विपक्षी दलों ने क्यों बनाई है मीडिया से दूरी?

सोमवार, 3 जून 2019 (11:46 IST)
कांग्रेस ने एक महीने के लिए मीडिया से दूर रहने का फैसला तो लिया है लेकिन क्या इसका उसे फायदा मिलेगा या फिर वह अपना और नुकसान कर बैठेगी?
 
 
लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस समेत दूसरे सभी दलों में आत्ममंथन का दौर चल रहा है। हार के कारणों पर चर्चा चल रही है, इस्तीफों की पेशकश हो रही है लेकिन इन सबसे हटकर इन पार्टियों का एक चौंकाने वाला फैसला ये आ रहा है कि उनके प्रवक्ता अब टीवी चैनलों की बहस में हिस्सा नहीं लेंगे।
 
 
कांग्रेस पार्टी ने अगले एक महीने तक किसी भी डिबेट शो में अपने प्रवक्ताओं को न भेजने का निर्णय लिया है। इस बारे में पार्टी प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने बाकायदा अपने ट्विटर हैंडल पर जानकारी दी है। ट्वीट में उन्होंने बताया है कि अगले एक महीने तक कांग्रेस प्रवक्ता किसी भी टीवी डिबेट में शामिल नहीं होंगे। साथ ही उन्होंने सभी मीडिया चैनलों और उनके संपादकों से अपने कार्यक्रमों में कांग्रेस प्रवक्ताओं को शामिल नहीं करने का भी अनुरोध किया है।
 
 
चुनाव परिणाम के दो दिन बाद ही समाजवादी पार्टी ने भी अपने सभी प्रवक्ताओं का मनोनयन समाप्त कर दिया था और मीडिया चैनलों से अनुरोध किया था कि सपा का पक्ष रखने के लिए पार्टी के किसी भी पदाधिकारी को आमंत्रित न किया जाए। इससे पहले बिहार में आरजेडी प्रमुख और बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने भी चुनाव के दौरान प्रमुख विपक्षी नेताओं को पत्र लिखकर टीवी डिबेट में शामिल न होने का आग्रह किया था।

 
जहां तक कांग्रेस पार्टी का सवाल है तो माना जा रहा है कि कांग्रेस ने यह फैसला इसलिए लिया है क्योंकि इन दिनों मीडिया के सारे सवालों का फोकस राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश की ओर ही है। पार्टी इसे अपने स्तर पर ही सुलझाना चाहती है। हालांकि कांग्रेस पार्टी के सूत्र ये भी बताते हैं कि पार्टी के भीतर अंदरखाने रणनीतिक रूप से गहन चर्चा हो रही है और बड़े बदलाव की तैयारियां हो रही हैं। ऐसे में पार्टी नहीं चाहती कि अंदर की खबरें निकल कर आम लोगों तक जाएं।
 
 
यही कारण समाजवादी पार्टी और दूसरी विपक्षी पार्टियों के संबंध में भी कहा जा सकता है जिन्हें लोकसभा चुनाव में बीजेपी के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा है। वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह कहते हैं, "यूपी में गठबंधन ने जिस तरह से जीत के दावे किए थे और बीजेपी की हार की उम्मीद पाली थी, वे धराशायी हो गई। ऐसे में उनके पास इस हार के कारणों पर जवाब देने के लिए कोई तथ्य सामने दिख नहीं रहे हैं। ईवीएम को कोसने पर उन्हें आशंका इस बात की भी है कि प्रचंड बहुमत की इस जीत के आगे ऐसे आरोपों के जरिए ये लोग हंसी का भी पात्र बन सकते हैं। तो मीडिया में जवाब न देना पड़े, इससे अच्छा कि बहस-मुबाहिसे में जाएं ही नहीं।”

 
अरविंद सिंह ये भी कहते हैं कि चाहे मुद्दा ईवीएम का हो या फिर हार के अन्य कारणों का, विपक्षी दल अभी इंतजार के मूड में हैं और जगह-जगह से तथ्य जुटाए जा रहे हैं। चुनाव परिणाम के तुरंत बाद चुनाव में धांधली संबंधी खबरें खूब आईं और आरोप भी लगे, लेकिन अब सब कुछ बिल्कुल शांत हो गया है। पार्टी प्रवक्ताओं को भी किसी प्लेटफॉर्म पर न जाने की हिदायत इसी का हिस्सा है। इन सब कारणों के न सिर्फ तथ्य जुटाए जा रहे हैं बल्कि टाइमिंग भी देखी जा रही है।

 
हालांकि इसका एक अन्य पक्ष भी है। पिछले कुछ सालों से टीवी चैनलों की बहसों में जिस तरह से कुछ एंकर कथित तौर पर सरकारी पक्ष जैसा व्यवहार करते हुए विपक्षी दलों पर ‘सवालों की झड़ी लगाते हुए टूट पड़ते हैं', विपक्षी दलों ने उसी प्रतिरोध को स्वर देने के लिए भी ये कदम उठाया है। टीवी चैनलों पर बहस अकसर गर्मागर्म तो होती ही है, गाली-गलौच और हाथापाई तक भी हो चुकी है। इन सब कारणों से न सिर्फ इन बहसों का औचित्य खत्म हुआ है, बल्कि मीडिया की निष्पक्षता पर सबसे ज्यादा सवाल भी इन्हीं बहसों की वजह से उठे हैं।

