ऊर्जा के सस्ते और टिकाऊ स्रोत के रूप में पानी से बनने वाली बिजली भरोसेमंद संसाधन है। लेकिन सूखा झेल रहे विश्व में खुद इसके अस्तित्व पर सवालिया निशान लगे हैं। भरोसेमंद, सस्ती और कार्बन उत्सर्जन भी कम। 100 साल पहले अस्तित्व में आई हाइड्रोपॉवर यानी जल विद्युत या पनबिजली, ऊर्जा के साफ और टिकाऊ स्रोतों में फिलहाल सबसे ज्यादा कारगर है। लेकिन इक्वाडोर और कोलंबिया में हाल ही में हुई बिजली की कमी ने दिखा दिया कि यह स्रोत भी जलवायु परिवर्तन की मार से अछूता नहीं है।
अल नीनो के प्रभाव के चलते सूखे के हालात ने जल विद्युत संयंत्रों में पानी का स्तर कम कर दिया है जिस पर ये दोनों देश ऊर्जा के लिए सबसे ज्यादा निर्भर हैं। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि इक्वाडोर को आपातकाल की घोषणा करके बिजली कटौती करनी पड़ी। पड़ोसी देश कोलंबिया की राजधानी बोगोटा में भी पानी की राशनिंग की गई है और इक्वाडोर को निर्यात की जाने वाली बिजली पर भी रोक लगाई गई है।
जलवायु परिवर्तन की मार
जल से ऊर्जा बनाने के लिए पानी की तेज धार को टरबाइन से गुजारा जाता है जिसके चक्कर खाने की प्रक्रिया से बिजली बनती है। श्रीलंका स्थित अंतरराष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान में मुख्य रिसर्चर मैथ्यू मैक्कार्टिनी कहते हैं, 'हाइड्रोपॉवर पानी पर निर्भर है तो यह साफ है कि अगर पानी न हो तो इसका प्रयोग नहीं हो सकता। ऊर्जा उत्पादन में बाधा आती है और बिजली की दूसरी व्यवस्थाओं पर दबाव बढ़ता है।'
सूखे और अचानक आई बाढ़ से बांधों को नुकसान पहुंचता है, जो जलवायु परिवर्तन के चलते पहले से ज्यादा भयंकर हो चुके हैं और चिंताएं बढ़ा रहे हैं। ब्राजील के 'सेंटर फॉर मॉनीटरिंग एंड अर्ली वॉर्निंग ऑफ नैचुरल डिजास्टर' में हाइड्रोलॉजिस्ट लुज ऐड्रियाना कुआरतास का कहना है कि हाइड्रोपॉवर प्लांट मौसमी बदलावों से जूझने के लिए बनाए जाते हैं, जहां बरसाती पानी इकट्ठा करके रखा जाता है ताकि शुष्क दिनों में इस्तेमाल में लाया जा सके।
कुआरतास बताती हैं कि कोलंबिया और इक्ववाडोर में पिछले साल से तापमान बढ़ रहा है और बारिश कम हो रही है और इसीलिए जलविद्युत प्रबंधन चुनौती बनता जा रहा है। इस पर बड़ी दिक्कत यह है कि दोनों ही देशों में ऊर्जा और पानी की खपत बढ़ती जा रही है, क्योंकि लोग एयरकंडीशनिंग और नलों का इस्तेमाल ज्यादा कर रहे हैं।
हाइड्रोपॉवर में ऐतिहासिक गिरावट
इक्वाडोर और कोलंबिया अकेले मामले नहीं हैं। हाइड्रोपॉवर दुनियाभर में अक्षय ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है और पिछले दो दशकों में इसमें 70 फीसदी की वृद्धि हुई है। लेकिन ब्रिटेन स्थित एक एनर्जी थिंक टैंक के मुताबिक, 2023 की पहली छमाही में पनबिजली के वैश्विक उत्पादन में ऐतिहासिक गिरावट दर्ज की गई। थिंक टैंक ने पाया है कि जलवायु परिवर्तन के चलते सूखे की गंभीर होती स्थिति की वजह से पूरी दुनिया में पानी से पैदा होने वाली ऊर्जा में 8।5 फीसदी की गिरावट आई है।
इस गिरावट में 75 फीसदी हिस्सेदारी चीन की है, जो दुनिया का सबसे बड़ा हाइड्रोपॉवर उत्पादक है। 2022 और 2023 में पड़े सूखे की वजह से चीन की नदियों और जलाशयों में पानी सूख गया जिससे बिजली की कमी हो गई और देश को बिजली की राशनिंग करनी पड़ी। 2022 में हुई एक स्टडी में बताया गया है कि दुनिया के वे हिस्से, जो 2050 तक पानी की भयंकर कमी झेलेंगे, उन्हीं इलाकों में दुनिया के लगभग एक-चौथाई बांध हैं जिनसे हाइड्रोपॉवर मिलती है।
अत्यधिक निर्भरता और जलवायु
