कविता : उसको तो जाना ही है...

आज जब वह तैयार हो रही थी
आज जब वह अपना बैग सजा रही थी


 

 
कुछ यादें लुढ़क रही थीं आंखों में।
बचपन की सारी शरारतें, तुतलाती बातें।
 
एकटक उससे नजर बचाकर देख रहा था
उसका लुभावना शरारती चेहरा
 
और रोक रहा था चश्मे के अंदर लरजते आंसुओं को
उसकी मां रसोई के धुएं में छुपा रही थी लुढ़कते जज्बातों को
 
दादी उसकी देख रही थी उसे निर्विकार भावों से।
दे रही थी सीख छुपाकर अपनी सिसकियां
 
दादाजी उसके चुप थे क्योंकि वो जानते थे
कि उसको तो जाना ही है
 
इन सबसे बेखबर बिट्टो बैग सजा रही थी 
उसे बाहर जाना था पढ़ने, ऊंचे आकाश में उड़ने।
 

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