 
कांग्रेस पार्टी के एक वरिष्ठ नेता नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं कि जिस मीडिया पर सरकार के पांच साल के काम-काज का हिसाब लेने और उसे आम जनता तक पहुंचाने का दायित्व है, वह विपक्ष से उसके पुराने कार्यकालों का हिसाब मांगता है। उनके मुताबिक, "कुछ टीवी चैनलों का रवैया तो बीजेपी के प्रवक्ता और कार्यकर्तानुमा होता ही है, उसके एंकर तो बीजेपी के सैनिक जैसे बर्ताव करते हैं। विपक्षी दलों के नेताओं की न सिर्फ बेइज्जती करते हैं, बल्कि उन्हें जलील भी करते हैं।”

 
इन नेता की बात मानें तो कांग्रेस पार्टी ने इसी वजह से कुछ दिन तक के लिए टीवी चैनलों पर अपने प्रवक्ताओं को न भेजने का फैसला किया है। उनके मुताबिक, "देश में चाहे जो मुद्दे हों, हत्या, बलात्कार, डकैती और जहरीली शराब से मौतें हो रही हों, लेकिन टीवी चैनलों पर शाम की बहस का मुद्दा कांग्रेस पार्टी की हार, मोदी जी की प्रचंड जीत और राहुल गांधी की भूमिका जैसे विषयों पर ही केंद्रित रहेगा।”

 
वहीं समाजवादी पार्टी के नेता उदयवीर सिंह सीधे आरोप लगाते हैं कि टीवी चैनल जानबूझकर विपक्षी नेताओं को कम मौका देते हैं और देते भी हैं तो बीजेपी और आरएसएस विचारकों के साथ एंकर खुद भी उन्हीं पर हमलावर रहता है। उदयवीर सिंह कहते हैं, "ऐसी बहसों का औचित्य ही क्या है? ये तो एक तरह से बीजेपी की प्रशंसा और विपक्षियों पर प्रहार का एक प्लेटफॉर्म हो गया है।”

 
टीवी चैनलों की बहसों में कांग्रेस पार्टी का अकसर पक्ष रखने वाले अखिलेश सिंह तो अपने ट्विटर अकाउंट के जरिए इन बहसों के औचित्य पर सवाल उठाते हुए इनके कथित पक्षपात के बारे में लिखते रहते हैं। कांग्रेस पार्टी के ही एक प्रवक्ता का एक चर्चित टीवी एंकर के साथ ‘मार-पीट' और एक अन्य एंकर के साथ ‘अपशब्द' के स्तर की बहसबाजी का वीडियो वायरल हो चुका है।

 
ऐसी घटनाओं की चर्चा न सिर्फ मुखय धारा की मीडिया और सोशल मीडिया पर हुई, बल्कि इन्हें लेकर मीडिया के बारे में बनने वाली आमजन की राय ने पूरी मीडिया की विश्वसनीयता और उसके दायित्व पर सवालिया निशान लगाया है। नेशनल ब्रॉडकास्टिंग असोसिएशन के अध्यक्ष रहे और वरिष्ठ टीवी पत्रकार रहे एनके सिंह ने अपने सोशल अकाउंट पर इस तरह की बहसों की कड़ी आलोचना की थी।

 
उन्होंने लिखा था, "वैसे तो देश की हर औपचारिक या अनौपचारिक, संवैधानिक या सामाजिक, धार्मिक या वैयक्तिक संस्थाओं पर जन-विश्वास घटा है लेकिन जितना अविश्वास मीडिया और खासकर न्यूज चैनलों को लेकर है, वह शायद पिछले तमाम दशकों में कभी नहीं रहा। और हाल के कुछ वर्षों में जितना ही देश का मानस दो पक्षों में बंटा है, उतना हीं यह अविश्वास जनाक्रोश में बदलता जा रहा है।”

 
हालांकि राजनीतिक दलों के इस फैसले की उन टीवी चैनलों के चर्चित एंकरों ने ट्विटर और फेसबुक पर काफी आलोचना भी की है और इसे ‘सच्चाई से दूर भागने' जैसी टिप्पणियों से भी नवाजा है लेकिन सच्चाई यही है कि यदि विपक्षी दलों के इस फैसले को एक तरह से ‘मीडिया का बॉयकॉट' कहें, तो ये निश्चित तौर पर चिंता वाली बात है। लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार शरद प्रधान कहते हैं कि विपक्षी दलों को तो ये फैसला पहले ही ले लेना चाहिए था लेकिन यदि देर से भी लिया है तो भी कोई गलत नहीं है।
 
रिपोर्ट समीरात्मज मिश्र
 

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