वेदों में अहिंसा के सूत्र मिलते हैं। कई अन्य अहिंसक लोग भी हुए हैं। अहिंसा पर प्रवचन देने वाले भी अनेक हैं, लेकिन महावीर स्वामी सबसे अलग हैं और उनकी अहिंसा की धारणा भी कहीं ज्यादा संवेदनशील है। संसार के प्रथम और अंतिम व्यक्ति हैं भगवान महावीर, जिन्होंने अहिंसा को बहुत ही गहरे अर्थों में समझा और जिया। आओ जानते हैं मेरी नजर में 4 खास बातें।
1. धर्म मंगल है : सबके मंगल के साथ हमारा अमंगल न हो, यही धर्म है। इसीलिए कहते हैं कि धर्म मंगल है। कौन-सा धर्म? जो न दूसरों पर और न ही स्वयं पर हिंसा होने दे, वही अहिंसक धर्म ही मंगल है। महावीर दुनिया के पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो अहिंसा के रास्ते पर चलकर अरिहंत हुए। महावीर की अहिंसा को समझना आसान नहीं है। अहिंसकों में वे इस तरह हैं जैसे कि पर्वतों में हिमालय और समुद्रों में प्रशांत महासागर।
2. त्याग होने में अहिंसा : त्याग करने में हिंसा है लेकिन त्याग होने में नहीं। अर्थात 'छोड़ने' और 'छूट जाने' के फर्क को समझें। भगवान महावीर ने अपने जीवन में कभी कुछ नहीं छोड़ा, जबकि उनसे सब कुछ छूट गया। अन्न-जल को छोड़ा नहीं, जबकि वे स्वयं में इतने आनंदित रहते थे कि उन्हें ध्यान ही नहीं रहता था कि कुछ खाना है और कुछ पहनना है।
अन्न-जल का त्याग करके शरीर को कष्ट देना भी तो हिंसा है। महावीर स्वामी ने अपने शरीर को कभी कष्ट नहीं दिया। कहते हैं कि एक दिन जंगल से गुजरते समय रास्ते की कंटीली झाड़ी में उनका वस्त्र उलझ गया और वह शरीर से सरककर छूट गया। शरीर ने भी इस बात की उन्हें स्वीकृति दे दी थी कि अब आप मुझे बगैर कपड़े के भी रख सकते हैं।
3. घर नहीं छोड़ा जबरदस्ती : कहते हैं कि पूर्ण वैराग्य का भाव उपजने के कारण उन्होंने मां से कहा- 'माते मुझे संन्यस्त होना है, अब मैं जंगल जाना चाहता हूं, आपकी आज्ञा हो तो जाऊं। मां ने कहा- 'पागल हो क्या? ये कोई उम्र है संन्यास की। नहीं जाना।'
महावीर मौन रह गए। उनका घर में रहना, नहीं रहने जैसा ही था। दो वर्ष बाद मां ने कहा- 'लगता है कि मैंने तुम्हें मना करके कष्ट दिया है। चाहो तो तुम जा सकते हो। महावीर फिर भी मौन रह गए, क्योंकि यदि वे यह कहते कि 'हां' तो मां को यह जानकर कष्ट होता कि मैंने अपने बेटे को कष्ट दिया। सौ महायुद्ध के पाप से बढ़कर है मां को कष्ट देना। महावीर ऐसा अपराध नहीं कर सकते थे। और यदि वे कहते 'नहीं कष्ट नहीं दिया' तो इससे यह सिद्ध होता कि दो वर्ष तक उन्होंने स्वयं को कष्ट दिया।
ऐसे में वे मौन रह गए। फिर माता-पिता के देहांत के बाद बड़े भाई नंदिवर्धन के अनुरोध पर वे दो बरस तक घर पर रहे। बाद में सभी की राजी-खुशी से तीस बरस की उम्र में श्रमण परंपरा में श्रामणी दीक्षा ले ली।
4. हिंसा का प्रतिलोम नहीं अहिंसा : भगवान महावीर की अहिंसा हिंसा का प्रतिलोम नहीं है। हिंसा का प्रतिलोम होता है। यह वीरों की अहिंसा है। एक समय वर्धमान उज्जयिनी नगरी के अतिमुक्तक नामक शमशान में ध्यान में विराजमान थे। उन्हें देखकर महादेव नामक रूद्र ने अपनी उनके धैर्य और तप की परीक्षा ली। उसने रात्रि के समय ऐसे अनेक बड़े-बड़े वेतालों का रूप बनाकर भयंकर ध्वनि उत्पन्न किया लेकिन वह भगवान् को ध्यान से नहीं भटका पाया तब अन्त में उसने भगवान् का महति महावीर यह नाम रखकर अनेक प्रकार की स्तुति की। महावीर स्वामी का सिद्धांत यह नहीं है कि कोई आपको थप्पड़ मारे तो आप दूसरा गाल उसके सामन कर दो।
दरअसल महावीर स्वामी की अहिंसा के जानकार कहते हैं कि यदि कोई आपको थप्पड़ मार रहा है तो निश्चित ही वह आपसे किसी न किसी रूप में परेशान है। मतलब आपने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिंसा की तभी तो उसे थप्पड़ मारने पर मजूबर होना पड़ा।