Swami Mukundananda Interview : स्वामी मुकुंदानंदजी पिछले 20 वर्षों से जीवन परिवर्तन कर देने वाले अद्भुत प्रवचन दे रहे हैं। हमारा सौभाग्य है कि स्वामीजी 'वेबदुनिया' में पधारे और हमने उनसे जीवन बदल देने वाले कुछ सवाल पूछे। तो आइये मिलते हैं स्वामी मुकुंदानंदजी से।
वेबदुनिया : कोरोना काल में और उसके बाद भी लोग भय और असुरक्षा की भावना में जी रहे हैं। कई लोगों ने अपनों को खोया है और वे इस दुख और भय से अभी तक बाहर नहीं निकले हैं। ऐसे लोगों को आप क्या सलाह देना चाहेंगे?
स्वामी मुकुंदानंद : दुख जीवन का अकाट्य सत्य है। इससे कोई अपनी आंखों को बंद करके जीना चाहे तो अपने को धोखा दे रहा। यहां पर तो बीमारी का दुख है। विपत्तियां अनेक प्रकार से आती हैं तो उनका दुख है। बुढ़ापा आता है, यह भी दुखमय होता है और अंत में मृत्यु आती है। वो तो दर्दनाक होती ही है। तो इसलिए इस संसार को 'दुक्खायलम अश्वाश्वतम' बताया गया है कि भई ये तो दु:खमय है ही।
अब व्यक्ति उस दु:ख को भुलाकर अपना जीवन जीना चाहता है, तो वह एक प्रकार से स्वप्न में जीता है। वह वास्तविकता को भुलाकर जीता है। सोचता है बस केवल खुशी मिलेगी और कोई गम नहीं मिलेगा। और जब गम मिलता है तो टूट जाता है कि ये क्या हुआ? तो उसके बजाय अब कोई तो चाहता नहीं कि कठिनाई आए। लेकिन अगर कठिनाई आती है तो उसका हम उपयोग करें। उसको एक सीढ़ी बनाएं और ऊपर चढ़ जाएं तो हम पाएंगे कि दु:ख से हमको बहुत सारी शिक्षाएं मिलती हैं।
हम जो ऐसे संसार के भोग और ऐश्वर्य की ओर भागते चले जा रहे थे तो दु:ख से हम दार्शनिक बन जाते हैं कि भई जीवन का रहस्य क्या है? मैं यहां आया ही क्यूं हूं? यह संसार बना ही क्यों? ये जो जीवन के बड़े-बड़े प्रश्न हैं, उनकी ओर हमारी हमारी बुद्धि जाती है और उससे अपने जीवन में और गहराई आ जाती है। तो इसलिए दु:ख का अगर हम उपयोग करें तो हमको बहुत ऊपर पहुंचा सकता है।
इसीलिए तो कबीर जी ने लिखा है- 'सुख के माथे सिल परो, नाम हृदय से जाये/ बलिहारी उस दुःख की, कि पल- पल नाम रटाये।'
सुख जो था, उसको तो भोग लिया लेकिन वो दु:ख जो आया तो उसका सामना करने में मुझे भीतर से विकास करना पड़ा। मुझे ऐसे प्रश्नों का उत्तर खोजना पड़ा जिन पर मैंने कभी ध्यान नहीं दिया था। मेरे मन में जो निगेटिव हो रहा था, मुझे उससे युद्ध करना पड़ा और इन सब में कठिनाई तो हुई लेकिन परिणामस्वरूप मैं भीतर से एक श्रेष्ठ मनुष्य बन गया।
तो अगर जीवन में हम ये लक्ष्य रखें कि मेरे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है आंतरिक विकास, तो यदि कभी ये संसार या भगवान हमें कष्ट देते हैं तो हम उससे घबराएंगे नहीं। कहते हैं, ठीक है भगवान आपकी जैसी इच्छा, आप करें। हम अपना कर्तव्य करते जाएंगे विश्वास के साथ।
एक दृष्टांत से समझिए। एक लकड़ी गई एक मूर्तिकार के पास और उसने कहा कि मुझे सुंदर बना दो। मूर्तिकार ने कहा कि मैं तो तैयार हूं, तुम तैयार हो? लकड़ी ने कहा बिलकुल। तो मूर्तिकार ने औजार लिए और ठोकाठाकी शुरू कर दी।
लकड़ी ने कहा कि अरे रोको-रोको, इतना कष्ट हो रहा है। इतने निष्ठुर हो? मूर्तिकार ने कहा कि अगर सुंदर बनना है तो कष्ट को सहन करना ही पड़ेगा। तो लकड़ी ने कहा कि अच्छा-अच्छा, करो लेकिन प्रतिदिन थोड़ा करो, ज्यादा मत करना। अब मूर्तिकार को अनुमति मिली और वह फिर से शुरू हो गया और लकड़ी चीखती हुई चिल्लाती गई। मूर्तिकार अपना काम करता गया। एक दिन वह सुंदर-सी मूर्ति बन गई और उसको मंदिर में स्थापित कर दिया गया।
तो सुंदर बनने का एक कष्ट होता है। भई ऐसा कष्ट सहन करोगे तब सुंदरता आएगी। अब हम सबको भगवान भीतर से सुंदर बनाना चाहता है और हम लोग बाहर की सुंदरता पर फोकस करते हैं। बाहर से हम और श्रृंगार करें, बड़ा घर लाएं और बड़ी गाड़ी हो। भगवान कहते हैं कि इस सबकी क्या वैल्यू है? एक दिन तुमको ये सब छोड़ना ही पड़ेगा।
तुम भीतर से कितना सुंदर बने, यही तुम्हारी असली कमाई है, जो मृत्यु के बाद तुम्हारे साथ जाएगी। तो उस सुंदरता में कभी वो विधाता हमें सुख देते हैं और कभी कष्ट देते हैं। हमें विश्वास रखना चाहिए। ये जीवन में विश्वास भी एक बहुत बड़ी बात है। तो विश्वास कर लेता है कि भाई मुझे पता नहीं ये सब क्यों हुआ?
लेकिन मेरी श्रद्धा है कि भगवान ने जो किया, उसका कोई मास्टर प्लान है। अब इस विश्वास से वो फिर भय से भी मुक्त हो जाता है। मैंने अपना जीवन उनके हाथ में सौंप दिया है। मेरे हाथ में जितना है, उतना करूंगा और बाकी वो जैसा चाहेंगे, मैं उसे स्वीकार करूंगा। 'जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये।' तो फिर वह भय भी समाप्त हो जाएगा।