वित्तीय वर्ष का बदलाव और देश की अर्थव्यवस्था

शनिवार, 7 जनवरी 2017 (14:36 IST)
देश की अर्थ व्यवस्था के लिए एक नया वित्तीय वर्ष शुरू करने पर बनी शंकर आचार्य समिति ने हाल में केंद्र को जो रिपोर्ट सौंपी है वह वित्तीय वर्ष बदलने को लेकर पुरानी आशंकाओं को वजन देती लगती है, लेकिन ऐसा लगता है कि क्विक फिक्स उपायों और एप्प जैसे टेक साल्यूशन में अंधी भक्ति रखने वाली मोदी सरकार को नए-नए प्रयोग करने और इनके परिणामों को लोगों की देशभक्ति से जोड़कर देखने का एक नया नजरिया मिल गया है। लेकिन हाल ही में विमुद्रीकरण के झटके से उबरने में नाकाम देश की अर्थव्यवस्था क्या इस नए प्रयोग को झेलने में समर्थ होगी जिसके तहत वित्तीय वर्ष को बदलने के अभियान को मोदी के चीयरलीडर्स जोर शोर से उठा रहे हैं? 
 
सबसे पहले तो समिति ने चेतावनी दी है कि ‘देश के वित्तीय वर्ष को अप्रैल-मार्च के बजाय किसी और समय में करने से कोई मकसद हल नहीं होगा। इससे बड़े पैमाने पर सिर्फ बाधाएं ही खड़ी होंगी, जिनसे बचा जा सकता है। इन बाधाओं से अगर नहीं बचा गया तो इसका खमियाजा देश के व्यापार और उद्योग को भुगतना होगा।’ एसोचैम (एसोसिएटेड चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज ऑफ इंडिया) की यह चेतावनी पिछले साल जुलाई में आई थी और तब केंद्र सरकार ने देश के पूर्व आर्थिक सलाहकार शंकर आचार्य के नेतृत्व में उच्च स्तरीय समिति बनाई थी, जिसे वित्तीय वर्ष बदलने की संभावनाओं पर गौर करने को कहा गया था।
 
वित्तीय जानकारों का मानना है कि ‘दुनिया में वित्तीय वर्ष के लिहाज से कोई स्थापित मापदंड नहीं है। विभिन्न देश अलग-अलग समय पर वित्त वर्ष शुरू करते हैं। ऐसे में यह भी नहीं माना जा सकता कि भारत में वित्तीय वर्ष बदलने से उसकी अर्थव्यवस्था वैश्विक अर्थ-तंत्र के साथ एकाकार हो जाएगी।’ आचार्य समिति ने पिछले महीने ही वित्त मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट दी है। इसके साथ नत्थी किए गए डिस्कशन नोट के पेज क्रमांक- 38, 39, 40 में उन तमाम प्रक्रियाओं का संक्षेप में जिक्र किया गया है, जिनसे वित्तीय वर्ष बदलने की सूरत में गुजरना होगा।
 
संविधान से लेकर कानून तक, हर जगह संशोधन : आचार्य समिति के डिस्कशन नोट के मुताबिक ऐसा कुछ करने से पहले हमें संविधान से लेकर विधान में संशोधन करना होगा। संविधान के अनुच्छेद- 112, 202 और 367 (1) में केंद्र और राज्यों के लिए वित्तीय वर्ष और बजट से संबंधित प्रावधानों का जिक्र है। अनुच्छेद-112 कहता है, ‘राष्ट्रपति हर वित्तीय वर्ष के लिए भारत सरकार के आय-व्यय का वार्षिक वित्तीय प्रतिवेदन (बजट) संसद के दोनों सदनों के सामने रखेंगे।’ इसी तरह अनुच्छेद-202 के मुताबिक, ‘राज्यपाल अपने राज्यों की सरकारों के आय-व्यय का वार्षिक वित्तीय प्रतिवेदन राज्य विधायिका के सदन/सदनों (विधानसभा और विधान परिषद के संदर्भ में) में रखेंगे।’ यानी दोनों अनुच्छेदों में वित्त वर्ष का जिक्र तो है, लेकिन वह कब से शुरू होगा इसका उल्लेख नहीं है, बस इसी तथ्य के चलते सरकारी पंडितों में तर्क-वितर्क और घमासान हो रहा है।
 
