अश्वत्थामा महाभारतकाल अर्थात द्वापरयुग में जन्मे थे। उनकी गिनती उस युग के श्रेष्ठ योद्धाओं में होती थी। वे गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र व कुरु वंश के राजगुरु कृपाचार्य के भानजे थे।
अश्वत्थामा महाभारतकाल अर्थात द्वापरयुग में जन्मे थे। उनकी गिनती उस युग के श्रेष्ठ योद्धाओं में होती थी। वे गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र व कुरु वंश के राजगुरु कृपाचार्य के भानजे थे।
द्रोणाचार्य ने ही कौरवों और पांडवों को शस्त्र विद्या में पारंगत बनाया था। महाभारत के युद्ध के समय गुरु द्रोण ने हस्तिनापुर राज्य के प्रति निष्ठा होने के कारण कौरवों का साथ देना उचित समझा।
अश्वत्थामा भी अपने पिता की भाँति शास्त्र व शस्त्र विद्या में निपुण थे। पिता-पुत्र की जोड़ी ने महाभारत के युद्ध के दौरान पांडवों की सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया था। पांडव सेना को हतोत्साहित देख श्रीकृष्ण ने द्रोणाचार्य का वध करने के लिए युधिष्ठिर से कूटनीति का सहारा लेने को कहा।
इस योजना के तहत युद्धभूमि में यह बात फैला दी गई कि अश्वत्थामा मारा गया है। जब द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की मृत्यु की सत्यता जाननी चाही तो युधिष्ठिर ने जवाब दिया कि 'अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा' (अश्वत्थामा मारा गया है, लेकिन मुझे पता नहीं कि वह नर था या हाथी)।
यह सुन गुरु द्रोण पुत्र मोह में शस्त्र त्याग कर किंकर्तव्यविमूढ़ युद्धभमि में बैठ गए और उसी अवसर का लाभ उठाकर पांचाल नरेश द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न ने उनका वध कर दिया।
पिता की मत्यु ने अश्वत्थामा को विचलित कर दिया। महाभारत युद्ध के पश्चात जब अश्वत्थामा ने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए पांडव पुत्रों का वध कर दिया तथा पांडव वंश के समूल नाश के लिए उत्तरा के गर्भ में पल रहे अभिमन्यु पुत्र परीक्षित को मारने के लिए ब्रहास्त्र चलाया, तब भगवान श्री कृष्ण ने परीक्षित की रक्षा कर दंड स्वरुप अश्वत्थामा के माथे पर लगी मणि निकालकर उन्हें तेजहीन कर दिया और युगों-युगों तक भटकते रहने का शाप दिया था।
कहा जाता है कि असीरगढ़ के अलावा मध्यप्रदेश के ही जबलपुर शहर के 'गौरीघाट' (नर्मदा नदी) के किनारे भी अश्वत्थामा भटकते रहते हैं। स्थानीय निवासियों के अनुसार कभी-कभी वे अपने मस्तक के घाव से बहते खून को रोकने के लिए हल्दी और तेल की माँग भी करते हैं।
जन्म का रहस्य : अश्वत्थामा का जन्म भारद्वाज ऋषि के पुत्र द्रोण के यहां हुआ था। उनकी माता ऋषि शरद्वान की पुत्री कृपी थीं। द्रोणाचार्य का गोत्र अंगिरा था। तपस्यारत द्रोण ने पितरों की आज्ञा से संतान प्राप्ति हेतु कृपी से विवाह किया। कृपी भी बड़ी ही धर्मज्ञ, सुशील और तपस्विनी थीं। दोनों ही संपन्न परिवार से थे।
जन्म लेते ही अश्वत्थामा ने उच्चैःश्रवा (अश्व) के समान घोर शब्द किया, जो सभी दिशाओं और व्योम में गुंज उठा। तब आकाशवाणी हुई कि इस विशिष्ट बालक का नाम अश्वत्थामा होगा:-
अलभत गौतमी पुत्रमश्वत्थामानमेव च।
स जात मात्रो व्यनदद् यथैवोच्चैः श्रवा हयः।।47।।
तच्छुत्वान्तर्हितं भूतमन्तरिक्षस्थमब्रवीत्।
अश्वस्येवास्य यत् स्थाम नदतः प्रदिशो गतम्।।48।।
अश्वत्थामैव बाल्तोऽयं तस्मान्नाम्ना भविष्यति।
सुतेन तेन सुप्रीतो भरद्वाजस्ततोऽभवत्।।49।।
बदल गया द्रोण का जीवन : अश्वत्थामा के जन्म के बाद द्रोण की आर्थिक स्थिति गिरती गई। घर में कुछ भी खाने को नहीं बचा। विपन्नता आ गई। इस विपन्नता को दूर करने के लिए द्रोण परशुरामजी से विद्या प्राप्त करने उनके आश्रम गए।
