प्रतिबंध बढ़ाने की ट्रंप की धमकियों के बावजूद भारत और चीन रूसी तेल कंपनियों के साथ कारोबार कर रहे हैं। आलोचक कहते हैं कि रूस इस पैसे का इस्तेमाल यूक्रेन युद्ध में कर रहा है। हाल ही में ट्रंप ने दावा किया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भरोसा दिलाया है कि भारत रूस से तेल खरीदना बंद करेगा। हालांकि इसके बाद भारतीय विदेश मंत्रालय ने स्पष्टीकरण दिया कि उनकी प्राथमिकता "अस्थिर ऊर्जा बाजार में भारतीय उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करना" है।
दूसरी तरफ, चीन ने भी साफ किया कि रूस से होने वाले उसका तेल आयात पूरी तरह से 'वैध' है और वो अमेरिका की तरफ से होने वाली किसी भी 'एकतरफा धौंस' का साथ नहीं देगा। 2022 में चीन रूसी तेल का सबसे बड़ा आयातक था।
इससे पहले, भारत ने पश्चिमी देशों पर दोहरे मानदंड अपनाने के आरोप लगाए है। उसका कहना है कि भले ही यूरोपीय संघ ने यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से रूस पर अपनी निर्भरता काफी कम की है, लेकिन अब भी वह काफी हद तक रूसी ऊर्जा का आयात कर रहा है। भारत ने इस ओर भी इशारा किया कि एक समय पर अमेरिका ने खुद रूस से भारत के तेल आयात का समर्थन किया था ताकि वैश्विक तेल कीमतों को स्थिर रखा जा सके।
2021 से 2024 के बीच रूस से भारत की तेल खरीद लगभग 19 गुना बढ़कर एक लाख से 19 लाख बैरल प्रतिदिन हो गई। वहीं, चीन का आयात भी 50 फीसदी बढ़कर 24 लाख बैरल प्रतिदिन तक पहुंच गया।
लिथुआनिया स्थित सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (सीआरईए) के ऊर्जा विश्लेषक पेट्रस कटिनस ने डीडब्ल्यू को बताया कि रूस के दूसरे सबसे बड़े तेल खरीददार, भारत ने 2022 से 2024 के बीच अपने ऊर्जा खर्च में कम से कम 33 अरब अमेरिकी डॉलर की बचत की। कटिनस के अनुसार, जब अमेरिका और यूरोप ने रूसी तेल और गैस पर अपनी निर्भरता घटाई, तो रूस ने भारत को काफी सस्ती दरों पर तेल बेचा।
सस्ते दामों पर रूसी कच्चे तेल की खरीद का फैसला भारत की पारंपरिक विदेश नीति के अनुरूप था। भारत लंबे समय से अमेरिका, रूस और चीन के साथ संबंधों में संतुलन बनाए रखता है और किसी एक को प्राथमिकता नहीं देता। इस पूरे दौर में भारत ने स्पष्ट कर दिया कि उसकी प्राथमिकता कोई देश नहीं, बल्कि ऊर्जा सुरक्षा और किफायती दरें हैं।
ट्रंप की नई पाबंदी धमकियों से तेल बाजार में हलचल : ट्रंप ने पहले ही भारतीय आयात पर 25 फीसदी टैरिफ लगाया हुआ है लेकिन अगस्त में नए अध्यादेश के जरिए उन्होंने भारत से आने वाली कुछ चीजों पर 25 फीसदी अतिरिक्त टैरिफ का एलान किया। रूस से तेल खरीदने की वजह से यह अतिरिक्त शुल्क लगा। भारतीय मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, इस नए शुल्क के कारण भारत की तेल खरीद लगभग 11 अरब डॉलर तक महंगी हो सकती है।
विशेषज्ञों का मानना है कि अगर अमेरिका सेकेंडरी टैरिफ लगाता है, तो यह पहले से ही पश्चिमी पाबंदियों से जूझ रही रूसी अर्थव्यवस्था के लिए एक और बड़ा झटका हो सकता है। रूस का बजट पहले से ही भारी दबाव में है। उसका रक्षा खर्च कुल जीडीपी के छह फीसदी से भी अधिक बढ़ चुका है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार रूस में महंगाई दर नौ फीसदी तक है लेकिन विश्लेषकों का अनुमान है कि वास्तविक महंगाई दर 15-20 फीसदी तक पहुंच चुकी है।