इस हिसाब से संविधान के इन हिस्सों में बदलाव की ज्यादा जरूरत शायद न पड़े, लेकिन अनुच्छेद-367 (1) में वित्तीय वर्ष से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या के लिए जनरल क्लॉज एक्ट-1897 का संदर्भ दिया गया है। इस कानून के खंड-3 के मुताबिक, ‘वित्तीय वर्ष की परिभाषा का अर्थ यह है कि वह साल जो अप्रैल के पहले दिन से शुरू होता हो।’ मतलब इस जगह पर सरकार को वित्तीय वर्ष बदलने की सूरत में अनिवार्य रूप से संविधान संशोधन करना होगा। वह भी तब जब केंद्र और राज्यों के बीच राजस्व-संसाधनों के बंटवारे आदि से संबंधित 14वें वित्त आयोग की सिफारिशें एक अप्रैल 2015 से पांच साल (2020 तक) के लिए लागू हो चुकी हैं। इन्हें किस तरह से समायोजित किया जाएगा?
 
वित्त आयोग ने अपनी रिपोर्ट में तमाम प्रावधान और सिफारिशें करते हुए वित्तीय वर्ष की शुरुआत एक अप्रैल से होने का जिक्र किया है जो कि अब तक स्थापित व्यवस्था भी है। ऐसे में केंद्र सरकार अगर 2020 से पहले वित्तीय वर्ष में किसी भी किस्म के बदलाव का फैसला करती है तो उसे वित्त आयोग से संबंधित इस बाधा को भी पार करना होगा। यही नहीं, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों से संबंधित तमाम कानूनों में केंद्र और राज्यों को संशोधन करना होगा। गवर्नमेंट अकाउंटिंग रूल्स-1990, जनरल फायनेंशियल रूल्स-2005 और कंपनीज एक्ट-2013 आदि में भी संशोधन करना होगा। इन सभी में वित्तीय वर्ष की शुरूआत एक अप्रैल से होने का जिक्र है। ऐसे में यह बदलाव क्या युक्तिसंगत होगा? 
 
विशेषज्ञों का कार्य बल जो बदलाव का खाका बनाएगा : आचार्य समिति ने यह भी बताया है कि वित्तीय वर्ष में बदलाव के लिए विशेषज्ञों का एक कार्य बल (टास्क फोर्स) गठित करना होगा। यह कार्य बल इस संबंध में खाका तैयार करेगा। जरूरी दिशा-निर्देश (गाइड लाइंस) तय करेगा। कार्य बल में राजकोषीय व्यय, सांख्यिकी, राजस्व तथा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों के जानकार अफसर आदि शामिल किए जा सकते हैं। इसके अलावा विशेषज्ञ संस्थानों जैसे कि आईसीएआई (इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया), सरकारी शोध संस्थानों, थिंक टैंक आदि के पेशेवर विशेषज्ञों की भी मदद लेनी होगी। ये विशेषज्ञ सरकार द्वारा गठित कार्य बल के साथ मिलकर काम करेंगे। यह समय, पैसों और बहुत सारी उर्जा को खपाने वाला काम सिद्ध होगा।
 
इस प्रक्रिया में सालों का वक्त भी लग सकता है : समिति के मुताबिक, वित्तीय वर्ष बदलने से पहले सरकार को अवस्था परिवर्तन वाले वित्तीय वर्ष (ट्रांजिशनल फाइनेंशियल इयर) की परिभाषा और अवधि तय करनी होगी। उदाहरण के लिए वित्तीय वर्ष बदले जाने की तारीख अगर जनवरी 2018 तय की जाती है तो अप्रैल से दिसंबर 2017 तक पूरा कालखंड ट्रांजिशनल फायनेंशियल इयर माना जा सकता है। हालांकि यह समिति का सुझाव ही है क्योंकि उसने खुद कहा है कि अवस्था परिवर्तन की अवधि सरकार को ही परिभाषित करनी है। यानी वह बदलाव की अपनी प्रक्रिया में लगने वाले समय की सुविधा के हिसाब से यह अवधि तय कर सकती है और इस अवधि को कम या ज्यादा भी कर सकती है।
 
