कस्तूरी से 'बा' बनने का अर्थ

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डॉ. संध्या भराड़े द्वारा लिखित आत्मकथा शैली में 'कस्तूरबा' नामक पुस्तक प्रकाशित हुई है। प्रथम पुरुष में लिखी गई इस कृति में कस्तूरबा अपनी कहानी स्वयं सुना रही हैं। समय कहानी की माँग के अनुसार वर्तमान और भूत दोनों में साथ-साथ चलता है, जिसके लिए 'फ्लैशबैक' तकनीक का उपयोग किया गया है।

कृति में कस्तूरी की बा बनने तक की कथा है। 13 से 62 वर्ष की आयु तक वे बापू की बड़ी-सी गृहस्थी और महात्मा के बड़प्पन का बोझ उठाते हुए एक सजग प्रहरी के रूप में उनके साथ रहीं। वे भारतीय नारी के त्याग, कर्तव्यनिष्ठा और सहनशीलता की प्रतीक हैं। उनकी अपनी कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी। वे सही मायने में बापू की अर्धांगिनी और एक पतिव्रता स्त्री थीं, क्योंकि 'जेल बापू जाएँ और पी़ड़ा बा झेलें' और 'उपवास बापू करें और प्राण बा के सूखें' रचना में बापू अपने सभी सत्याग्रहों, आंदोलनों और साथियों के साथ बैकग्राउंड में सतत उपस्थित रहते हैं और भारत की आजादी का इतिहास आगे बढ़ता जाता है।

कहानी दक्षिण अफ्रीका के वॉलक्रस्ट शहर की जेल में बा की इस जिद से शुरू होती है कि वे केवल फल ही खाएँगी। पाँचवें दिन वार्डन उन्हें फल देती है। फ्लैशबैक में गुड्डा-गुड्डी खेलने वाली, दादी की लाड़ली, गोकुलदास व्यापारी की बेटी कस्तूरी पोरबंदर पहुँच जाती है। दुबले-पतले मोहन से शादी होती है। वह दीवान परिवार की बहू बन जाती है। मोहन की प्रैक्टिस नहीं चलती, अतः वे अफ्रीका जाते हैं। यहीं से बा का संघर्ष शुरू होता है। डरबन में प्रवेश नहीं मिलता। कारण था बापू का यहाँ के कानून का विरोध। अंत में सरकार वह कानून वापस ले लेती है। बा जेल से घर आती हैं। जोहानसबर्ग में उनका ऑपरेशन होता है। वे दवा में भी शराब और मीट का सूप नहीं लेतीं।

भारत भ्रमण के दौरान बिहार के चम्पारण में बा का बीमारी और गरीबी से साक्षात्कार होता है। वे औरतों को बीमारी से बचाव और सफाई सिखाने जाती हैं, लेकिन वे दरवाजे बंद कर देती हैं। उनके पास पहनने के लिए कपड़े नहीं थे, तभी खादी जीवन में प्रवेश करती है। बापू को जेल होने पर बा मोर्चा संभालती हैं। अँगरेज उनका स्कूल जला देते हैं। कर्मठ बा रातभर काम करके अगले दिन समय से प्रार्थना करवाती हैं।

बहनें डोसवाड़ा और सूरत में लोगों की शराब छुड़वाती हैं। बलसाड़ और बोरसद में बा घायल सत्याग्रहियों का हौसला बढ़ाती हैं। समाजसेवा से राजनीति जीवन में प्रवेश करती है। बा का स्वास्थ्य गिरने लगता है। बहुत पहले हृदय रोग के लक्षण जाहिर हुए थे। नजरबंद बापू के साथ जेल में बा की हालत और बिगड़ती है। उन्हें आगा खाँ पैलेस भेजा जाता है। देश की खबरें उन्हें उदास करती हैं। छाती का दर्द बढ़ता है। 22 फरवरी, 1944 शिवरात्रि के दिन वे बापू की गोद में देह त्याग करती हैं। बापू के हाथों कती सूत की साड़ी में उनका संस्कार होता है। बेटा देवदास फूल लेकर इलाहाबाद जाता है। मातृत्व अमृत्व में समा जाता है।

कृति में कुछ प्रसंग बहुत संवेदनशील बन पड़े हैं। एक हैं बा और बापू के बेटे हरिलाल का, जो बा को एक असफल माँ होने की याद दिलाता है। बा बच्चों को भारत में पढ़ाना चाहती थीं, किंतु बापू ऐसा नहीं करते। हरि बापू से लड़कर भारत आता है। शादी करता है, पत्नी की जल्दी मृत्यु हो जाती है और वह मुसलमान बन जाता है। बा ने बीमारी में भी मीट और शराब नहीं छुई थी। उनके बेटे का ऐसा हश्र उन्हें अंदर तक तोड़ जाता है।

ट्रेन पर वह बा से मिलने आता है। लोग बापू की जय-जय कर रहे थे। 'माता कस्तूरबा की जय' में वह अपनी संपूर्ण भावनाओं को उड़ेल देता है। दूसरा प्रसंग है पोते-पोतियों के आश्रम आने का। बापू बा से, मैनेजर से उनके खाने का बिल माँग लाने को कहते हैं। बा दिन रात जी-जान से आश्रम की व्यवस्था संभालती थीं। बच्चों का पैसा अलग से देने की बात उनके गले नहीं उतरती। वे रोती हुई बिल लेने जाती हैं- 'तब समझ में आ गया कि राजा हरीशचंद्र ने अपने बेटे की दहन क्रिया के लिए पत्नी से साड़ी के आधे टुकड़े का मूल्य कैसे माँगा होगा।' पहले बा के लिए यह एक कथा थी, अब एक अनुभव। बा का चरित्र सशक्त होने के साथ-साथ संवेदनशील भी है।

गाँधीजी को पूरा भारत महात्मा के नाम से पुकारता था। उनके हर कार्य में बा ने पूरा सहयोग दिया है, इसलिए ऐसी शख्सियत को शब्दों के दो पुष्‍प न चढ़ाया जाए तो साहित्य में खालीपन-सा रह जाएगा।

-डॉ. हेमलता दिखि

पुस्तक : कस्तूरबा

मूल्य : 150 रू.

लेखक : डॉ. संध्या भराड़े

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन,

21-ए, दरियागंज,

नई दिल्ली-2

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