बीआर चौपड़ा की महाभारत के 28 अप्रैल 2020 के सुबह और शाम के 63 और 64वें एपिसोड में दुर्योधन और अर्जुन दोनों ही श्रीकृष्ण से सहायता मांगने के लिए पहुंचते हैं। शाम के एपिसोड में भगवान श्रीकृष्ण शांतिदूत बनकर हस्तिनापुर जाते हैं।
सुबह के एपिसोड में संजय राजदरबार में युधिष्ठिर का संदेश सुनाते हैं, जिसमें वे अर्जुन और भीम की धमकी का भी उल्लेख करते हैं। यह सुनकर दुर्योधन और कर्ण भड़क जाते हैं। भीष्म महाराज धृतराष्ट्र और सभी कौरवों को समझाकर कहते हैं कि उनका इंद्रप्रस्थ उन्हें लौटा दीजिए वर्ना भयंकर युद्ध होगा। द्रोणाचार्य भी समझाते हैं।
बाद में कर्ण, शकुनि, और दुर्योधन युद्ध के संबंध में चर्चा करते हैं। इस बीच शकुनि कहते हैं कि तुम स्वयं जाकर वसुदेव से युद्ध में उनकी सहायता के लिए प्रार्थना करो। दुर्योधन को शकुनि समझाता है कि श्रीकृष्ण के बगैर हम यह युद्ध नहीं जीत सकते, क्योंकि उनके पास बहुत ही शक्तिशाली सेना है।
दुर्योधन सहायता मांगने के लिए श्रीकृष्ण के यहां पहुंच जाते हैं लेकिन वे उस समय सोए हुए रहते हैं तो दुर्योधन उनके सिरहाने उनके जागने का इंतजार करने के लिए बैठ जाते हैं, तभी अर्जुन भी वहां पहुंच जाते हैं और वे श्रीकृष्ण के चरणों के पास खड़े हो जाते हैं।
जब श्रीकृष्ण की आंखें खुलती हैं तो वे सबसे पहले अर्जुन को देखते हैं और पूछते हैं कि अरे पार्थ, तुम कब आए? ऐसा पूछते ही दुर्योधन कहता है कि पहले मैं आया हूं। तब श्रीकृष्ण गर्दन घुमाकर कहते हैं कि अच्छा तो आप भी आए हैं, किंतु मैंने तो पहले पार्थ ही को देखा। तब अर्जुन कहते हैं कि नहीं वसुदेव ये मुझसे पहले के आए हुए हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि तो फिर मैं पहले इन्हीं से पूछता हूं कि द्वारिका आने का कष्ट कैसे किया?
तब दुर्योधन कहता है कि यह सूचना तो आपको मिल ही गई होगी कि हमारा और पांडवों का युद्ध निश्चित है तो आपको हमारी सहायता करना होगी।
तब श्रीकृष्ण पूछते हैं कि ऐसा क्यूं? दुर्योधन कहता है कि ऐसा इसलिए क्योंकि अर्जुन की भांति ही मैं भी आपका मित्र हूं और हम दोनों के संबंध भी अर्जुन की भांति ही हैं और इसलिए भी कि पहले मैं सहायता मांगने के लिए आया हूं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह सही है कि पहले आप ही आए हैं लेकिन पहले मैंने अर्जुन को देखा है तो मुझे तो अब आप दोनों की ही सहायता करना होगी। तब दुर्योधन कहता है कि किंतु आप दोनों ही ओर से कैसे युद्ध कर सकते हैं? तो इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि युद्ध करने की तो मैंने बात ही नहीं की। मैंने तो बस इतना कहा कि मुझे आप दोनों की सहायता करना होगी। अब एक ओर मेरी नारायणी सेना और दूसरी ओर मैं। केवल मैं निहत्था। और रणभूमि में शस्त्र भी नहीं उठाऊंगा। अब रहा प्रश्न ये कि पहले मांगने का अधिकार किसे है? यह सुनकर दुर्योधन करता है कि मुझे है।
लेकिन कृष्ण कहते हैं कि पहले मांगने का अधिकार पार्थ को है क्योंकि यह आपका अनुज है। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि तो बताओ पार्थ नारायणी सेना लोगे या मुझे? तब अर्जुन कहता है कि मैं नारायणी सेना से सहायता मांगने नहीं आया था वसुदेव। मुझे तो आपसे सहायता चाहिए। मुझे नारायणी सेना नहीं चाहिए। यह सुनकर दुर्योधन मन ही मन खुश हो जाता है और कहता है कि तो ठीक है मैं ही नारायणी सेना ले लेता हूं। मैं अनुज को निराश नहीं करता चाहता हूं। दुर्योधन यह कहकर वहां से चला जाता है। तब अर्जुन से श्रीकृष्ण पूछते हैं कि तुमने नारायणी सेना क्यों नहीं मांगी? तब अर्जुन कहते हैं कि मुझे तो आप जैसा सारथी मित्र चाहिए। मुझे नारायणी सेना नहीं, नारायण चाहिए।
दुर्योधन हस्तिनापुर पहुंचकर इस खुशी को शकुनि को सुनाता है कि किस तरह मुझे नारायणी सेना मिल गई। लेकिन शकुनि उसे समझाता है कि तुमने बहुत बड़ी गलती कर दी।...इसी एपिसोड में श्रीकृष्ण पांडवों सहित मत्स्य देश के राजा विराट, राजा द्रुपद आदि सभी से हस्तिनापुर में शांतिदूत बनकर जाने का कहते हैं।
शाम के एपिसोड में द्रोणाचार्य और भीष्म के बीच चर्चा होती है। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण और शिखंडी के बीच युद्ध को लेकर चर्चा होती है। इसके बाद विदुर और भीष्म के बीच श्रीकृष्ण के शांतिदूत बनकर आने को लेकर चर्चा होती है। बाद में धृतराष्ट्र और दुर्योधन को भीष्म और विदुर समझाते हैं कि श्रीकृष्ण जब आएं तो हमें कैसा व्यवहार करना है। यह युद्ध को टालने का अंतिम अवसर है। वे श्रीकृष्ण के भव्य स्वागत की चर्चा करते हैं, लेकिन दुर्योधन श्रीकृष्ण को बंदी बनाने की बात करता है। भीष्म इस संबंध में चेतावनी देते हैं।
श्रीकृष्ण का हस्तिनापुर में भव्य स्वागत होता है। बाद में उनके भोजन और ठहरने की बात होती है तो दुर्योधन कहता है कि मेरे यहां भोजन करेंगे और दु:शासन के यहां ठहरेंगे। श्रीकृष्ण कहते हैं कि भोजन केवल दो स्थान पर किया जाता है या तो अपने मित्र के यहां या आतिथेय के यहां। इसलिए मैं महात्मा विदुरजी के यहां जाऊंगा। वहां कुंती बुआ भी हैं।
दुर्योधन को यह बात चुभ जाती है। श्रीकृष्ण शांतिदूत बनकर कौरवों के समक्ष धर्म और अधर्म की बात करते हैं। दुर्योधन फिर से उनके समक्ष भोजन करने का प्रस्ताव रखता है लेकिन श्रीकृष्ण उसे धर्म की बात बताकर उसका प्रस्ताव ठुकरा कर चले जाते हैं, जिससे दुर्योधन क्रोधित होकर कहता है कि यह ग्वाला अपने आपको समझता क्या है। यदि कल इसने राजसभा में धृष्टता की तो वहीं इसे बंदी बना लूंगा।
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