इस संबंध में आचार्य समिति ने अमेरिका का उदाहरण भी दिया है। उसने बताया है 1974 में अमेरिकी संसद ने एक कानून पारित किया था, जिसका नाम था- ‘द कांग्रेसनल बजट एंड इम्पाउंडमेंट कंट्रोल एक्ट-1974’। इसमें प्रावधान किया गया था कि अमेरिकी वित्तीय वर्ष अब जुलाई से जून की बजाय अक्टूबर से सितंबर के बीच होगा। बदलाव दो साल बाद यानी 1976 से होना था लिहाजा वहां की संसद ने एक जुलाई से 30 सितंबर 1976 के बीच की अवधि को ट्रांजिशनल फायनेंशियल इयर माना था। समिति ने इसके साथ यह भी माना है कि इस तरह की प्रक्रिया के दौरान एक पूरा दौर देश के लिए तकलीफ और उथल-पुथल वाला भी गुजरता ही है। लेकिन हमारी सरकार का मानना है कि किसी भी तकलीफ, उथल पुथल और लोगों की परेशानी का रामबाण उपाय 'एप्प' है जिससे सारी समस्याएं दूर हो जाती हैं।
 
पहले भी इसी तरह की सिफारिशें ठंडे बस्ते में डाल दी गई थीं, क्योंकि.... : शायद यही वजह है कि इससे पूर्व देश में विभिन्न आयोगों-समितियों ने वित्तीय वर्ष बदलने की जितनी भी अनुशंसाएं कीं, उन्हें सरकारों ने ठंडे बस्ते में डालना बेहतर समझा। इस मुद्दे पर 31 दिसंबर को एक वेबसाइट पर प्रकाशित खबर में बताया जा चुका है कि 1985 में एलके झा कमेटी की ऐसी ही सिफारिश तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने खारिज कर दी थी। लेकिन वह कोई इकलौती अनुशंसा नहीं थी। आचार्य समिति के ही मुताबिक, ‘ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन में 1860 से 1866 तक भारत का वित्तीय वर्ष एक मई से 30 अप्रैल के बीच रखा गया था, लेकिन बाद में इसे ब्रिटेन के वित्त वर्ष के साथ मिलाने के लिए 1867 से अप्रैल-मार्च के बीच कर दिया गया।’
 
समिति के अनुसार, ‘अंग्रेजों ने इस बदलाव से पहले इंग्लैंड के दो अधिकारियों- फॉस्टर और विफिन की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी। उन्होंने भी सुझाया था कि भारतीय वित्तीय वर्ष यहां के मौसम-मॉनसून आदि के आधार पर एक जनवरी से शुरू करना बेहतर होगा। लेकिन इस सुझाव को नहीं माना गया क्योंकि ब्रिटेन में वित्तीय वर्ष एक अप्रैल से शुरू होता था। ब्रिटिश शासन ने 1897 में जनरल क्लॉज एक्ट पारित कर इस व्यवस्था के स्थायित्व का बंदोबस्त भी कर दिया।’ हालांकि इसके बाद भी बदलाव के सुझाव आते रहे। उदाहरण के लिए, 1900 में वेल्बी आयोग ने इस पर विचार किया और फिर 1908 में दरभंगा के महाराज के सुझावों के आधार पर भारत सरकार ने भी विचार किया।
 
कुछ समय बाद ही 1913 में बने रॉयल कमीशन ऑन इंडियन फायनेंस एंड करेंसी (चैम्बरलेन आयोग) ने भी इस मुद्दे की पड़ताल की। उसने भी 1914 में पेश की गई अपनी रिपोर्ट में कहा कि  भारतीय वित्तीय वर्ष एक नवंबर से शुरू होना चाहिए या फिर एक जनवरी से। फिर 1921 में पहले विश्व युद्ध के बाद सर दिनशॉ वाचा के सुझावों के आधार पर तो भारत सरकार ने भारतीय वित्त वर्ष जनवरी से शुरू करने को तैयार ही हो गई थी। लेकिन कभी प्रांतीय सरकारों के विरोध की वजह से तो कभी किन्हीं और कारणों से सरकार इस मसले पर पीछे हटती रही।
 
