प्रमोशन में आरक्षण पर गरमा रही है राजनीति

शुक्रवार, 28 सितम्बर 2018 (16:50 IST)
आरक्षित और सामान्य वर्ग के समर्थकों के इस मुद्दे पर अपने अपने मत हैं। लेकिन नौकरियों की घटती संख्या और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश को लेकर मची मारामारी ने दोनों को अब आमने सामने कर दिया है।
 
 
प्रमोशन में आरक्षण का सीधा मतलब मतलब है कि एससी/एसटी वर्ग के कर्मचारियों को नौकरी के दौरान प्रमोशन में भी आरक्षण मिलेगा। इसको ऐसे समझिए कि एक सामान्य वर्ग के कर्मचारी ने 2010 में ज्वाइन किया लेकिन एक एससी/एसटी वर्ग के कर्मचारी ने 2011 में उसी पद पर ज्वाइन किया। लेकिन अगर एससी/एसटी वर्ग के कर्मचारी का प्रमोशन 2015 में हो गया और सामान्य वर्ग के कर्मचारी का प्रमोशन 2017 में हुआ तो आरक्षित वर्ग का कर्मचारी सामान्य वाले से 2 साल सीनियर हो गया।
 
 
इसको परिणामी ज्येष्ठता भी कहते हैं। अगर ये लागू न होती तो एक बार वरिष्ठ (ज्वाइनिंग डेट के आधार पर) होने पर हमेशा वरिष्ठ रहता। इसको लागू करने से तमाम एससी/एसटी वर्ग के कर्मचारी सामान्य वर्ग के कर्मचारियों को लांघते हुए वरिष्ठ हो गए।
 
 
साल 1994 में जब बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की पहली साझा सरकार उत्तर प्रदेश में बनी, तो दलितों के लिए प्रमोशन में आरक्षण लागू कर दिया। फिर 2002 में बसपा और भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी, तो उसने इसमें परिणामी ज्येष्ठता लागू कर दी। फिर 2005 में सपा सरकार ने परिणामी ज्येष्ठता को रद्द कर दिया लेकिन 2007 में बसपा सरकार ने इसे फिर लागू कर दिया।
 
 
इस बीच 2012 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में प्रमोशन में आरक्षण को रद्द कर दिया। तत्कालीन अखिलेश यादव सरकार ने इसको लागू करते हुए लगभग साठ हजार कर्मचारी, जो इस व्यवस्था से प्रमोट हुए थे, उनको वापस डिमोट कर दिया। कर्मचारी इस संख्या को दो लाख बताते हैं।
 
 
इसके बाद से संघर्ष शुरू हो गया। दोनों वर्ग के कर्मचारी लामबंद हो गए। जो कर्मचारी इसके विरोध में थे उन्होंने सर्वजन हिताय संरक्षण समिति बना ली और दूसरी तरफ आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति बन गई।
 
 
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
लगभग छह वर्षों बाद ये मुद्दा फिर सुर्खियों में आ गया है। बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर अहम फैसला दिया। कोर्ट ने एससी/एसटी के लिए प्रमोशन में आरक्षण की सुविधा जारी रखी। लेकिन महत्वपूर्ण बिंदु ये रहे कि कोर्ट ने कहा कि एससी/एसटी के पिछड़ेपन के लिए आंकड़े जमा करने की जरूरत नहीं है।
 
 
एक अहम बात और कोर्ट ने कही कि "क्रीमी लेयर" से पिछड़ेपन की सूची प्रभावित नहीं होगी। जो समूह क्रीमी लेयर में होने की वजह से पिछड़ेपन से निकल चुके हैं, वे आरक्षण का लाभ नहीं ले पाएंगे। क्रीमी लेयर अब तक सिर्फ पिछड़ों पर लागू होती थी। इसमें वे परिवार आते हैं जिनकी सालाना आमदनी आठ लाख या उससे अधिक है।
 
 
सवाल कई हैं, जैसे क्रीमी लेयर को एससी/एसटी पर कैसे लागू किया जाएगा? एक वर्ग यह मान रहा है कि जब एससी/एसटी के पिछड़ेपन के आंकड़े नए सिरे से जमा नहीं नहीं करने हैं, तो एससी/एसटी पहले से ही पिछड़े परिभाषित हैं। अब काफी कुछ सरकार के विवेक पर निर्भर करेगा। अभी केंद्र को एससी/एसटी के लिए क्रीमी लेयर की परिभाषा तय करनी होगी। पहले ही सामान्य वर्ग और पिछड़े वर्ग के कर्मचारी परिणामी ज्येष्ठता से नारा हैं।
 
