।

श्रीमद् गुरुदेव म.सा. का अंतिम चातुर्मास बड़नगर में था। चातुर्मास पूर्ण होने पर गुरुदेव ने राजगढ़ (धार) की ओर विहार किया। इस समय उनको साधारण-सा श्वास रोग हुआ था, किंतु उसका प्रकोप धीरे-धीरे बढ़ने लगा। ठंड का समय था। रोग बढ़ने पर भी वे अपनी साधु क्रिया में शिथिल नहीं हुए। उन्होंने सभी साधुओं को निकट बुलाकर कहा कि हमारे इस विनाशी शरीर का अब भरोसा नहीं, इसलिए तुम लोग साधु क्रिया पालन में दृढ़ रहना। ऐसा न हो कि जो चारित्र रत्न तुम्हें मिला है, वह निष्फल हो जाए।

इस प्रकार अपने सभी शिष्यों को सुशिक्षा देकर उन्होंने समाधिपूर्वक अनशन व्रत को धारण कर लिया और सभी औषधि उपचार बंद कर दिया। विक्रम सं. 1963 पौष शुक्ल सप्तमी को उन्होंने शरीर का समाधियुक्त परित्याग किया तथा मोक्ष में विराजमान हुए। ऐसे विरले वैराग्यभावी संत का जन्म एवं निर्वाण दिवस एक ही तिथि को था।

आज श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, जहाँ उनका अंत्येष्टि संस्कार संपन्न हुआ, देश-विदेश का एक महत्वपूर्ण तीर्थ बन गया है। प्रत्येक वर्ष गुरु सप्तमी पर यहांएक लाख से अधिक धर्मालु दर्शन करने व चमत्कारिक आरती पर आते हैं। ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभ विजयजी म.सा. तथा ज्योतिष सम्राट मुनि श्री ऋषभचंद्र विजयजी की प्रेरणा से इस तीर्थ पर अनेक निर्माण कार्य चल रहे हैं।

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