यों तो ये सारी बिसात क्रिकेट की पिच के इर्द-गिर्द बिछाई गई थी लेकिन इस पर रखे गए तमाम मोहरे राजनीति की शह और मात का ही खेल खेल रहे थे। वोटों के गणित में जीत-हार के बाद क्रिकेट का कितना भला होगा ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन इस लड़ाई में क्रिकेट के उस वज़ीर को प्यादों के हाथों मजबूर होकर बाहर होना पड़ा जिसका वास्ता क्रिकेट की बारीकियों से था, राजनीति के दाँव-पेंच से नहीं।
निश्चित ही संजय जगदाले के रूप में क्रिकेट को समर्पित एक ऐसी शख़्सियत इंदौर के पास है जिसकी प्रतिभा का सम्मान राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट जगत में है। चुनावी गणित के चलते उनका एक महत्वपूर्ण पद से हट जाना, इस पूरे घटनाक्रम का सबसे त्रासद पहलू है।
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जहाँ तक प्रदेश के उद्योग मंत्री और महू से विधायक कैलाश विजयवर्गीय की हार का सवाल है, तो ये दीवार पर साफ-साफ लिखी इबारत को ना पढ़ पाने का नतीजा है।
वो कहते हैं ना कि 'जाको प्रभु दारुण दुःख देहि, ताकि मति पहले हर लेहि....' लगातार आरोपों और मुसीबतों से घिरे कैलाश इस जीत में संजीवनी देख रहे थे और वो ही उन्हें नहीं मिली। वे ओलिम्पिक संघ और आईडीसीए में मिली जीत को दोहराना चाहते थे....
लेकिन ज़िन्दगी में कहीं ना कहीं तो रिवर्स गियर लगाना ही पड़ता है। अपनी अब तक की यात्रा में उन्होंने मील के जिन पत्थरों को अनदेखा किया था वे सारे स्पीड ब्रेकर बनकर उनके सामने खड़े हो गए। अहं की इमारत फूस की बनी होती है, चाहे कितनी ही बुलंद दिखे, एक चिंगारी ही उसे धू- धू कर जला देती है। इस पूरी बिसात पर शह का प्यादा भी कैलाश विजयवर्गीय ने ही आगे बढ़ाया था और मात भी उन्हीं की हुई।
साथ ही उन्होंने इधर-उधर बिखरी पड़ी कांग्रेस को भी एकजुट कर दिया। इस चुनाव के बहाने ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों की इंदौर में उपस्थिति और मजबूत हुई है। यह अच्छा ही हुआ कि ज्योतिरादित्य ने इस चुनाव को हल्के में नहीं लिया। इससे उन्हें लोगों से जीवंत संपर्क बढ़ाने और काले चश्मे के परे देखने का भी मौका मिला।
ये लोकतंत्र की ही ताकत है जो गाँव के किसान को देवेगौड़ा के रूप में प्रधानमंत्री बना देती है और सारे वोटों को अपनी मुट्ठी में मानने वालों को भी घर बिठा देती है। इस चुनाव का एक निष्कर्ष यह भी है कि हमें देश के सभी नागरिकों को शिक्षित और जागरूक करना कितना जरूरी है।