नाच न आवे आंगन टेढ़ा

-विवेक रंजन श्रीवास्तव विनम्र
बचपन में कभी न कभी 'खेलेंगे या खेल बिगाड़ेंगे' का नारा बुलंद किया ही होगा आपने। मैंने भी किया है। मेरी समझ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह पहला प्रयोग बड़ा सफल रहा था। मुझे मेरी बड़ी बहन ने वापस चोर-सिपाही के खेल में शामिल कर लिया था। 
 
यह और बात है कि कई दिनों बाद मुझे पता चल ही गया कि इस तरह का शोर मचाने पर मां की घुड़की से बचने के लिए मुझे 'दूध-भात' खिलाड़ी के रूप में खिलाया जाता था। मतलब मैं अपने आप में ही फुदकता रहता था खेल पर मेरे प्रयासों का कोई असर नहीं माना जाता था। यानी कुछ कुछ एक्स्ट्रा खिलाड़ी जैसी औकात बना दी जाती थी। छोटे से प्यारे से नन्हे से अपन की। 
 
खैर, समय भाप की तरह उड़ता गया और हम बच्चे से बड़े बनते गए। ये और बात है कि आज तक 'बड़े' बन नहीं पाए हैं। और यह भी और बात ही है कि लोग अपने को 'बड़े साहब' वगैरह मानते हैं, कभी जभी जब ड्राइवर हमें बड़ा मानता है तो कार का दरवाजा खोल देता है। जब कभी मुख्य अतिथि बनाकर कोई संस्था किसी आयोजन में बुला लेती है तो पत्नी जान-बूझकर मुझे समय से कुछ विलंब से घर से रवाना करती है। 
 
और सचमुच अपने पहुंचते ही जब आयोजक लेने के लिए कार की ओर बढ़ते हैं या सभाकक्ष में उपस्थित लोग खड़े होकर अपन को कथित सम्मान देते हैं, तब भी बड़े होने की भ्रांति पालने में बुरा नहीं लगता। पर जल्दी ही मैं अपने आपको नैतिक शिक्षा के पाठ याद दिला देता हूं और मन ही मन भगवान से प्रार्थना करता हूं कि हे प्रभु! मुझे मैं ही बना दे। ये बड़े-वड़े के चक्कर में कहीं ऐसा न हो कि न घर का रहूं और न ही घाट का।
 
स्कूल में हिन्दी में अपने भरपूर नंबर आते थे। जो यह लेख पढ़ रहे हों उनके लिए अपनी सफलता का राज डिस्क्लोज कर रहा हूं। निबंध में लोकप्रिय कवियों की पंक्तियां जरूर उद्धृत करता था और मौका मिल जाए तो गीता या रामचरित मानस से भी कोई उद्धरण कोट कर देता था। 
 
महात्मा गांधी और भारतीय संस्कृति के कुछ महत्वपूर्ण नायकों की जीवनियां मैंने एक्स्ट्रा करीक्युलर रूप से पढ़ रखी थीं। तो उसमें से भी कुछ कोट कर देने पर निबंध में भी मास्साब पूरे नंबर दे देते थे। मैं अपने उत्तरों में कहावतों तथा मुहावरों का भरपूर प्रयोग किया करता था। नाच न आवे आंगन टेढ़ा। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। खिसियानी बिल्ली खम्भा नोंचे। अंगूर खट्टे हैं वगैरह मुहावरों की याद है न आपको। 
 
देश में ईवीएम को लेकर कुछ उन खिलाड़ियों ने उछलकूद लगा रखी है, जो खेल नहीं पा रहे हैं। उनकी काठ की हांडी दो-एक बार चढ़कर राख हो चुकी है। अब जनता के सामने अपना काला मुंह छिपाने के लिए मजबूरी में उन्होंने राग ईवीएम छेड़ रखा है। चोर-चोर मौसेरे-भाइयों की तरह ऐसे सारे हारे हुए महारथी एक हो गए हैं। यदि ये हारे हुए धुरंधर देर आए दुरुस्त आए को चरितार्थ करते हुए अभी भी जनता के मत को स्वीकार कर लें तो बुरा नहीं। 
चुनाव आयोग भी कम नहीं है। आयोग ने ताल ठोंककर खुली चुनौती दे दी है कि जिसने अपनी मां का दूध पिया हो वो किसी मशीन में हेराफेरी करके दिखाए और इसके लिए स्वयंवर जैसा कोई आयोजन किया जा रहा है। राजनीति का चीरहरण वगैरह जारी है। देखना है क्या होता है? खोदा पहाड़ निकली चुहिया जैसा ही कुछ होगा या 'जहां आग होती है धुआं वहीं उठता है' की तर्ज पर कुछ गड़बड़ी भी मिलेगी? कुछ गड़बड़ी न मिली तो हम चुनाव आयोग का लोहा मान लेंगे। फिलहाल उठा पटक जारी है। देखें ऊंट किस करवट बैठता है? 

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