गर्म, सूखी, प्रदूषित पृथ्वी पर बढ़ रही हैं बीमारियां

DW

सोमवार, 13 मई 2024 (09:07 IST)
-एनआर/एडी (एएफपी)
 
इंसान ने पृथ्वी को गर्म, सूखा और प्रदूषित करके कई जीवों के रहने रहने लायक नहीं छोड़ा है। इसके नतीजे में कई संक्रामक बीमारियों का फैलाव बढ़ रहा है। गर्म और सूखी जलवायु में मच्छर जैसे जीव खूब पनपते हैं। दूसरी तरफ इनका आवास खत्म होने से बीमारी फैलाने वाले ये जीव इंसानी बस्तियों के करीब आ जाते हैं।
 
एक नई रिसर्च ने यह दिखाया है कि जलवायु और पृथ्वी पर इंसानों का प्रभाव किस तरह की जटिल समस्याएं पैदा कर रहा है। कैसे कुछ बीमारियों को भरपूर विस्तार का मौका मिलने के साथ ही उनके फैलाव के तरीकों में बदलाव आ रहा है।
 
जैव विविधता का नुकसान संक्रामक रोगों के विस्तार में वैज्ञानिकों की आशंका से ज्यादा बड़ी भूमिका निभा रहा है। 'नेचर जर्नल' में छपी एक रिसर्च रिपोर्ट में इस बारे में कई जानकारियां सामने आई हैं।
 
रिसर्चरों ने पहले से मौजूद रिसर्चों के 3000 आंकड़ों का विश्लेषण कर यह पता लगाने की कोशिश की है, कि जैव विविधता का नुकसान, जलवायु परिवर्तन, रासायनिक प्रदूषण, बसेरों का खत्म होना या बदलना और नई प्रजातियों का आना, इंसानों, जानवरों और वनस्पतियों को कैसे प्रभावित करते हैं।
 
जैव विविधता का नुकसान
 
रिसर्च के बाद वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि जैव विविधता का नुकसान सबसे बड़ा कारक है। इसके बाद की बड़ी वजहें जलवायु परिवर्तन और नई प्रजातियों का उभरना है। परजीवी उन प्रजातियों को निशाना बनाते हैं जो भरपूर संख्या में हैं, और परपोषी के रूप में ज्यादा सुविधाजनक साबित होते हैं।
 
नोत्रे दाम यूनिवर्सिटी में जीव विज्ञान के प्रोफेसर और रिसर्च रिपोर्ट के वरिष्ठ लेखक जेसॉन रोर ने समाचार एजेंसी एएफपी से कहा कि बड़ी आबादी वाली प्रजातियां ज्यादातर, 'विकास, प्रजनन और फैलाव में निवेश करना चाहती हैं, और इसकी कीमत परजीवियों से सुरक्षा के रूप में चुकाती हैं।' हालांकि ज्यादा प्रतिरोध करने वाली दुर्लभ प्रजातियां जैवविविधता के खतरे के आगे कमजोर पड़ जाती हैं ऐसे में 'ज्यादा प्रचुर और परजीवी पालने में सक्षम परपोषी' के रूप में हम इंसान ही बचते हैं।
 
जलवायु परिवर्तन के कारण गर्म हुआ मौसम रोग फैलाने वाले जीवों को ज्यादा आवास मुहैया कराने के साथ ही प्रजनन का लंबा समय भी मुहैया कराता है। रोर का कहना है, 'अगर परजीवियों की ज्यादा पीढ़ियां होंगी तो और ज्यादा बीमारियां भी हो सकती हैं।'
 
हालांकि धरती को इंसानों के रहने लायक बनाने में जरूरी नहीं कि सारी प्रक्रियाओं से केवल संक्रामक रोग बढ़ते ही हैं। आवास के खत्म होने या उनमें बदलाव से संक्रामक रोगों में कमी भी आती है। शहरीकरण के साथ साफ-सफाई में सुधार, पानी की सप्लाई और सीवेज सिस्टम से संक्रामक रोगों में कमी भी आती है।
 
