क्या विराट कोहली क्रिकेट के भगवान हो गए हैं?

सीमान्त सुवीर
 
बेशक विराट कोहली एक आक्रामक खिलाड़ी हैं और अपने प्रदर्शन के बूते वे आईसीसी क्रिकेट की वन`डे रैंकिंग में नंबर एक की कुर्सी पर भी आसीन हैं लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वे क्रिकेट के भगवान हो गए हैं...विश्व क्रिकेट ने 'क्रिकेट का भगवान' सचिन तेंदुलकर को माना है। कोच कुंबले और कप्तान विराट के विवाद ने भारतीय क्रिकेट में 'कुनैन' जैसा कसैलापन  पैदा कर दिया है, जो भविष्य के लिए बहुत बुरा संकेत है। समझ पाना मुश्किल हो रहा है कि क्रिकेट में कोच बड़ा है या कप्तान? यदि सब कुछ कप्तान की मर्जी से ही चलेगा तो फिर कोच की टीम में क्या जरूरत है? 
 
बीसीसीआई पर सुप्रीम कोर्ट की चाबुक चले या फिर लोढ़ा समिति की सिफारिश, इसका ढर्रा कभी सुधरने वाला नहीं है। सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि कुंबले जैसे जेंटलमैन क्रिकेटर (अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में हजार से ज्यादा विकेट) के एक साल के कार्यकाल के दौरान ऐसी कौनसी परिस्थितियां निर्मित कर दी गईं कि उन्हें रुष्ट होकर कोच पद से इस्तीफा देना पड़ा? 
 
बीसीसीआई कुंबले को कहता है कि कप्तान विराट को आपकी कोचिंग स्टाइल पसंद नहीं है...आप ही क्यों पूरी  दुनिया की क्रिकेट बिरादरी कुंबले की स्टाइल पर शक कर सकती है? वे बहुत शांत स्वभाव के हैं, अनुशासन में खुद भी रहते हैं और टीम इंडिया को भी रखते हैं। कभी कोई शराब पार्टी में नहीं जाते और फुर्सत के लम्हों में वे अपने प्रिय फोटोग्राफी के शौक को पूरा करते रहते हैं। वे सोशल मीडिया पर भी संयमित रहते हैं और कोई भड़कीला बयान नहीं देते।
दुनियाभर के क्रिकेटरों के दिलों में कुंबले की एक साफ-सुथरी छवि है। यही नहीं, सुनील गावस्कर से लेकर सौरव  गांगुली तक कुंबले को मान देते आए हैं, जबकि इसके ठीक विपरीत विराट कोहली का स्वभाव है। टेस्ट क्रिकेट में एमएस धोनी से कप्तानी का भार लेने के बाद वे क्रिकेट के अन्य दो स्वरूपों (वन-डे, टी-20) में भी टीम इंडिया के मुखिया हो गए लेकिन इससे पहले अपने गुस्सैल स्वभाव के कारण वे मीडिया में कुख्यात रहे हैं। 
 
जैसे-जैसे जिम्मेदारियां बढ़ीं, विराट ने अपने गुस्से पर अंकुश लगाया लेकिन लगातार कामयाबियों ने उन्हें घमंडी बना दिया और यही वजह कुंबले से उनकी कलह का कारण बनी। ऐसा लगता है कि कामयाबी के घोड़े पर सवार (चैम्पियंस ट्रॉफी के फाइनल को भूल जाएं) भारतीय क्रिकेटरों की जेबें इतनी भर गई हैं कि वे खुद को खुदा समझने लगे हैं। सोशल मीडिया की आजादी ने हरेक क्रिकेटर को शहंशाह बना दिया है और वे अब किसी की परवाह नहीं करते।
 
भारतीय क्रिकेट में विदेशी कोच की शुरुआत 2000 से हुई और न्यूजीलैंड के जॉन राइट पहले विदेशी कोच बने। वे  2005 तक अपने पद पर रहे और इसके बाद कप्तान सौरव गांगुली की पसंद पर ही ग्रेग चैपल 2005 से 2007 तक टीम इंडिया के कोच रहे। चैपल का कार्यकाल विवादों से भरा रहा।   
 
क्रिकेट में दखल रखने वालों को याद होगा कि ग्रेग चैपल और सौरव गांगुली की आपस में कभी नहीं बनी, लेकिन  इसके बाद भी चैपल की सम्मानजनक विदाई हुई और दक्षिण अफ्रीका के पूर्व क्रिकेटर गैरी कर्स्टन को नया कोच बनाया और उनकी कोचिंग में भारतीय क्रिकेट टीम ने 28 साल बाद 2011 में आईसीसी वर्ल्ड कप जीता। आज टीम इंडिया जो कामया‍बियों का सेहरा अपने सिर बांध रही है, इसमें बहुत कुछ हाथ कर्स्टन का रहा है।
 
अतीत के पन्ने पलटे तो पाते हैं कि अजीत वाडेकर सबसे पहले भारतीय टीम के कोच (1992 से 1996 तक) बने और 20 जून 2016 को अनिल कुंबले 11वें कोच...इससे पहले किसी भी भारतीय की इतने कड़वे माहौल में रुखसती नहीं हुई जितनी कि कुंबले की हुई है। कुंबले के इस्तीफे के बाद भारतीय क्रिकेट दो खेमे में बंट गया है। सभी पूर्व क्रिकेटर कुंबले के साथ खड़े हैं और अपने अपने तरीके से बीसीसीआई को सलाह दे रहे हैं।
 