 
राजनितिक तापमान
सबसे पहले बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्षा मायावती ने एससी/एसटी के लिए प्रमोशन में आरक्षण को तत्काल बहाल करने को लेकर बयान जारी कर राजनितिक तापमान बढ़ा दिया। अपने लिखित बयान में मायावती ने कहा, "माननीय सुप्रीम कोर्ट का फैसला कुछ हद तक स्वागत योग्य है। केंद्र और राज्य सरकारें इन वर्गों के कर्मचारियों को प्रमोशन में आरक्षण की सुविधा पहले की तरह ही देती रह सकती हैं तथा अब इनके पिछड़ेपन को साबित करने के लिए आंकड़े जुटाने के 2006 के प्रावधान को समाप्त कर दिया गया है। अब बिना कोई देरी व नया बहाना बनाए जिन लाखों कर्मचारियों को रिवर्ट किया गया था, उनको तत्काल पदोन्नत किया जाए।"
 
 
बदले राजनितिक घटनाक्रम में जिस सपा सरकार ने इन कर्मचारियों को रिवर्ट किया था, वो अब इनके पक्ष में खड़ी होती दिख रही है क्योंकि अब उसको बसपा से महागठबंधन करना राजनितिक जरूरत है। दूसरी ओर भाजपा के सहयोगी दल भी इस मामले पर मुखर हो रहे हैं। मीडिया में छपी खबरों के अनुसार केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने क्रीमी लेयर से संबंधित बात से असहमति जताई है। वहीं भाजपा के दलित सांसद उदित राज भी क्रीमी लेयर को लागू नहीं करने के पक्ष में हैं।
 
 
सरकार के लिए चिंता का विषय यह है कि अगले साल चुनावी वर्ष है। पहले ही एक वर्ग एससी/एसटी एक्ट को लेकर विरोध में है। लखनऊ में तो हजारों सामान्य वर्ग के कर्मचारियों, जिसमें रिटायर्ड अधिकारी भी शामिल हुए हैं, ने अपना सम्मलेन करके खुला विरोध प्रकट किया है। सर्वजन हिताय संरक्षण समिति के अध्यक्ष शैलेंद्र दुबे के अनुसार, "केंद्र सरकार के कुछ मंत्री माननीय सर्वोच्च न्यायलय के 26 सितंबर के आदेश की मनमानी व्याख्या कर पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था पुनः लागू करने की साजिश रच रहे हैं जिससे सामान्य व अन्य पिछड़ी जाति के कर्मचारियों, अधिकारीयों एवं शिक्षकों में भरी गुस्सा व्याप्त है।"
 
 
सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि क्रीमी लेयर को पदोन्नति में आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाएगा लेकिन फिर भी सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की मनमानी व्याख्या की जा रही है।
 
 
उत्तर प्रदेश अभियंता संघ के अध्यक्ष गोविंद कुमार मिश्र कहते हैं, "इस फैसले का राजनितिक कारणों से मिसइंटरप्रेटेशन हो सकता है। हम लोग तो इसका विरोध कर रहे हैं क्योंकि इससे बहुत विषमताएं आ जाती हैं। अपना ही जूनियर कर्मचारी आपका बॉस बन जाता है।" मिश्र ने भी लखनऊ में इसको लेकर सम्मलेन बुलाया है।
 
 
दूसरी ओर आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति ने प्रदेश भर में रैलियां शुरू कर दी हैं। इसके कर्मचारी सड़को पर घूम कर इसका समर्थन कर रहे हैं, शपथ ले रहे हैं और अपनी संख्या आठ लाख बताते हैं। अवधेश कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मद्देनजर प्रदेश सरकार अविलंब प्रमोशन में आरक्षण बहाल करे। इसके अलावा जो दो लाख कर्मचारी डिमोट किए हैं, उनको पदोन्नती दी जाए।"
 
 
सरकार के लिए अब एक बैलेंसिंग फॉर्मूला ही बेहतर विकल्प है। किसी भी सूरत में एक वर्ग की नाराजगी मोल लेनी पड़ सकती है। तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में विधान सभा चुनाव भी होने जा रहे हैं और इस मुद्दे की तपिश भी वहां पहुंच चुकी है।

रिपोर्ट फैसल फरीद
 

वेबदुनिया पर पढ़ें

सम्बंधित जानकारी