जगह के हिसाब से असर में फर्क
 
जलवायु परिवर्तन का बीमारियों पर असर पूरी धरती पर एक जैसा नहीं है। उष्णकटिबंधीय जलवायु में गर्म और नमी वाला मौसम डेंगू बुखार की विस्फोटक स्थिति पैदा कर रहा है। दूसरी तरफ अफ्रीका के सूखे क्षेत्र में आने वाले दशकों में मलेरिया के संक्रमण वाले इलाके सिमट सकते हैं। इस हफ्ते 'साइंस जर्नल' में छपी एक रिसर्च रिपोर्ट ने जलवायु परिवर्तन, बारिश, वाष्पीकरण और धरती में पानी के समाने जैसी जलीय प्रक्रियाओं के संबंध का एक मॉडल तैयार दिखाया है।
 
इसमें अनुमान लगाया गया है कि बीमारियों के संक्रमण के लिए उपयुक्त जगहों में बड़ी कमी आएगी और यह बारिश में कमी से ज्यादा बड़ी होगी। इसकी शुरुआत 2025 से होने का अंदेशा जताया गया है। रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि अफ्रीका में मलेरिया का मौसम पहले के अनुमानों की तुलना में 4 महीने छोटा हो सकता है।
 
लीड्स यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर और रिसर्च रिपोर्ट के मुख्य लेखक मार्क स्मिथ हालांकि सावधान करते हुए कहते है कि सारे नतीजे जरूरी नहीं कि अच्छी खबरें ही लाएं। उन्होंने एएफपी से कहा, 'मलेरिया के लिए उपयुक्त ठिकाने बदलेंगे।' इथियोपिया के ऊंचे इलाके प्रभावित होने वाली नए जगहों में शामिल हो सकते हैं। इन इलाकों में रहने वाले लोग मलेरिया के सामने ज्यादा कमजोर होंगे क्योंकि अब तक उनका इससे सामना नहीं हुआ है।
 
स्मिथ ने यह चेतावनी भी दी कि मलेरिया के लिए जो जरूरत से ज्यादा कठिन परिस्थितियां होंगी वह इंसानों के लिए भी मुश्किल पैदा करेंगी। उन्होंने कहा, 'पीने या फिर खेती के लिए पानी की मौजूदगी का मसला बहुत गंभीर हो सकता है।'
 
क्लाइमेट मॉडलिंग से बीमारियों की भविष्यवाणी
 
जलवायु और संक्रामक रोगों के बीच संबंध का मतलब है कि क्लाइमेट मॉडलिंग बीमारियों की उभरने की भविष्यवाणी कर सकती हैं। स्थानीय तापमान और बारिश का पूर्वानुमान पहले से ही डेंगू का अनुमान लगाने में इस्तेमाल हो रहा है। हालांकि यह बहुत थोड़ा समय पहले ही होता है और इन पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
 
एक विकल्प है इंडियन ओशेन बेसिन वाइड इंडेक्स यानी आईओबीडब्ल्यू। यह हिन्द महासागर में समुद्र की सतह के तापमान में होने वाली गड़बड़ियों के क्षेत्रीय औसत को मापता है। जर्नल साइंस में छपी रिसर्च रिपोर्ट ने तीन दशकों में 46 देशों के डेंगू के आंकड़े को भी देखा है और आईओबीडब्ल्यू के आंकड़ों की उठापटक के साथ उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध में बीमारियों के संक्रमण में संबंध का पता लगाया है।
 
यह रिसर्च गुजरे समय का है, जाहिर है कि आईओबीडब्ल्यू के भविष्य बताने की ताकत को अभी परखा नहीं गया है। हालांकि इस पर नजर रख कर अधिकारी सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए खतरा बनने वाली बीमारियों को फैलने से रोकने की बेहतर तैयारी कर सकते हैं।

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