भारत की न्यायपालिका में अराजकता

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018 (12:21 IST)
सुप्रीम कोर्ट की मौजूदा स्थिति को देख कर यह आशंका पैदा हो रही है कि कहीं इसका हाल भी भारत की विधायिका और कार्यपालिका जैसा तो नहीं हो जाएगा।
 
भारत में राजनीतिक नेताओं और नौकरशाहों से परेशान जनता के लिए एक ही आश्रय बचा था और वह था लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ न्यायपालिका। उससे भी चूक होती थी लेकिन फिर भी लोगों का उसमें विश्वास बना हुआ था। आज भी यह विश्वास बरकरार है लेकिन पिछले कुछ समय से एक के बाद एक लगातार ऐसी घटनाएं घट रही हैं जिनसे इस विश्वास को ठेस लगती है और यह आशंका उत्पन्न हो जाती है कि कहीं इसका हाल भी विधायिका और कार्यपालिका जैसा तो नहीं हो जाएगा।
 
देश की सर्वोच्च अदालत में इस समय सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है और धीरे-धीरे अराजकता की सी स्थिति पैदा होने लगी है। यदि देश की सबसे ऊंची अदालत में ही अव्यवस्था फैल गई, तो फिर लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का क्या भविष्य होगा, इसके बारे में केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। यह तो स्पष्ट है कि कोलेजियम प्रणाली ठीक से काम नहीं कर रही है।
 
पिछले महीने 12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार उसके चार वरिष्ठतम जजों ने एक संवाददाता सम्मेलन बुलाकर अपने असंतोष को व्यक्त किया था और आरोप लगाया था कि प्रधान न्यायाधीश मुकदमों के आवंटन में परंपरागत प्रणाली का पालन नहीं कर रहे हैं। बुधवार को यह और भी स्पष्ट हो गया कि सुप्रीम कोर्ट अनुशासनहीनता और अराजकता की ओर बढ़ रहा है और यदि समय रहते इस प्रवृत्ति पर अंकुश न लगाया गया तो इसके दूरगामी दुष्परिणाम निकल सकते हैं।
 
स्थापित व्यवस्था यह है कि सुप्रीम कोर्ट की किसी खंडपीठ के निर्णय को निरस्त या उलटने का अधिकार उस खंडपीठ से बड़ी खंडपीठ को है। यानी यदि तीन-सदस्यीय खंडपीठ ने कोई फैसला दिया है तो उसे पांच-सदस्यीय खंडपीठ ही उलट सकती है। इसी तरह पांच-सदस्यीय खंडपीठ के फैसले को उलटने का अधिकार सात-सदस्यीय या उससे भी बड़ी खंडपीठ को है। लेकिन 8 फरवरी को इस व्यवस्था को ताक पर रख दिया गया। हुआ यह कि भूमि अधिग्रहण कानून पर अमल के सिलसिले में चले एक मुकदमे में 2014 में सुप्रीम कोर्ट की एक तीन-सदस्यीय खंडपीठ ने, जिसमें जस्टिस मदन बी।
 
लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ भी शामिल थे, यह फैसला दिया था कि अगर भूस्वामियों को न तो मुआवजा दिया गया और न उसकी धनराशि को किसी सक्षम अदालत में जमा किया गया, तो फिर उन्हें अधिक मुआवजा देना पड़ेगा। 8 फरवरी को जस्टिस ए.के. गोयल, जस्टिस अरुण मिश्र और जस्टिस एम। शान्तनागौदार की खंडपीठ ने इसे उलट दिया।
 
बुधवार को भूमि अधिग्रहण संबंधी मामलों की सुनवाई करते हुए जस्टिस मदन बी। लोकुर, जस्टिस कुरियन जोसेफ और जस्टिस दीपक गुप्ता की खंडपीठ ने सभी उच्च न्यायालयों को निर्देश जारी किया कि वे इस तरह के मामलों में कोई फैसला न लें। जस्टिस जोसेफ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को एक संस्था के रूप में काम करना चाहिए और उसकी चौदह आवाजें नहीं होनी चाहिए। इस समय सुप्रीम कोर्ट की चौदह खंडपीठ हैं।
 
अब 7 मार्च को संभवतः उनकी खंडपीठ इस बिंदु पर विचार करेगी कि इस मामले को वृहत्तर खंडपीठ द्वारा सुने जाने की सिफारिश की जाए या नहीं। अभी तक सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्र ने चार वरिष्ठ जजों द्वारा उठाई गयी आपत्तियों पर भी कोई कार्रवाई नहीं की है।
 
पिछले दिनों एक अन्य जज ने कोलेजियम द्वारा सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति के लिए पसंद किये गए एक नाम पर आपत्ति की थी। अब यदि समान खंडपीठों के जरिए एक-दूसरे के फैसलों को उलटने का सिलसिला शुरू हो गया तो सुप्रीम कोर्ट में अनुशासनहीनता और अव्यवस्था फैलने का खतरा है। अब यह जिम्मेदारी प्रधान न्यायाधीश की है कि वे सर्वोच्च अदालत का कामकाज सुचारु ढंग से चलना सुनिश्चित करें।
 
रिपोर्ट कुलदीप कुमार

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