जिन ब्रह्मा, विष्णु, महेश या रामकृष्णादि के आख्यानों को हम सामान्यतः पुराण या मिथक जानते-समझते हैं, वे दरअसल सृष्टि, प्रकृति अथवा मानव-जीवन से जुड़े आधारभूत नियम तथा सत्य हैं।
इन्हें हमारे पूर्वजों ने गंभीर निरीक्षण से अर्जित किया था और बहुधा कूट-जटिल, घुमावदार, अलंकृत या प्रतीकात्मक भाषा-पद्धति में इसलिए व्यक्त किया था ताकि वे सामूहिक अवचेतन में अटके रहें। समय का लंबा अंतराल बीत जाने पर भी मनुष्य के लिए उनके मूल संदेश अथवा आशय को ग्रहण करना संभव हो जाए।
ऐसा ही एक मिथक बीसवी शताब्दी में-आज से अस्सी पचासी साल पहले - 'सत्य के प्रयोग' अथवा 'आत्मकथा' के नाम से मोहनदास करमचंद गांधी (1869-1948) ने- सत्य, अहिंसा, ईश्वर का मर्म समझने-समझाने के विचार से किया था। उसका प्रकाशन भले ही 1925 में हुआ पर उसमें निहित बुनियादी सिद्धांतों पर वे अपने बचपन से चलने की कोशिश करते आए थे।
बेशक इस क्रम में मांसाहार, बीड़ी पीने, चोरी करने, विषयासक्त रहना जैसी कई आरंभिक भूलें भी उनसे हुईं और बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए विदेश जाने पर भी अनेक भ्रमों-आकर्षणों ने उन्हें जब-तब घेरा लेकिन अपने पारिवारिक संस्कारों, माता-पिता के प्रति अनन्य भक्ति, सत्य, अहिंसा तथा ईश्वर साध्य बनाने के कारण, गांधीजी उन संकटों से उबरते रहे।
उनकी पुस्तक से अधिक उदाहरण देना जरूरी नहीं है। उसके प्रकाशन के काफी पहले से वे न केवल महात्मा मान लिए गए थे बल्कि एक अवतारी, चमत्कारी, मिथकीय अस्तित्व की भांति जनमानस में प्रतिष्ठित भी हो गए थे। इसके दो-एक उदाहरण देना भारतीय जनमानस पर उनकी छाप का आभास देने के लिए जरूरी होगा।
जब मैं बिलकुल छोटा था और शिक्षा-सभ्यता-समाचार से काफी दूर एक पिछड़े गांव में रहता था, शहर से आए किसी हमउम्र बच्चे ने मुझे यह बता कर हैरत में डाल दिया कि अंग्रेज सरकार अपनी हरचंद कोशिश के बावजूद महात्मा गांधी को जेल की दीवारों में बंद नहीं रख पाती। उसके कारिंदे मुंह बाए देखते रह जाते हैं और हथकड़ी-बेड़ी अपने आप खुल जाती हैं और गांधी जी हंसते-बोलते जेल से बाहर निकल जाते हैं।
इस कहानी को मेरे शिशुमन ने कंस के कारागार से छूट निकले बालकृष्ण की छवि से कुछ इस रूप में जोड़ दिया कि जन आंदोलनों का दमन करने में असमर्थ गोरे शासकों की असहायता जान-बूझ सकने वाली उम्र होने पर भी महात्मा गांधी के अलौकिकत्व का विश्वास सबकी तरह मेरे भी मन में कुछ-न-कुछ बना ही रहा।
इसी तरह, एक बार किसी पत्रिका में गांधीजी के चित्र के नीचे छपी ये दो पंक्तियां पढ़ीं, 'चल पड़े जिधर दो डग मग में, चल पड़े कोटि पग उसी ओर।' पढ़ते समय तो उस बांसुरी वादक की याद आई, जिसे गांव भर के चूहों का सफाया कर देने का मेहनताना जब नहीं मिला तो उसके पास यही उपाय बचा था कि एक बार फिर अपनी बंसरी बजाए और गांव के सारे बच्चे इसके पीछे-पीछे चल पड़ें। इस आर्की टाइपल इमेज यानी आद्य रूपात्मक बिंब से डांडी मार्च का सीधा रिश्ता बच्चे ही क्यों, तमाम बड़े-बुजुर्ग भी जोड़ सके थे।
उन्हीं दिनों जनमन को प्रतिध्वनित करनेवाला यह लोकगीत भी सर्वत्र गूंजा था- 'काहे पे आवें बीर जवाहर, काहे पे गांधी महराज? काहे पे आवें भारत माता, काहे पे आवे सुराज?'
लोक चित्त ने ही इसका उत्तर भी दिया था- 'घोड़े पे आवें बीर जवाहर, पैदल गांधी महराज। हाथी पे आवें भारत माता डोली पे आवे सुराज।'
इस लोक गीत में देश का वह सामूहिक अवचेतन व्यक्त हुआ है जिसने पारंपरिक रूप से एक ओर यदि राजा को सम्मान दिया था तो दूसरी ओर ऋषि, संत या फकीर को उससे भी बड़े सम्मान का अधिकारी माना। भारत माता और सुराज की गरिमा समझने में भी उससे चूक नहीं हुई।
सुराजी आंदोलन के उस युग में तो भारत गांधीमय था ही- कविता, कला, रंगमंच, फिल्म, संगीत, आराधना- जीवन का कोई भी क्षेत्र गांधी की छाप से अछूता न रहा। यही नहीं बाद के वर्षों में भी, बहुधा विचलन या भटकन के बावजूद गांधी की उपस्थिति किसी-न-किसी रूप में बनी रही।
कहा जा सकता है कि गांधी जैसे महात्मा का उदय तथा विकास भारत जैसे देश में ही संभव था, वहीं यह मानने में भी क्या शर्म कि सदियों से नंगे-भूखे-निरक्षर रहे दरिद्र जन आजादी मिलने के बाद संभव हुई रोजी-रोटी या हलवा-पूड़ी पर भुखमरों जैसे टूट पड़े तो भी दिखावे और भ्रष्टाचार के प्रति देश की आंतरिक अरुचि यही सिद्ध करती है कि आज और आगे भी गांधी भारत तथा विश्व के लिए प्रामाणिक- प्रासंगिक रहेंगे ।
कविवर पंत ने लिखा था, 'ईश्वर को मरने दो, मरने दो, मरने दो, वह फिर से जी उट्ठेगा'। उनके स्वर में स्वर मिलाकर हम भारतवासी कह सकते हैं कि 'गांधी नहीं रहे, पर गांधी फिर-फिर होंगे।' या कि 'एक गांधी गए, अनेक गांधी आए और वे आगे भी आएंगे।' भले ही नाम बदलकर- पर काम उनका वही होगा- सत्य, अहिंसा और ईश्वर के बीच एकरूपता की खोज।
मिथक इसी तरह बनते हैं- किन्हीं आदर्शों को अपना कर उनके सांचे में अपने जीवन को पूरी तरह ढाल देना। ऐसे व्यक्ति का भौतिक अंत हो तो हो, उसका आध्यात्मिक पुनरोदय-विचार का बनना, मिटना और फिर-फिर संचित- संगठित होना अवश्यंभावी है।