नई पाबंदियां वैश्विक ऊर्जा कीमतों और व्यापार के लिए घातक साबित हो सकती हैं। स्थिति 2022 जैसी हो सकती है, जब तेल की कीमतें अचानक बढ़ गई थीं और रूस ने पश्चिमी प्रतिबंधों से बचने के लिए दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के साथ सस्ते दामों वाले ऊर्जा समझौते करना शुरू कर दिया था।
नई दिल्ली स्थित ऊर्जा शोध संस्थान कप्लर में तेल विश्लेषक, सुमित रितोलिया ने डीडब्ल्यू से कहा, "अगर भारत ने 2022 में रूस से कच्चा तेल नहीं खरीदा होता, तो तेल की कीमत कितनी बढ़ जाती, इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है-100 डॉलर, 120 डॉलर, या शायद 300 डॉलर प्रति बैरल तक भी कीमतें बढ़ सकती थी।” युद्ध से पहले के हफ्तों में कच्चे तेल की कीमत 85 से 92 डॉलर प्रति बैरल के बीच थी।
लेकिन अब ट्रंप के लगाए गए 25 फीसदी सेकेंडरी टैरिफ भारत को मजबूर कर सकते हैं कि वह रूस से अपने तेल व्यापार में कुछ कमी लाए। ऐसे में अगर और प्रतिबंध लगाए गए, तो स्थिति और भी गंभीर हो सकती है।
पेट्रस कटिनस का कहना है कि सेकेंडरी प्रतिबंध माहौल को और बिगाड़ सकते हैं। इससे भारतीय कंपनियों की अमेरिकी वित्तीय प्रणाली तक पहुंच खतरे में पड़ सकती है और वैश्विक बाजारों से जुड़े बैंकों, रिफाइनरियों और शिपिंग कंपनियों पर भी गंभीर असर पड़ सकता है।
तेजी से बढ़ सकती हैं तेल की कीमतें : विश्लेषकों का मानना है कि अगर रूस का पचास लाख बैरल प्रतिदिन तेल अचानक से वैश्विक बाजार से हटा दिया जाएगा, तो तेल की कीमतों में जबरदस्त उछाल आ सकता है। इससे प्रभावित देशों को तुरंत वैकल्पिक स्रोतों की तलाश करनी पड़ेगी। हाल ही में तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक की तरफ से उत्पादन बढ़ाने से भी इतनी बड़ी मात्रा की भरपाई करना मुश्किल होगा क्योंकि उत्पादन क्षमता सीमित है।
सेंटर फॉर यूरोपियन पॉलिसी एनालिसिस के सीनियर फेलो अलेक्जेंडर कोल्यान्दर ने ब्रिटिश अखबार, द इंडिपेंडेंट को बताया, "इस पचास लाख बैरल का विकल्प तुरंत ढूंढ पाना असंभव है, इसलिए तेल की कीमतों को बढ़ने से रोकना नामुमकिन हो जाएगा।”
तेल विशेषज्ञ, सुमित रितोलिया ने डीडब्ल्यू से कहा कि अगर भारत को रूसी तेल पर अपनी निर्भरता कम करनी पड़ती है, तो इसमें भारतीय कंपनियों को कम से कम एक साल का समय लग सकता है।
अगर तेल महंगा होता है, तो इसका असर न सिर्फ अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया में महंगाई के रूप में पड़ेगा। अमेरिकी केंद्रीय बैंक (फेड) का अनुमान है कि कच्चे तेल की कीमत में हर 10 डॉलर की वृद्धि से अमेरिका में लगभग 0।2 प्रतिशत महंगाई बढ़ जाती है। भारतीय रिजर्व बैंक का भी यही अनुमान है।
