सफर, कोख से कुड़ेदान तक!

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देश की सरकार पिछले कई सालों से कन्या भ्रूण हत्या को रोकने और बेटियों को बचाने के लिए कई सारे अभियान चला रही है। जिन पर हर साल करोड़ों रुपए खर्च भी किए जाते हैं। लेकिन फिर भी आज तक कन्या भ्रूण हत्याओं के मामले न तो कम हुए है और न आने वाले सालों में उसकी कोई गुंजाईश है।

सुबह-सुबह चाय का कप हाथ में लेते हुए हम अखबार के साईड बोटम में छपी यह खबर जरूर पढ़ते हैं कि इस साल भ्रूण हत्या के मामलों में कितनी वृद्धि हुई। चाय की एक चुस्की के साथ सामने बैठी पत्नी की तरफ दृष्टिपात करते हुए धीरे से उस पेज को पलट अगली खबर पढने लगते है। क्या यही हमारी मर्दानगी है? जहाँ लक्ष्मी समान बेटियों को जन्म से पहले चोरी-छुपे मार डालने की जघन्य वारदात हम खामोश बैठे हुए हैं।

आज हमारे देश के किसी निजी अस्पताल या क्लिनिक में हर दिन कोई ना कोई मदर टेरेसा, इंदिरा गाँधी या फिर कल्पना चावला को जन्म लेने से पहले ही माँ की कोख में मौत के घाट उतार दिया जाता है। उनकी क्षत-विक्षत देह को कुड़े के किसी ढेर में, दुनिया की बदनामी से डर कर फेंक दिया जाता है। गुजरात के बापुनगर क्षेत्र में हाल ही में हुई घटना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है ।

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सोमवार के दिन यहाँ के मलेकसाबान स्टेडियम के नजदीक रखे गए एक कुडेदान में से चार-पाँच कुत्ते किसी चीज को छीनाछपटी करके खा रहे थे। यह चीज पोलीथीन में पैक थी। शुरू-शुरू में तो लोगों का ध्यान उसकी और नहीं गया लेकिन जब ज्यादा छीनाछपटी से पोलीथीन फट गई और वह 'चीज' लोगों की नजरों के सामने आ गई तो हड़कंप मच गया। इस पोलीथीन में 14 मानव भ्रूण थे जिसमे ज्यादातर कन्या भ्रूण थे। कुछ भ्रूण परिपक्व थे जबकि कुछ के सिर्फ शरीर के हिस्से थे!

आश्वर्य की बात तो यह भी है कि यह भ्रूण जिस जगह से मिले वहाँ से महज 100 कदमों की दूरी पर पुलिस कार्यालय(एसीपी ऑफिस) है, जहाँ चारों पहर पुलिस की नाकाबंदी रहती है। लेकिन फिर भी एक भी पुलिसवाला इस कृकृत्य को अंजाम देने वाले शख्स को पहचान नहीं पाया।

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इसके लिए गुजरात सरकार भी उतनी ही जिम्मेदार है जितने कि वह लोग जिन्होंने इस काम को अंजाम दिया है। अगर यह कुकृत्य किसी अस्पताल या फिर कोई निजी क्लिनिक के कर्मचा‍रियों ने किया है तो वह सजा के पूरे हकदार है, क्योंकि भ्रूण को मेडिकल वेस्ट के नियमों के अनुसार निकाला जाता है। सार्वजनिक तौर पर किसी कुडेदान में उसे फेंकना एक दंडनीय और आपराधिक कृत्य है।

खैर जब तक यह पीड़ा लिखी जा रही है तब तक वे मानव भ्रूण कहाँ से आए और कौन उसे फेंक गया यह एक पहेली ही बनी हुई है। कष्ट होता है कि हम अब भी प्रकृति की मासूम देन को यूँ नष्ट करने पर तुले हैं। भ्रूण हत्या किसी शिशु की नहीं बल्कि आनेवाली पीढ़ी के प्रसार-बीज की भ्रूण-हत्या है।

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