द्रोण आश्रम से लौटे तो घर में गाय तक न थी। अन्य ऋषि कुमारों को दूध पीते देख अश्वत्थामा दूध हेतु रोता था और एक दिन द्रोण ने देखा कि ऋषि कुमार चावल के आटे का घोल बनाकर अश्वत्थामा को पिला चुके हैं और अबोध बालक (अश्वत्थामा) 'मैंने दूध पी लिया' यह कहते हुए आनंदित हो रहा है। यह देख द्रोण स्वयं को धिक्कार उठे।
इससे यह सिद्ध होता है कि अश्वत्थामा ने अपना बचपन जैसे-तैसे खा-पीकर बिताया। उनके लिए घर में पीने को दूध तक नहीं होता था। लेकिन जब वे अपने मित्रों के बीच रहते थे तो झूठ ही कह देते थे कि मैंने तो दूध लिया।
पिता का अपमान : पिता ने जब बालक अश्वत्थामा की यह अवस्था देखी तो उन्होंने खुद को इसका दोषी माना और वे उसके लिए गाय की व्यवस्था हेतु स्थान-स्थान पर घूमकर धर्मयुक्त दान के लिए भटके लेकिन उन्हें कोई भी गाय दान में नहीं मिली। अंत में उन्होंने सोचा कि क्यों न अपने बचपन के मित्र राजा द्रुपद के पास जाया जाए।
वे अपने पुत्र अश्वत्थामा के साथ राजा द्रुपद के दरबार में जा पहुंचे। राजा द्रुपद की राजसभा में पिता की अवमानना बालक अश्वत्थामा ने देखी थी और देखी होगी उनकी विवशता और क्रूर विडंबना कि शस्त्र-शास्त्र के ज्ञाता भी सत्तासीन मदमत्त व्यक्ति द्वारा अपमानित होते हैं। अश्वत्थामा के बाल मन पर उस वक्त क्या गुजरी होगी, जब उनके पिता को वहां से धक्के मारकर निकाल दिया गया।
अश्वत्थामा बने शिक्षक और राजा : अश्वत्थामा को लेकर द्रोण पाञ्चाल राज्य से कुरु राज्य में हस्तिनापुर आ गए और वहां वे कुरु कुमारों को धनुष-बाण की शिक्षा देने लगे। वहां पर वे कृप शास्त्र की शिक्षा देते थे। अश्वत्थामा भी पिता के इस कार्य में मदद करने लगे। वे भी कुरुओं को बाण विद्या सिखाते थे।
बाद में द्रोण कौरवों के आचार्य बन गए। उन्होंने दुर्योधन सहित अर्जुन आदि को शिक्षा दी। आचार्य के प्रति उदारता दिखाते हुए पांडवों ने गुरु दक्षिणा में उनको द्रुपद का राज्य छीनकर दे दिया। बाद में द्रोण ने आधा राज्य द्रुपद को लौटा दिया और आधे को उन्होंने अश्वत्थामा को दे दिया था। उत्तर पाञ्चाल का आधा राज्य लेकर अश्वत्थामा वहां के राजा बन गए और उन्होंने अपने राज्य की राजधानी अहिच्छ्त्र को बनाया।
अब द्रोण भारतभर के सबसे श्रेष्ठ आचार्य थे। कुरु राज्य में उन्हें भीष्म, धृतराष्ट्र, विदुर आदि से पूर्ण सम्मान प्राप्त था, अतः अभावों के दिन विदा हो गए थे।
संपूर्ण विद्याओं में पारंगत अश्वत्थामा : अश्वत्थामा जीवन के संघर्ष की आग में तपकर सोना बना था। महान पिता द्रोणाचार्य से उन्होंने धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया था। द्रोण ने अश्वत्थामा को धनुर्वेद के सारे रहस्य बता दिए थे। सारे दिव्यास्त्र, आग्नेय, वरुणास्त्र, पर्जन्यास्त्र, वायव्यास्त्र, ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र, ब्रह्मशिर आदि सभी उसने सिद्ध कर लिए थे। वह भी द्रोण, भीष्म, परशुराम की कोटि का धनुर्धर बन गया। कृप, अर्जुन व कर्ण भी उससे अधिक श्रेष्ठ नहीं थे। नारायणास्त्र एक ऐसा अस्त्र था
जिसका ज्ञान द्रोण के अलावा माभारत के अन्य किसी योद्धा को नहीं था। यह बहुत ही भयंकर अस्त्र था।
अश्वत्थामा के ब्रह्मतेज, वीरता, धैर्य, तितिक्षा, शस्त्रज्ञान, नीतिज्ञान, बुद्धिमत्ता के विषय में किसी को संदेह नहीं था। दोनों पक्षों के महारथी उसकी शक्ति से परिचित थे। महाभारत काल के सभी प्रमुख व्यक्ति अश्वत्थामा के बल, बुद्धि व शील के प्रशंसक थे।
भीष्मजी रथियों व अतिरथियों की गणना करते हुए राजा दुर्योधन से अश्वत्थामा के बारे में उनकी प्रशंसा करते हैं किंतु वे अश्वत्थामा के दुर्गुण भी बताते हैं। उनके जैसा निर्भीक योद्धा कौरव पक्ष में और कोई नहीं था।