अगर मौजूदा कीमत 58 डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर 110–120 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच जाती है, तो महंगाई में लगभग एक प्रतिशत की और बढ़ोतरी हो सकती है। इससे उपभोक्ताओं और कंपनियों की लागत तेजी से बढ़ेगी, खासकर ऊर्जा, परिवहन और खाद्य क्षेत्र में।
चीन बच निकलेगा, जबकि भारत भुगतेगा? अमेरिका और चीन, दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच 580 अरब डॉलर से अधिक का व्यापारिक संबंध है। इस विशाल आर्थिक ताकत के चलते चीन के पास वह मौका हो सकता है कि वह इन टैरिफ से बच निकले। लेकिन भारत के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं दिखता।
इसके अलावा, चीन की "रेयर अर्थ मेटल्स” (दुर्लभ धातुओं) पर पकड़ है, जो लंबे समय से अमेरिका-चीन संबंधों में विवाद का विषय भी रहा है। पिछले हफ्ते घोषित नए निर्यात प्रतिबंध दिखाते हैं कि चीन इन कदमों के जरिए ट्रंप के रुख को नरम करने की कोशिश कर रहा है।
वहीं भारत के पास ऐसा कोई प्रभावशाली तरीका नहीं है। यही कारण है कि ट्रंप ने भारत पर दबाव और बढ़ा दिया और कहा कि रूस और भारत पर लगाई गई उनकी नई पाबंदियां दोनों देशों की "मरी हुई अर्थव्यवस्थाओं को एक साथ गिरा देंगी।”
बुधवार को ट्रंप के इस बयान के बाद कि भारत "बहुत जल्द” रूसी तेल पर अपनी निर्भरता कम करेगा, भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रंधीर जायसवाल ने गुरुवार को कहा कि अमेरिका ने भारत के साथ ऊर्जा सहयोग को और मजबूत करने में रुचि दिखाई है, और इस पर बातचीत चल रही है।
भारत को नहीं मिलेगा अब सस्ता तेल : भारत को अब रूसी तेल से उतना लाभ नहीं मिल रहा है, जितना 2022 में मिल रहा था। उस समय प्रति बैरल 15 से 20 डॉलर तक की छूट मिलती थी। विश्लेषक रितोलिया के मुताबिक, यह मार्जिन अब घटकर सिर्फ 5 डॉलर प्रति बैरल ही रह गया है।
इसके बावजूद भारतीय रिफाइनरियां रूसी तेल खरीदना जारी रखे हुए हैं। जून में आयात बढ़कर 20.8 लाख बैरल प्रतिदिन तक पहुंच गया। और यह भारत के कुल कच्चे तेल आयात का 44 फीसदी हिस्सा बन गया है।
रूस अपनी तिजोरी भरने के लिए आक्रामक ढंग से ऊर्जा आय पर जोर दे रहा है, जिसमें अब उसकी मदद तुर्की कर रहा है। वह अब रूसी तेल का तीसरा सबसे बड़ा तेल खरीदार बन चुका है और एशिया में, रूसी कच्चे तेल पर नया लेबल लगाकर फिर से निर्यात किया जा रहा है, ताकि अमेरिकी पाबंदियों से बचा जा सके।
बयानबाजी से आगे बढ़कर देखें तो चीन की संभावित प्रतिक्रिया उसके पहले के रवैये पर ही आधारित लगती है, जब उसने सेकेंडरी प्रतिबंधों का सामना किया था। चीनी बैंक अब धीरे-धीरे रूसी लेन-देन को अस्वीकार कर रहे हैं, इसलिए रूस को मजबूरी में बिचौलियों और तीसरे देशों का रास्ता अपनाना पड़ रहा है।
चीन के लिए तेल आयात सर्वोच्च प्राथमिकता है और यह आमतौर पर काफी हद तक राजनीतिक दबाव से सुरक्षित रहता है। वहीं, भारत का रुख कुछ अलग हो सकता है। दबाव पड़ने पर आयात कम किया जा सकता है, लेकिन सस्ते रूसी कच्चे तेल को पूरी तरह छोड़ने की संभावना कम ही है।
सुमित रितोलिया का मानना है कि भारत अपने रूसी तेल आयात को "कम” जरूर कर सकता है, लेकिन उन्होंने कहा, "मुझे नहीं लगता कि यह निकट भविष्य में पूरी तरह शून्य हो सकता है।”