Mahabharat 2 May Episode 71-72 : युद्ध क्षेत्र में प्रकट हुईं माता दुर्गा, अर्जुन की दुविधा

अनिरुद्ध जोशी

शनिवार, 2 मई 2020 (20:01 IST)
बीआर चौपड़ा की महाभारत के 2 मई 2020 के सुबह और शाम के 71 और 72वें एपिसोड में अर्जुन करता है माता दुर्गा की आराधना और युद्ध में जब अर्जुन शस्त्र त्याग देता है तब श्रीकृष्ण देते हैं उसे उपदेश।
 
 
दोपहर के एपिसोड की शुरुआत बहुत ही मार्मिक गीत के साथ होती है। अभिमन्यु अपनी पत्नि को पत्र लिखते हैं। जिममें लिखा होता है कि हे प्रियतमे! यह पत्र जब तक तुम्हें मिलेगा जब तक पता नहीं मैं रहूंगा या नहीं रहूंगा। गीत के दौरान सभी योद्धाओं को दिखाया जाता है।
 
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इसके बाद युद्ध शि‍विर में अर्जुन सोचता है अपने अपमान के बारे में। उसकी आंखों के पटल के समक्ष वही दृश्य उसे नजर आते हैं जिसमें दुर्योधन भरी सभा में पांचों पांडवों का अपमान कर रहा है। तभी श्रीकृष्ण वहां पहुंचकर पूछते हैं कि किन विचारों में खोये हुए थे? अर्जुन कहा है कि मैं अपने क्रोध की अग्नि में यादों की लकड़ियां डाल रहा था केशव। कृष्ण कहते हैं कि इस अपमान की अग्नि में दुर्गा मां के आशीर्वाद का घी डालकर इस अग्नि को हवन कुंड की अग्नि बना लो पार्थ।
 
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फिर अर्जुन माता दुर्गा की तपस्या करता है। दुर्गा माता प्रकट होती है और कहती हैं क्यों पुकार रहे तो वत्स? अर्जुन कहता है कि माता मुझे विजयश्री का वरदान दो। तब माता कहती हैं कि तुम्हें इस वरदान की आवश्यकता ही नहीं क्योंकि जहां धर्म होगा, वहीं वासुदेव कृष्ण होंगे और जहां वे होंगे, वहीं विजयश्री भी होगी। यह कहकर माता अदृश्य हो जाती है।
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इधर, भीष्म के शिविर में कृष्ण, पांडव, शिखंडी सहित कई योद्धा पहुंचकर भीष्म को प्राणाम करते हैं। दुर्योधन वहां भी श्रीकृष्ण से कहता है कि धर्म की नहीं बाहुबल की बात करो। श्रीकृष्ण कहते हैं कि बाहुबल की बात तो मुझसे करो ही मत क्योंकि युद्ध में मैं शस्त्र उठाने वाला नहीं हूं। यह सुनकर भीष्म कहते हैं कि तब तो मैं तुमसे शस्त्र उठवाकर ही रहूंगा मधुसूदन। श्रीकृष्ण इस पर मुस्कुरा देते हैं।
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सभी पांडव भीष्म के चरण छूकर उनसे आशीर्वाद लेते हैं। फिर भीष्म कहते हैं कि हे पाडंवों के प्रधान सेनापति धृष्टद्युम्न आपका कौरवों के प्रधान सेनापति भीष्म के शिविर में स्वागत है। आप सभी अपना अपना स्थान ग्रहण करें। तब शिखंडी कहता है कि मैं स्थान ग्रहण करूं गंगा पुत्र? इस पर ‍भीष्म कहते हैं कि यह पुरुषों की सभा है। फिर शिखंडी कहता है कि मैं यह जानता हूं लेकिन आपके दर्शन करने यहां आया हूं। तब भीष्म कहते हैं कि विराजिए।
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यहां सभी मिलकर युद्ध के नियम तय करते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं भीष्म से कि आप ही नियम तय करें। तब भीष्म नियम बताते हैं। धृष्टद्युम्न उसका अनुमोदन करने हैं और कहते हैं कि पांडव पक्ष की ओर से कोई नियम नहीं तोड़ेगा लेकिन आपकी ओर से नियम टूटा तो मैं कोई वचन नहीं देता।
 
