कचरे के ढेर में गुम जिंदगी

मंगलवार, 9 दिसंबर 2014 (12:03 IST)
छह महीने पहले जब मरजिना अपने दो बच्चों के साथ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरी तो उसे उम्मीद थी कि यहां जिंदगी बेहतर होगी। पति द्वारा छोड़ दिए जाने के बाद वह बेहतर रोजगार की तलाश में बंगाल से दिल्ली पहुंची थी।

मरजिना ने पश्चिम बंगाल इस उम्मीद के साथ छोड़ा ताकि देश की राजधानी दिल्ली में उसे रोजगार मिलेगा और दो बच्चों के भविष्य को उज्ज्वल बनाने का मौका मिलेगा। लेकिन उसे रोजगार के रूप में केवल कचरा बीनने का काम मिला। दूसरों के कचरों में वह ऐसी चीजें ढूंढती जिसे दोबारा बेचा जा सके या फिर वह रिसाइकिल के लायक हो। यह काम गंदा और खतरनाक है। भारत भर में इस काम को लाखों लोग करते हैं।

भारत में कचरा बीनना प्रभावी रूप से प्राथमिक रिसाइकिलिंग प्रणाली है। लेकिन यह किसी भी लिहाज से पर्यावरण के अनुकूल नहीं है और सुरक्षा के मामले में भी यह काम खतरनाक है। जबकि कचरा बीनने वाले शहरों के लिए अमूल्य सेवाएं देते हैं फिर भी उनके अधिकार बेहद कम हैं। रोजाना वे घातक जहरीले पदार्थों के संपर्क में आते हैं।

मजबूरी बीनना पड़ा कचरा : दिल्ली से लगे गाजीपुर में मरजिना अपनी 12 साल की बेटी मुर्शिदा और 7 साल के बेटे शाहिदुल के साथ कचरा भराव क्षेत्र में दिन गुजारती है। अगली सुबह अपनी झोपड़ी के बाहर मरजिना कचरे के ढेर से धातु, प्लास्टिक और कागज अलग करने का काम करती है। बच्चे इस ढेर से प्लास्टिक के खिलौने निकलने पर खुद को खुशकिस्मत समझते हैं।

परिवार हर महीने करीब 1600 रुपए कमाता है। एक कमरे वाली झोपड़ी का किराया करीब 550 रुपए है। इस काम की कीमत परिवार को अपने स्वास्थ्य के साथ समझौता कर चुकानी पड़ती है। मरजिना के बच्चे लगातार बीमार पड़ने लगे। उसकी बेटी को डेंगू हो गया और उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।

कचरा बीनने वालों के लिए ठोस कार्यक्रम नहीं : हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की, जिसमें उन्होंने लोगों से अपने आस-पास को साफ रखने का आग्रह किया। लेकिन मरजिना जैसे लोगों के लिए कोई लाभ का एलान नहीं किया।

महीनों की गरीबी, बीमारी और शर्म के बाद मरजिना और उसके बच्चे दोबारा नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचे जहां से वे पश्चिम बंगाल में एक अनिश्चित भविष्य के लिए ट्रेन में सवार हुए। मरजिना कहती है, 'मैं अपने बच्चों को कचरे में मरता नहीं देखना चाहती।'

गृह राज्य में दिहाड़ी पर काम कर मरजिना बमुश्किल से इतना कमा पाएगी कि उसके परिवार का गुजारा हो सके। उसके बच्चे जो दिल्ली में स्कूल नहीं जाते थे, संभावना है कि पश्चिम बंगाल में भी ऐसा ही करें, हालांकि भारत में हर बच्चे के पास मुफ्त शिक्षा का अधिकार है। मरजिना कहती है कि चाहे वहां कुछ भी उनका इंतजार कर रहा हो, दिल्ली में कचरा बीनने वाले की जिंदगी की तुलना से बुरा नहीं हो सकता है।

- एए/एजेए (एपी)

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