सुनील गावस्कर की टिप्पणी सबसे सटीक लगी कि यदि कप्तान को कोच पसंद नहीं है तो फिर उसकी क्या जरूरत है? मैदान में कप्तान को चार्ज होना चाहिए लेकिन फील्ड के बाहर तो उसे कोच और सपोर्टिंग स्टाफ से सलाह लेनी ही पड़ेगी। इसका सबसे अच्छा विकल्प यही है कि बीसीसीआई पहले के जमाने की तरह पूर्व क्रिकेटरों को टीम के साथ मैनेजर और असिस्टेंट मैनेजर बनाकर भेजे जो वक्त पड़ने पर उन्हें सही मशविरा दे सके। 
 
गावस्कर को इस बात पर हैरत है कि इतना बवाल मचने के बाद भी विराट कोहली चुप क्यों हैं? हमें उनका पक्ष  भी जानता होगा और यह भी पूछना होगा कि आखिर ऐसी स्थिति निर्मित ही क्यों हुई। कुंबले ने एक साल के कार्यकाल में भारतीय क्रिकेट को कहां से कहां पहुंचा दिया है, इस बात को भी भूलना नहीं होगा। 
देखा जाए तो कुंबले के इस्तीफे के बाद भारतीय क्रिकेट दो भागों में बंट गया है। सभी पूर्व क्रिकेटर (गावस्कर, राहुल द्रविड़, सौरव गांगुली) कुंबले के साथ खड़े हैं और चाहते हैं कि टीम में अनुशासन बना रहे। ऐसा लगता है कि विराट की टीम को आजादी चाहिए न कि सख्त अनुशासन। 
 
टीम इंडिया के साथ रहे विदेशी कोच खिलाड़ियों को खुली आजादी देते हैं, मसलन वे कहीं भी किसी के साथ घूमें,  नाइट पार्टी में जाएं और शराब पीकर भी झूम लें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन कुंबले जैसे कोच के रहते इन तमाम चीजों पर एक तरह से सख्त पाबंदी रही होगी। यही कारण है कि कप्तान विराट को कुंबले का यह 'स्टाइल' रास नहीं आया होगा। कई बार मैदान पर उन्होंने स्टार क्रिकेटरों को लताड़ लगाई। यही नहीं, वे विदेशी दौरों में क्रिकेटरों की गर्ल्फफ्रेंड को साथ ले जाने के तो खिलाफ थे ही साथ ही नहीं चाहते थे कि खिलाड़ियों की पत्नी भी साथ जाएं...
 
कुंबले अपने इसी सख्त अनुशासन के कारण टीम के 'खलनायक' बन गए जबकि विराट की सेना चाहती है कि उनका कोच फ्रेंड बनकर रहे न कि बॉस बनकर नसीहतें दे। सीनियर क्रिकेटर कोच बनता है तो उसे सम्मान तो देना पड़ता है और यदि दोस्त बन जाएगा तो एक ही टेबल पर जाम से जाम भी टकराए जाएंगे। आईपीएल के तमाशे और विज्ञापनों के जरिए क्रिकेटरों ने इतना धन कमा लिया है कि आने वाली सात पुश्तें भी बैठकर खाए...इसीलिए उन्हें किसी की‍ चिंता नहीं होती।  
 
आज जो हालात हैं, उससे भारतीय क्रिकेट का भला नहीं होने वाला है। विदेशी क्रिकेटर डीन जोंस ने भी मजाक उड़ाया कि बीसीसीआई में बड़ा कौन है कोच या कप्तान? अब अगले कोच के लिए कसरत शुरु हो गई है और अनुमान है कि ऑस्ट्रेलिया को दो बार विश्व विजेता बना चुके टॉम मुडी टीम इंडिया के अगले कोच की बाजी मार सकते हैं। 
 
यानी एक बार फिर विदेशी  कोच की नियुक्ति से खिलाड़ियों को आजादी का माहौल मिल सकता है..हां, इसका गम जरूर सालता रहेगा कि एक साल के भीतर जिस भले इंसान (कुंबले) के  कार्यकाल में भारत ने 13 में से 10 टेस्ट जीते (वेस्टइंडीज में  सीरीज भी) और 2 ड्रॉ खेले, एक गंवाया उनकी विदाई इतने कड़वे माहौल में हुई... 
 
और आखिर में...उस अनिल कुंबले की बात, जिसे मैंने खुद बहुत करीब से देखा है... 8 अक्टूबर 2016 से इंदौर में  'डेब्यू टेस्ट' भारत और न्यूजीलैंड के बीच  खेला गया, जिसे विराट एंड कंपनी ने चार दिन के  भीतर 321 रनों से जीता था। टेस्ट में पहले तीन दिन मैच खत्म होने के बाद टीम के कोच 46 साल के अनिल कुंबले अकेले ही मैदान का राउंड लगाते और व्यायाम करते जबकि कप्तान विराट को छोड़ पूरी टीम ड्रेसिंग रूम में आराम फरमाया करती थी। उनका ये वर्कआउट खुद को फिट रखने के लिए होता था, जबकि पूर्व कोचों को कभी ऐसे दौड़ते भागते नहीं देखा गया। 
 
यही नहीं, विराट कोहली में भी गजब का स्टेमिना देखा गया और वे भी मैच के बाद अकेले आधे-आधे घंटे तक बल्लेबाजी का अभ्यास किया करते हैं। इसमें दो राय नहीं कि बतौर खिलाड़ी विराट जैसा कोई दूसरा क्रिकेटर विश्व क्रिकेट में नहीं है, लेकिन भारतीय क्रिकेट के भविष्य के लिए उन्हें खुद को बदलना होगा और उन्हें यह मानना होगा कि क्रिकेट का भगवान तो सिर्फ एक ही है सचिन रमेश तेंदुलकर...जिसने इस मुकाम तक पहुंचने के लिए कड़ी मेहनत की, मैदान पर अपने बल्ले के जौहर दिखलाए और मैदान के बाहर सदा विनम्र बना रहा।
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