“अब तो बस चंद घंटे ही बचे हैं। हमारी आंखों की नींद तो महीनों से उड़ी हुई है। अगर सूची में नाम नहीं आया तो न जाने हमारा क्या होगा?”यह कहते हुए धुबड़ी जिले के शब्बीर रहमान के माथे पर चिंता की लकीरें गहरी हो जाती हैं।
शब्बीर रहमान के परिवार के चार लोगों के नाम तो मसविदे में शामिल हैं लेकिन पत्नी समेत तीन लोग इससे बाहर हैं। असम के उन लाखों लोगों की फिलहाल यही स्थिति है जिनके नाम नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस (एनआरसी) के मसविदे से बाहर हैं। उनमें से 36.28 लाख लोगों ने नए दस्तावेजों के साथ अपने नाम इसमें शामिल करने का आवेदन तो दिया है। लेकिन उनकी बेचैनी लगातार बढ़ रही है। बीते पांच साल से चल रही कवायद और समयसीमा कई बार आगे बढ़ने के बाद आखिर राज्य में 31 अगस्त को एनआरसी की अंतिम सूची का प्रकाशन होना है। इसमें 24 मार्च, 1971 के पहले से असम में रहने वाले लोगों के नाम शामिल होंगे। इस सूची को अंतिम रूप देने के लिए हजारों कर्मचारी युद्धस्तर पर चौबीसों घंटे काम में जुटे हैं।
इससे पहले सरकार ने ऐहतियाती तौर पर पूरी तैयारियां कर ली हैं। लेकिन बावजूद इसके पूरे राज्य में आतंक का माहौल पैदा हो गया है। इस बीच, कई लोगों पर फर्जी दस्तावेजों के सहारे एनआरसी में शामिल होने के आरोप लग रहे हैं। राज्य में सत्तारुढ़ बीजेपी ने भी एनआरसी की निष्पक्षता की कवायद पर सवाल उठाते हुए आरोप लगाया है कि फर्जी दस्तावेजों के सहारे कई बांग्लादेशी नागरिक भी इसमें शामिल हो गए हैं।
अंतिम सूची के प्रकाशन के बाद पैदा होने वाली कानून व व्यवस्था की संभावित परिस्थिति पर निगाह रखने के उपायों पर विचार-विमर्श की खातिर मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने हाल में तमाम जिलों के उपायुक्तों व पुलिस अधीक्षकों के साथ यहां एक समीक्षा बैठक की थी। इसमें उनसे जिले के हालात पर नजदीकी निगाह रखने को कहा था। जिला प्रशासन को सोशल मीडिया पर इस बारे में फैलने वाली फर्जी खबरों और अफवाहों की भी निगरानी करने को कहा गया है। केंद्रीय बलों की कई टुकड़ियों को भी संवेदनशील इलाकों में तैनात कर दिया गया है। एनआरसी के बाद पैदा होने वाली परिस्थिति से निपटने के लिए सरकार ने दस और डिटेंशन सेंटर और एक हजार विदेशी न्यायधिकरणों की स्थापना का फैसला किया है।
बीजेपी और संघ के सवाल
वैसे, बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक पहले ही एनआरसी प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए इसमें अवैध नागरिकों के नाम शामिल होने का अंदेशा जता चुके हैं। प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष रंजीत दास ने एनआरसी के संयोजक प्रतीक हाजेला पर महज अपनी राय और दो-तीन संगठनों की सलाह पर एनआरसी की सूची तैयार करने का आरोप लगाया है। दास कहते हैं, "एनआरसी तैयार करने के काम में कई संदिग्ध नागरिकता वाले लोगों को काम पर लगाया गया है। इसी तरह पहली सूची में शामिल हजारों लोग के नाम दूसरी सूची से गायब हो गए। ऐसे में त्रुटिहीन एनआरसी की उम्मीद नहीं की जा सकती।”
