अफ्रीका के चार देशों में कैंसर के कई मरीज ऐसी दवाएं ले रहे हैं जिनमें बीमारी रोकने या उसका प्रभाव कम करने के लिए जरूरी तत्व हैं ही नहीं। एक अमेरिकी और अफ्रीकी शोध समूह ने इसी हफ्ते द लैंसेट ग्लोबल हेल्थ में छपी रिसर्च रिपोर्ट में यह जानकारी दी है। रिसर्चरों ने इथियोपिया, केन्या, मलावी और कैमरून के एक दर्जन अस्पतालों और 25 मेडिकल स्टोरों से ऐसी दवाओं की जानकारी जुटाई। कुछ मौकों पर यह काम खुफिया तरीके से किया गया।
रिसर्चरों ने कई ब्रांड्स के करीब 200 यूनीक दवाओं का परीक्षण किया। इनमें से करीबन 17 फीसदी, यानी लगभग छह में से एक में। सक्रिय घटकों का स्तर गलत पाया गया। इनमें अहम अस्पतालों में इस्तेमाल की जाने वाली कई दवाएं शामिल हैं। ऐसी दवा जिन मरीजों को भी दी गईं उनके ट्यूमर बढ़ते और शायद फैलते भी रहे। यह तो साफ है कि ऐसी दवाएं सेहत के खिलाफ नुकसानदेह हैं।
अफ्रीका में एंटीबायोटिक्स, मलेरिया रोधी और तपेदिक की घटिया या नकली दवाओं की रिपोर्टें पहले भी सामने आ चुकी हैं। यह पहला मौका है जब किसी रिसर्च में नकली या गलत कैंसर रोधी दवाओं का उच्च स्तर पाया गया है।
जर्मनी के ट्यूबिंगन विश्वविद्यालय के फार्मासिस्ट लुत्स हाइडे के मुताबिक, "मैं इन परिणामों से चौंका नहीं हूं।" हाइडे, सोमालिया के स्वास्थ्य मंत्रालय के लिए काम कर चुके हैं। वह पिछले एक दशक से घटिया और नकली दवाओं पर शोध कर रहे हैं।
हाइडे, इस शोध से जुड़ी टीम का हिस्सा नहीं थे, लेकिन उन्होंने कहा, "मुझे खुशी है कि आखिरकार किसी ने ऐसी व्यवस्थित रिपोर्ट पब्लिश की है। यह इस क्षेत्र का पहला, वास्तव में महत्वपूर्ण व्यवस्थित अध्ययन है।"
कैसे पकड़ी जाएं नकली दवाएं
अमेरिका की नोत्रे दाम यूनिवर्सिटी की वरिष्ठ शोधकर्ता मारिया लीबरमैन ने डीडब्ल्यू से कहा, "खराब गुणवत्ता वाले उत्पादों के कई संभावित कारण हो सकते हैं।" इन कारणों में उत्पादन प्रक्रिया में दोष या भंडारण में लापरवाही के कारण उत्पाद का खराब होना शामिल हो सकता है। हालांकि कुछ दवाएं जानबूझकर नकली ही बनाई जाती हैं और उनके पैकेट पर लिखी जानकारी और उनमें मौजूद वास्तविक कंपाउडों बीच अंतर का जोखिम बढ़ जाता है।
घटिया और नकली दवाओं को पहचानना काफी मुश्किल होता है। आम तौर पर, एक स्वास्थ्यकर्मी या मरीज के पास, नजर के अलावा नकली दवाओं की पहचान का कोई और तरीका नहीं होता है। सामान्य हालात में वे ज्यादा से ज्यादा लिखावट, पैकेजिंग या आकार या डिजायन को ही चेक कर पाते हैं। यह कोई सटीक और भरोसेमंद तरीका नहीं है। रिसर्च के दौरान भी नजरों के कारण, घटिया दवाओं में से बमुश्किल एक चौथाई की ही पहचान हो सकी। बाकी का पता लैब टेस्ट के बाद चला।
लीबरमैन का दावा है कि इसके समाधान के लिए नियमों में सुधार करना ही होगा। उन्होंने नकली दवाओं की रोकथाम के लिए जहां आवश्यक हो वहां स्क्रीनिंग तकनीक और ट्रेनिंग मुहैया कराने पर जोर दिया। वह कहती हैं, "अगर आप इसका परीक्षण नहीं कर सकते, तो आप इसे रेग्युलेट भी नहीं कर सकते।"
