कविता : लाड़ली बेटी

लाड़ली बेटी जब से स्कूल जाने है लगी।
हर खर्चे के कई ब्योरे मां को समझाने लगी।।

फूल-सी कोमल और ओस की नाजुक लड़ी।
रिश्तों की पगडंडियों पर रोज मुस्काने लगी।।

एक की शिक्षा ने कई कर दिए रोशन चिराग।
दो-दो कुलों की मर्यादा बखूबी निबाहने लगी।।

बोझ समझी जाती थी जो कल तलक सबके लिए।
घर की हर बाधा को हुनर से वही सुलझाने लगी।

आज तक वंचित रही थी घर में ही हक के लिए।
संस्कारों की धरोहर बेटों को बतलाने लगी।।

वो सयानी क्या हुई कि बाबुल के कंधे झुके।
उन्हीं कंधों पर गर्व के परचम लहराने लगी।।

पढ़-लिखकर रोजगार करती, हाथ पीले कर चली।
बेटी न बेटों से कम ये बात समझ में आने लगी।।

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