बीजेपी ने कहा है कि वह नहीं चाहती कि किसी वैध नागरिक, वह चाहे हिंदू, मुस्लिम या बौद्ध किसी धर्म का हो, उसका नाम एनआरसी से बाहर रहे। दास कहते हैं, "ऐसा हुआ तो 12 सौ करोड़ की लागत से पांच साल से जारी यह पूरी कवायद बेमतलब हो जाएगी।” संघ के वरिष्ठ नेता शंकर दास कहते हैं, "एनआरसी के प्रकाशन के बाद इसे अदालत में चुनौती दी जाएगी।” मुख्यमंत्री सर्बानांद सोनोवाल कहते हैं, "सरकार असम समझौते की धारा छह को लागू करने पर खास ध्यान दे रही है। इसमें असमिया लोगों के हितों की रक्षा औ विवादास्पद नागरिकता (संसोधन) विधेयक को लागू करने का प्रावधान है।” सरकार ने इसके लिए एक सेवानिवृत्त जज बिप्लब कुमार शर्मा की अध्यक्षता में एक कमिटी का भी गठन कर दिया है जो इस पर छह महीने में अपनी रिपोर्ट देगी।
पुराना है भाषाई टकराव
असम में स्थानीय लोगों बनाम बांग्लादेशी घुसपैठियों के बीच टकराव का इतिहास बेहद पुराना है। देश आजाद होने के बाद ही राज्य की सीमा पार कर लाखों की तादाद से बांग्लादेशी नागरिक यहां आते और बसते रहे हैं। इनमें हिंदू भी हैं और मुसलमान भी। इन घुसपैठियों को खदेड़ने के मुद्दे पर ही राज्य में लगभग छह वर्षों तक असम आंदोलन चला था। इस दौरान काफी हिंसा हुई थी। बाद में असम समझौते के जरिए यह आंदोलन खत्म हुआ।
एनआरसी ने राज्य में भाषाई आधार पर भी लोगों में एक विभाजन पैदा कर दिया है। राज्य के लोग हमेशा बांग्ला भाषा को असमिया पहचान के लिए एक खतरा मानते रहे हैं। वर्ष 1960 में राज्य सरकार ने जब असमिया को राज्य की एकमात्र आधिकारिक भाषा बनाने का एलान किया था तो ब्रह्मपुत्र व बराक घाटी में हिंसक भाषा आंदोलन हुआ था। यहां बांग्लाभाषियों को हमेशा संदेह की नजरों से देखा जाता है। आम राय यह है कि यह तमाम लोग या उनके पूर्वज सीमा पार से ही असम आए हैं।
मानसिक अवसाद और तनाव
इसबीच, एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि विदेशी घोषित होने और उसके बाद के नतीजों के डर से एनआरसी से बाहर रहने वाले 41 लाख में से 89 फीसदी लोग बेहद मानसिक तनाव और अत्याचार से पीड़ित हैं। नेशनल कैंपेन अगेनस्ट टॉर्चर (एनसीएटी) की ओर से हाल में जारी सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि ज्यादातर लोग बेहद दुश्चिंता में जी रहे हैं। कइयों की रातों की नींद छिन गई है और कुछ लोगों की भूख मर गई है। कुछ लोग मानसिक अवसाद के शिकार हो गए हैं।
एनसीएटी के संयोजक सुहास चकमा कहते हैं, "लोग इस बात से काफी डरे हुए हैं कि अंतिम सूची में नाम शामिल होने की स्थिति में उनका क्या होगा।” इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि जुलाई 2015 से अब तक गंभीर मानसिक तनाव की वजह से कम से कम 31 लोग आत्महत्या कर चुके हैं।
सरकार का भरोसा
असम सरकार ने उन तमाम जरूरतमंद लोगों को मुफ्त कानूनी सहायता मुहैया कराने का भरोसा दिया है जिनके नाम एनआरसी की अंतिम सूची में शामिल नहीं होंगे। राज्य के अतिरिक्त मुख्य सचिव संजय कृष्ण ने आतंक में दिन काट रहे लोगों को भरोसा देते हुए कहा है कि विदेशी न्यायाधिकरणों की ओर से विदेशी घोषित नहीं किए जाने तक एनआरसी से बाहर रहने वाले लोगों को किसी भी परिस्थिति में हिरासत में नहीं लिया जाएगा।
संजय कृष्ण कहते हैं, "सरकार ऐसे सभी जरूरतमंद लोगों को मुफ्त कानूनी सहायता मुहैया कराएगी। एनआरसी में नाम नहीं होने का मतलब यह नहीं है कि ऐसे तमाम लोग विदेशी हैं। ऐसे लोग नागरिकता नियम, 2003 की धारा आठ के तहत अपील कर सकते हैं। सरकार ने उनके अपील करने की समयसीमा भी पहले के 60 दिनों से बढ़ा कर 120 दिन कर दी है। लेकिन सरकार का यह भरोसा भी शब्बीर रहमान, हशमत शेख और उनके जैसे लाखों लोगों को उनके भविष्य का भरोसा दिलाने में नाकाम ही साबित हो रहा है।