आगे वह कहती हैं, "कैंसर की दवाओं को संभालना और उनका विश्लेषण करना मुश्किल है क्योंकि वे बहुत विषैली होती हैं, और इसलिए कई प्रयोगशालाएं ऐसा नहीं करना चाहती हैं। यह उप-सहारा देशों के लिए एक मुख्य समस्या है जहां हमने काम किया है। हालांकि उनमें से कई देशों में काफी अच्छी प्रयोगशालाएं भी हैं, लेकिन उनके पास कीमो की दवाओं के सुरक्षित संचालन के लिए जरूरी सुविधाएं नहीं हैं।"
पैसा भी गया और जान भी
करीब एक दशक पहले, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दावा किया कि निम्न और मध्यम आय वाले देशों में इस्तेमाल की जाने वाली 10 में से एक दवा घटिया या नकली होती है। उसके बाद से किए गए कई स्वतंत्र रिसर्चों ने उन आंकड़ों की पुष्टि की है। हालांकि बाद में कभी कभार यह अनुपात 10 में से एक की बजाए दो तक बढ़ा मिला।
स्वास्थ्य अर्थशास्त्री सचिको ओजावा ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "इनसे इलाज फेल हो सकता है, गंभीर साइड इफेक्ट हो सकते हैं और बीमारी बढ़ सकती है।" शोध के दौरान ओजावा ने कैंसररोधी दवाओं की जांच में योगदान दिया। खराब दवाओं को लेकर वह अलग से रिसर्च भी कर चुके हैं।
ओजावा के मुताबिक उच्च आय वाले देश, यानी अमीर देश सप्लाई चेन की निगरानी कर सकते हैं। वे संदिग्ध उत्पादों की पहचान करने और उन्हें वापस लेने के लिए कठोर नियामक प्रणालियां बना सकते हैं। लेकिन गरीब या मध्यम आय वर्ग वाले देशों के लिए ऐसा करना बहुत मुश्किल और खर्चीला होता है।
डब्ल्यूएचओ ने फिर से सभी देशों से अपने रेग्युलेट्री ढांचे में सुधार करने की मांग की है। दुनिया के कई देशों की तरह अफ्रीका में भी कैंसर का इलाज बेहद महंगा है। एक तरफ यह आर्थिक रूप से परिवारों की कमर तोड़ता है, तो दूसरी तरफ नकली या घटिया दवाएं अंत में बर्बादी और मायूसी देती हैं।
प्रीवेंशन, डिटेक्शन और रेस्पॉन्स
2017 में डब्ल्यूएचओ ने घटिया और नकली दवाओं की रोकथाम के लिए तीन चरणों वाला समाधान सामने रखा। इसके तहत, रोकथाम, पता लगाना और जवाबी कदमों का प्लान सामने रखा गया है। ऐसी दवाओं का निर्माण और उनकी बिक्री रोकना, ये रोकथाम के तहत आता है। इसके बावजूद बाजार में पहुंच चुकी घटिया या नकली दवाओं को पकड़ने के लिए कड़ी निगरानी करना दूसरा चरण है। तीसरे चरण में मरीजों, मेडिकल स्टोरों और अस्पतालों तक असली दवा की आपूर्ति सुनिश्चित करना आता है।
लेकिन इसके लिए जरूरी नियम कायदे बनाने और विशेषज्ञता जुटाने में समय लगता है। तब तक दवा देने से पहले उसकी सटीक स्क्रीनिंग कर जोखिम घटाया जा सकता है।
लीबरमैन एक ऐसे टेस्ट पर काम कर रही हैं जिसमें आसानी से दवाओं में गड़बड़ी को पकड़ा जा सकेगा। इसे पेपर लैब भी कहा जाता है। इस तकनीक के जरिए प्रशिक्षित पेशेवर, मरीज को दवा देने से पहले ही उनकी रासायनिक जांच कर सकेंगे। अलग अलग देशों में कुछ अन्य लैब तकनीकों पर भी काम चल रहा है।