क्रिकेट बोर्ड की तानाशाही!

बुधवार, 21 नवंबर 2007 (17:50 IST)
बीसीसीआई (भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड) में उच्च पदों पर कुछ ऐसे लोग विराजमान हैं, जिनके विचार और कार्य प्रणाली से क्रिकेट बोर्ड समय-समय पर बदनाम होता रहा है।

जब किरण मोरे मु्‍ख्य चयनकर्ता हुआ करते थे तब भी बोर्ड अपने रवैये और टीम चयन से हैरान करता था। गांगुली और किरण मोरे की कहासुनी जगजाहिर है।

गांगुली जब टीम से बाहर थे तब मोरे ने तो यह तक कह दिया था कि गांगुली प्रथम श्रेणी क्रिकेट में चाहे कोई भी तीर मार लें, अब उन्हें राष्ट्रीय टीम में जगह नहीं मिल सकती और मोरे के रहते तो टीम में जगह मिली भी नहीं।

बाद में गांगुली की शानदार वापसी पर मोरे ने अपनी गलती मानीं और अपने रवैए पर अफसोस जाहिर किया। दरअसल उस वक्त मोरे के बयान पर बोर्ड को आपत्ति जतानी चाहिए थी।

वेंगसरकर के नेतृत्व में चयनकर्ता ठीक-ठाक काम कर रहे हैं। कम से कम वे किसी खिलाड़ी के बारे में पूर्वाग्रह से ग्रसित तो नहीं हैं। उनके चयन का पैमाना व्यापक है। ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी सिरीज के बाद क्रिकेट बोर्ड कोई विवाद पैदा न करे। पाकिस्तान के खिलाफ वनडे सिरीज के बाद बोर्ड ने दो तरह के विवादों को जन्म दिया।

पहला विवाद यह कि बोर्ड अधिकारी रत्नाकर शेट्‍टी ने शाहरुख को नाराज कर दिया और दूसरा यह कि बोर्ड ने चयनकर्ताओं पर सात तरह की रोक लगा दी। अखबारों में कॉलम लिखने पर रोक लगाने तक तो ठीक है, लेकिन टीम के साथ विदेशी दौरे पर नहीं जाने देने में क्या तुक है?

जब बोर्ड सचिव, उपाध्यक्ष और अध्यक्ष टीम के साथ विदेशी दौरे पर जा सकते हैं तो चयनकर्ता क्यों नहीं? हर बार की तरह इस बार भी बोर्ड के प्रस्ताव/फैसले में कोई तर्क नहीं है।

बीसीसीआई की नीति तर्को पर खरी नहीं उतरती, बोर्ड को अपनी सोच पूरी तरह प्रोफेशन बनानी होगी और अपने सभी अंदरूनी मामले आपसी तालमेल से ही सुलझाना होंगे। बोर्ड से न खिलाड़ी खुश हैं, न चयनकर्ता और न ही आम आदमी। नीतियों में सुधार की सख्त जरूरत है।

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