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एप्लायड सिस्टम्स एनालिसिस में रिसर्चर ज्याकोमो फालचेट्टा कहते हैं कि जिन देशों में हाइड्रोपॉवर पर निर्भरता ज्यादा है, उन पर मौसमी बदलावों के बुरे प्रभावों का खतरा ज्यादा है। उनका शोध अफ्रीका पर केंद्रित है, जहां डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉंगो, इथियोपिया, मलावी, मोजाम्बिक, युगांडा और जांबिया जैसे देशों में बिजली उत्पादन का 80 फीसदी हिस्सा जलविद्युत से आता है। इनमें से ज्यादातर देश भयंकर सूखा झेल रहे हैं।
फालकेट्टा के मुताबिक एक तो ऊंची निर्भरता, ऊपर से उनके पास ऊर्जा उत्पादन की सीमित वैकल्पिक व्यवस्था है और बिजली आयात करने का बुनियादी ढांचा भी सीमित है। फालकेट्टा का मानना है कि इन देशों के लिए हल यही है कि वे अपने ऊर्जा स्रोतों में पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा को शामिल करके विविधता लाएं। जैसे घाना और केन्या में हाइड्रोपॉवर से निर्भरता सफलतापूर्वक कम करके ऊर्जा उत्पादन के तकनीकी पोर्टफोलियो और मजबूत किए जा रहे हैं।
मैक्कार्टनी भी कहते हैं कि चीन और ब्राजील जैसे देशों में हाइड्रोपॉवर संयंत्रों के ऊपर तैरते सोलर पैनल लगाकर प्रयोग किए जा रहे हैं। कुछ मामलों में जलाशयों का केवल 15-20 फीसदी हिस्सा ही इस्तेमाल करना होता है और उतनी ही ऊर्जा बनाई जा सकती है जितनी पानी से बनती है।
नेट-जीरो की राह
जलवायु की चिंताओं के चलते हाइड्रोपॉवर तकनीक से जुड़े जोखिमों के बावजूद यह कार्बनरहित तकनीक वैश्विक अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ने में अब भी अहम मानी जा रही है। फालकेट्टा की राय में हाइड्रोपॉवर तकनीक का विस्तार होगा, क्योंकि यह बड़े पैमाने पर सस्ती ऊर्जा देती है। पहले लगाई गईं मेगा डैम परियोजनाओं के बजाए मध्यम आकार के संयंत्र, जलवायु से जोखिमों को देखते हुए किसी एक माध्यम पर अत्यधिक निर्भरता को दूर करने में मदद कर सकते हैं।
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का कहना है कि आगे चलकर हाइड्रोपॉवर की जगह पवन और सौर ऊर्जा का ही बोलबाला होगा, लेकिन 2030 के दशक में तो यह अक्षय ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत बनी रहेगी। हालांकि, एजेंसी ने चिंता जाहिर की है कि इस दशक में हाइड्रोपॉवर उत्पादन में आई गिरावट नेट-जीरो कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य हासिल करने में मुश्किल पैदा कर देगी। एजेंसी के मुताबिक अगर धरती के तापमान में बढ़त को 1.5 डिग्री सेल्सियस के स्तर पर रोकना है तो हाइड्रोपॉवर उत्पादन क्षमता 2050 तक दोगुनी होनी चाहिए।
हाइड्रोपॉवर की प्रभावी भूमिका
जलवायु परिवर्तन निश्चित तौर पर जलविद्युत उत्पादन के जोखिमों को बढ़ा रहा है। इसके लिए जरूरी है बेसिनों में पानी का बेहतर प्रबंधन। हाइड्रोपॉवर की जरूरत बिजली उत्पादन व्यवस्था को स्थायित्व देने में भी है ताकि जब पवन और सौर ऊर्जा उपलब्ध न हो तो उस पर निर्भर रहा जा सके।
मैक्कार्टनी कहते हैं, 'हाइड्रोपॉवर एक बहुत बड़ी बैटरी की तरह काम कर सकती है, क्योंकि आप उसे बहुत तेजी के साथ स्विच ऑन और ऑफ कर सकते हैं। यही नहीं, जलविद्युत संयंत्र, कोयला, परमाणु और नैचुरल गैस प्लांटों के मुकाबले ज्यादा तेजी के साथ ऊर्जा उत्पादन बढ़ा या घटा सकते हैं।
पंप्ड स्टोरेज हाइड्रोपॉवर जैसी व्यवस्था भी मददगार हो सकती है, जो बिजली सस्ती होने पर पहाड़ी इलाकों की तरफ पानी पहुंचा सके और मंहगी होने पर तलहटी की तरफ सप्लाई दे सके। इस तरह की परियोजनाएं कम पानी लेती हैं, क्योंकि उसे रीसाइकिल किया जाता है। यह सूखे से पूरी तरह से मुक्त तो नहीं है, लेकिन परंपरागत हाइड्रोपॉवर परियोजनाओं से ज्यादा बेहतर हैं।'