डर के साये में जीती 'इज्जत गंवाने वाली' रोहिंग्या बच्चियां

Webdunia
बुधवार, 11 अक्टूबर 2017 (12:43 IST)
म्यांमार से बांग्लादेश पहुंचने वाला हर रोहिंग्या अपने साथ एक दुख भरी दास्तान ले कर आया है। नाबालिग बच्चियों के लिए यह सफर कितना भयावह है, यह उनकी आपबीती से पता चलता है। एक ऐसी ही बच्ची की कहानी..
 
अजीदा को वह लम्हा भुलाए नहीं भूलता, जब एक नकाबपोश सिपाही ने उसकी इज्जत पर हाथ डाला था। वह चीखी, चिल्लायी पर जंगल में उसकी चीख सुनने वाला कोई नहीं था। सिपाही के घिनौने हाथ अजीदा के कपड़ों को चीरते हुए उसकी टांगों के बीच घूम रहे थे। 13 साल की बच्ची ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की। लेकिन हाथ में बंदूक थामे उस सिपाही पर हैवानियत सवार थी। 
 
"मुझे बहुत दर्द हुआ और उस वक्त मेरे मन में बस एक ही बात चल रही थी कि मैंने अपनी इज्जत खो दी। अब मैं पाक नहीं रही, अब कोई मुझे नहीं स्वीकारेगा, अब कभी मेरी शादी नहीं हो पाएगी।"
 
कुछ ही मिनटों पहले अजीदा ने अपने माता पिता को मरते देखा था। सिपाही उसके घर में घुस आए थे। डर के मारे वह एक मेज के नीचे जा छिपी थी। वहां से उसने सिपाहियों को अपने मां बाप पर गोलियां चलाते देखा। और इसके बाद वह भी सिपाहियों के हाथ लग गयी। उन्होंने उसके घर को आग लगा दी और उसे खींच कर जंगल में ले गए।
 
सहमा हुआ जीवन
अजीदा अब बांग्लादेश में एक शरणार्थी शिविर में रह रही है। उसकी 15 साल की एक बहन भी उसके साथ है। माता पिता के अलावा दो बड़ी बहनों की भी म्यांमार के राखाइन प्रांत में हुई हिंसा में जान चली गयी। बहन मीनारा के साथ भी सिपाहियों ने वही हाल किया। दोनों इतना सहम गयी हैं कि शिविर के टेंट से भी बाहर नहीं आतीं। 
 
"यहां बंदूकें नहीं हैं लेकिन लोग तो हैं, जो जब चाहें हमारी इज्जत लूट सकते हैं।" मीनारा का कहना है कि उसने और भी लड़कियों के बलात्कार के अनुभव सुने हैं, "इसलिए हम कोशिश करते हैं कि हम हर वक्त टेंट के अंदर ही रहें।"
 
अजीदा और मीनारा उन चुनिंदा लड़कियों में से हैं, जो अपने साथ हुई ज्यादतियों के बारे में बात करने के लिए तैयार हैं। हालांकि थॉम्पसन रॉयटर्स फाउंडेशन से भी वे इसी शर्त पर बात करने के लिए तैयार हुईं कि उनकी पहचान गुप्त रखी जाएगी। बांग्लादेश के कॉक्स बाजार के एक स्कूल में जब इन लड़कियों से बात की गयी, तो उन्होंने किसी भी पुरुष से बात करने से इंकार कर दिया। जिस क्लासरूम में बातचीत हुई, वहां के सब खिड़की दरवाजे बंद कराये।
 
काश मर ही जाती!
यूनिसेफ के यौं लीबी की मानें तो बाकी लड़कियां इतनी हिम्मत भी नहीं जुटा पातीं। अब तक यूनिसेफ के पास यौन हिंसा के 800 मामले आये हैं, जबकि असल संख्या इससे कहीं ज्यादा होने की आशंका है। यूनिसेफ के लिए काम करने वाली नर्स रेबेका डास्किन का कहना है, "ऐसे माहौल में लड़कियां बहुत डरी होती हैं कि उन्हीं पर लांछन लगाया जाएगा। वे परिवार वालों को भी कुछ बताने से डरती हैं।"
 
डास्किन इन बच्चियों को सदमे से बाहर लाने की कोशिश में लगी हैं, "ज्यादातर मामलों में यह पहला यौन संपर्क होता है और क्योंकि वह बेहद हिंसक और कई लोगों की मौजूदगी में होता है, इसलिए सदमा और भी बड़ा होता है।"
 
मीनारा का सदमा उसकी इस बात से बयान हो जाता है, "मैं मर जाऊंगी लेकिन घर वापस नहीं जाऊंगी।" वहीं अजीदा का हाल इससे से बुरा है, "जब सिपाही मुझे उठा कर ले गये थे, मुझे लगा था कि मैं मर जाऊंगी। अब मुझे लगता है कि काश मर ही गयी होती, इज्जत गंवाने से तो वही बेहतर होता।"
 
- आईबी/एके (रॉयटर्स)

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