अंत में श्रीकृष्ण कर्ण से मिलकर बताते हैं कि महारथी कर्ण तब तक अर्जुन से युद्ध नहीं कर सकते जब तक की भीष्म जिंदा हैं और उनके पास तो इच्छामृत्यु का वरदान हैं। श्रीकृष्ण एक बार फिर उन्हें पांडव पक्ष में आने का कहते हैं लेकिन कर्ण इससे इनकार कर देते हैं।
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शाम के एपिसोड में शुरुआत कुरुक्षेत्र की रणभूमि में योद्धाओं के पहुंचने से होती है। दोनों सेना आपने सामने खड़ी हो जाती है। दुर्योधन रथ से उतरकर अपनी सेना की बढ़ाई करता है। वो कहता है कि हमारी सैन्य शक्ति के सामने ये नगण्य है। भीष्म अकेले ही इस सेना का संहार कर सकते हैं। इसलिए मैं सभी ने निवेदन करता हूं कि पितामह भीष्म की सुरक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया जाए क्योंकि वे इस रणभूमि में कुंती पुत्रों का वध नहीं करेंगे। इसके बाद दोनों पक्ष की ओर से युद्धघोष का शंख बजाया जाता है।
 
इधर, कर्ण यु‍द्ध शिविर में कसमसाकर अपने आप से ही कहता है कि हे गंगा पुत्र भीष्म आपने मेरे साथ अच्छा नहीं किया लेकिन फिर भी आप मेरे वाणों से अर्जुन को नहीं बचा पाएंगे।
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इधर, अर्जुन कहता है कि हे केशव आप मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलें, ताकी मैं दोनों सेनाओं को बराबर की दूरी से देख सकूं। दूसरी ओर भीम कहता है युधिष्ठिर से कि ये अर्जुन कर क्या रहा है? युधिष्ठर कहता है कि चिंता न करो, अर्जुन के सारथी तो श्रीकृष्ण है। अर्जुन का रथ तो भटक ही नहीं सकता है।
 
उधर, दुर्योधन कहता है कि अर्जुन का साहस इतना बढ़ गया है कि वो अकेला ही आगे चला आ रहा है जैसे कि कौरवों की सेना में कोई और योद्धा ही ना हो। भीष्म भी द्रोणाचार्य से कहते हैं कि ये अर्जुन कहां चला आ रहा है? द्रोण कहते हैं कि मुझे तो किसी दुविधा में लगता है।
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सेनाओं के मध्य में जाकर अर्जुन कहता है कि ये दो सेनाएं नहीं दो महासागर है। मध्य में रथ पर खड़े अर्जुन के मन में भीष्म और द्रोण के प्रति मोह उत्पन्न हो जाता है। वहां पहुंचकर श्रीकृष्ण से अर्जुन कहता है कि हे केशव मैं कैसे अपनों को मारूं। मैं अपनों की लाश पर अपना राज्य नहीं खड़ा करना चाहता हूं। तब अर्जुन कहता है कि हे केशव यदि सब कुछ खोकर भी मुझे शांति मिले और मैं कुल के नाश से बच जाऊं तो ये शांति बहुत सस्ती है केशव।
 
तब श्रीकृष्ण उसे धर्म और अधर्म की बात कहकर समझाते हैं कि तुम अब नपुंसक न बनो। अब यदि तुम पीछे हटे तो ये कृत्य तुम्हें स्वर्ग से गिरा देगा और कीर्ति से भी। लेकिन अर्जुन इस युद्ध को करने से इनकार कर देता है। अर्जुन और श्रीकृष्ण के इस संवाद को संजय दूर से ही देख और सुनकर धृतराष्ट्र को बताते हैं। धृतराष्ट्र अर्जुन की बात सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं।
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तब श्रीकृष्ण उसे उपदेश देते हैं। पंडित न तो जन्म लेने वाले पर प्रसन्न होते हैं और न मरने वाले का शोक करते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मूल तत्व तो आत्मा है। मृत्यु तो एक पड़ाव है। श्रीकृष्ण उसे मृत्यु और आत्मा के बारे में बताते हैं। आत्मा को कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं मार सकता। इस तरह श्रीकृष्ण उसे उपदेश देते हैं। 
 
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