किस कीमत पर जुड़ेंगी नदियां

बुधवार, 30 जुलाई 2014 (14:43 IST)
DW
भारत में बाढ़ और सूखे की विकरालता और पीने के पानी की कमी से निपटने के लिए नदी जोड़ने की महापरियोजना वाजपेयी सरकार की पहल थी। बीजेपी सरकार में लौटी है तो इस मेगाप्रोजेक्ट की फाइलों में हरकत लौट आई है।

इस नेटवर्क में सात मुख्य नदियां हैं। ब्रह्मपुत्र, गंगा, यमुना, चंबल, नर्मदा, गोदावरी और कृष्णा। कुल 37 नदियां जोड़ी जाएंगी, 31 लिंक बनेंगे, 9000 किलोमीटर लंबी नहरें होंगी। 2016 तक के लक्ष्य के साथ सरकार का अनुमान है कि इस काम में 140 अरब डॉलर की लागत आएगी। लेकिन हर साल ये अनुमान बढ़ता जाएगा। सरकार ने बजट में प्रावधान कर दिया है।

उसकी दिलचस्पी साफ है। इस सिलसिले में केन बेतवा लिंक परियोजना और दमनगंगा पिंजल लिंक परियोजना का डीपीआर पूरा हो गया है। इसे संबंधित राज्यों को सौंप भी दिया गया है। अब से करीब दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने ही इस मामले में दखल देकर केन बेतवा लिंक परियोजना को क्रियान्वित करने का आदेश दिया था।

कैसे मानेंगे राज्य : नदियां जोड़ना भले ही सरकार को वक्त की मांग लगती है लेकिन उसका ये भी कहना है कि राज्यों की रजामंदी से ही इसे लागू किया जाएगा, थोपा नहीं जाएगा। इससे परियोजना की विकटता समझी जा सकती है। मिसाल के लिए तमिलनाडु और केरल ने पांबा अछानकोविल वायपर लिंक परियोजना का विरोध किया है। ओडिशा महानदी गोदावरी लिंक परियोजना पर ना नुकुर के मूड में है। नेत्रावती हेमावती लिंक परियोजना पर कर्नाटक ने नेत्रावती के पानी पर अपना हक जताया है।

कुछ राज्यों के बीच पानी का झगड़ा कायम है। सतलुज यमुना का विवाद देखिए। पंजाब अपने हिस्से का पानी बांटने को तैयार नहीं। कावेरी के पानी को लेकर कर्नाटक और तमिलनाड के बीच विवाद तो जगजाहिर है। नदियों में पानी कम है और शायद ही कोई राज्य अपने हिस्से का पानी किसी दूसरे राज्य को देने को तैयार हो।

भारत में हर साल औसतन 4000 अरब घनमीटर बारिश रिकॉर्ड होती है। लेकिन बारिश हर जगह एक जैसी नहीं होती। मौसम के लिहाज से भी और क्षेत्र के लिहाज से भी। नदी जोड़ने के हिमायती कहते हैं कि नेटवर्किंग से सभी नदियों मे जलप्रवाह कायम रहेगा। बाढ़ और सूखे का खतरा कम होगा।

जोखिम भरा सौदा : पर्यावरण से जुड़े लोग नहीं मानते कि इससे देश का कोई भला होगा। उनका दावा है कि ये एक बहुत महंगा और जोखिम भरा सौदा है। इसमें न जाने कितने विशाल प्रौद्योगिकीय संसाधन खप जाएंगे और पर्यावरण पर दूरगामी दुष्प्रभाव पड़ेगा, सो अलग। जानकारों का मानना है कि नदी का रास्ता बदलने से जमीन की प्रकृति भी बदल सकती है। खेती पर असर पड़ सकता है। नहरें भी बाज मौकों पर मुफीद नहीं होतीं। जाहिर है आम लोग ही अंततः ऐसी किसी विकराल महत्वाकांक्षा की चपेट में आएंगे।

तो क्या सरकार में बैठे जानकार इस बात से अनजान हैं। यहीं पर दुविधा, असमंजस और राजनीति की गलियां खुलने और मुड़ने लगती हैं। कांग्रेस और बीजेपी अपने अपने मकसदों से इस योजना के पीछे हैं। दक्षिण के राज्य इसके विरोध में हैं तो कई राज्य पक्ष में हैं। इंजीनियरों और वैज्ञानिकों का बड़ा धड़ा समर्थन में तो जल विशेषज्ञों और आंदोलनकारियों का बड़ा समुदाय विरोध में है।

लेकिन विरोध की एक और धारा भी खुल सकती है। वो है जमीन अधिग्रहण से प्रभावित होने वालों की बड़ी तादाद। देश भर में नदी किनारे रहने वालों को विस्थापित होना होगा। उनकी जमीनें ली जाएंगी, क्या ये काम आसानी से हो जाएगा। या आने वाले दिनों में हम नदियों के किनारों पर गुस्से और आंदोलन की उठती गिरती नई लहरें देखेंगे।

पड़ोसी मुल्कों से खटास : एक और बात। पड़ोसी देशों से संबंधों में भी खटास आ सकती है। बांग्लादेश पहले से आशंकित है। उसके पास करीब 230 नदियां हैं। इनमें से 54 भारत से होकर बांग्लादेश पहुंचती हैं। बांग्लादेश की चिंता का कारण भी यही है। उसे डर है कि नदी जोड़ो परियोजना से इन नदियों में पानी कम होगा। चीन से निपटना भी एक चुनौती है। वो करीब छह बांध बनाने की योजना बना रहा है और हिमालयी नदियों के प्रवाह में इन बांधों से असर पड़ सकता है।

क्या सूखे और बाढ़ से बचाव और पानी की किल्लत दूर करने के लिए सरकार के पास नदियों को जोड़ने के सिवाय कोई और रास्ता नहीं है। ऐसा मानने में हिचक होती है। आखिर ऐसा कैसे हो सकता है कि ऐसी परियोजना पर सरकार के नुमाइंदे और नेतागण इतने बेसब्र हुए जा रहे हों, जिसकी संभावित लागत का कोई पता नहीं और जो इतनी आशंकाओं, आंदोलनों और संभावित मुसीबतों में घिरी है, जिसकी सफलता पर सवाल ही सवाल हैं। कहीं तो कोई चक्कर है।

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी
संपादनः अनवर जे अशरफ

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