आजादी के बाद पश्चिम बंगाल के कल्याणी में हुए कांग्रेस के अधिवेशन के दौरान भी एक निजी संकल्प पारित किया गया। इसमें सरकार से मांग की गई कि भारतीय वित्त वर्ष बदलकर एक जुलाई से कर दिया जाए, लेकिन पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने यह मांग खारिज कर दी। फिर 1956 में राष्ट्रीय विकास परिषद (एनडीसी) की बैठक में यह मसला उठा, मगर सर्वसम्मति नहीं बन पाई। फिर 1958 में दूसरी लोकसभा की आकलन समित (एस्टिमेट कमेटी) की 20वीं रिपोर्ट में सुझाया गया कि देश का वित्तीय वर्ष एक अक्टूबर से शुरू किया जाना चाहिए लेकिन सरकार को लगा कि यह वक्त इस तरह के बदलाव के लिए ठीक नहीं है।
 
फिर 1966 में प्रशासनिक सुधार आयोग (एआरसी) के अध्ययन दल ने देश के वित्तीय प्रबंधन के बारे में अपनी रिपोर्ट दी। इसमें कहा कि एक अप्रैल से वित्तीय वर्ष शुरू होने वाली व्यवस्था बदलने पर विचार किया जा सकता है। इसके विकल्प के तौर पर एक अक्टूबर से वित्त वर्ष शुरू करना ज्यादा उपयुक्त होगा। हालांकि जनवरी 1968 में वित्त, लेखा एवं परीक्षण पर चौथी रिपोर्ट जब सरकार को दी गई तो आयोग के अध्यक्ष के हनुमंथैया ने वित्त वर्ष संबंधी सिफारिश में बदलाव कर उसे एक नवंबर कर दिया। उन्होंने तर्क दिया, ‘भारतीय वित्तीय वर्ष अगर दिवाली के आसपास शुरू होता है कि यह देश की संस्कृति और परंपरा के अनुरूप होगा।’
 
केंद्र सरकार ने एआरसी की सिफारिशों को एनडीसी की बैठक में विचार के लिए रखा लेकिन तमाम पहलुओं पर विचार के बाद एनडीसी ने यह सिफारिश मंजूर नहीं की। एनडीसी की बैठक में 1981 में भी यह मसला विचार के लिए आया। इसके बाद 1983 में केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी (मौजूदा राष्ट्रपति) ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से इस संबंध में सुझाव मांगे कि क्या देश का वित्त वर्ष बदला जाना चाहिए। उस वक्त करीब-करीब सभी मुख्यमंत्रियों ने इस पर अपनी सहमति जताई, लेकिन तारीख को लेकर इनमें एकराय नहीं थी लेकिन ज्यादातर मुख्यमंत्री चाहते थे कि मॉनसून के बाद ही बजट पेश किया जाना चाहिए।
 
केंद्र सरकार ने इस कवायद के बाद ही रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर एलके झा की अध्यक्षता में समिति बनाई थी, जिसने वित्त वर्ष एक जनवरी से शुरू करने का सुझाव दिया था। इंदिरा गांधी के निधन के बाद झा समिति की रिपोर्ट पर राजीव गांधी की सरकार ने विचार किया और कहा कि इस बदलाव में ‘फायदे कम और परेशानियां’ ज्यादा हैं। लेकिन अब जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार इस पर गंभीरता से विचार कर रही है तो क्या उसे ‘परेशानियां कम और फायदे ज्यादा’ वाली स्थिति महसूस हो रही है। सरकार को बदलाव का फैसला करने से पहले इस पर भी सोचना होगा, खासकर अर्थव्यवस्था के लिहाज से, जो नोटबंदी जैसे फैसले के कारण पहले ही हिली हुई है और ऐसे में देश की अर्थव्यवस्था के साथ किए जाने वाले 'सर्जिकल स्ट्राइक नुमा' प्रयोग अत्यधिक अनर्थकारी साबित हो सकते हैं। (स्क्रॉल डॉट इन में प्रकाशित लेख के आधार पर)
 

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