पांच राज्यों में कांग्रेस की ही अग्निपरीक्षा है

ललि‍त गर्ग
चुनाव आयोग ने 5 राज्यों में विधानसभा चुनावों की तारीखें घोषित कर दीं, लेकिन एक हद तक मिजोरम और राजस्थान को छोड़ दें तो कहीं भी यह साफ नहीं है कि लड़ाई का स्वरूप क्या होगा? फिर भी ये चुनाव केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के लिए काफी महत्वपूर्ण होने वाले हैं। इन्हीं चुनावों के परिणाम से आगामी आम चुनाव की तस्वीर भी काफी-कुछ स्पष्ट होने वाली है, क्योंकि ये चुनाव अगले आम चुनाव का माहौल बनाने में अहम भूमिका निभाएंगे। इन चुनावों को एक तरह से अगले आम चुनावों का सेमीफाइनल माना जा रहा है।
 
मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम इन 5 विधानसभा चुनावों में 3 प्रमुख प्रांत हैं जिनमें मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा ने लगातार पिछले चुनाव जीते हैं। मध्यप्रदेश में शिवराजसिंह चौहान 14 वर्षों से मुख्यमंत्री हैं और छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह लगातार 2003 से मुख्यमंत्री हैं। इन 5 राज्यों में से सिर्फ मिजोरम में कांग्रेस की सरकार है।
 
आंध्रप्रदेश के विभाजन के बाद बने तेलंगाना में दूसरी बार विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। मिजोरम में मुख्य लड़ाई कांग्रेस और मिजो नेशनल फ्रंट की अगुआई वाले मिजोरम डेमोक्रेटिक अलायंस के बीच है जबकि राजस्थान में सीधी लड़ाई बीजेपी और कांग्रेस के बीच होनी है। राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया मुख्यमंत्री हैं, लेकिन वहां उन्हें कड़े संघर्ष का सामना करना पड़ रहा है।

 
छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के चुनावों को सबसे ज्यादा दिलचस्पी से देखा जाएगा, दोनों ही प्रांतों में भाजपा को कांटे की टक्कर झेलनी पड़ सकती है। छत्तीसगढ़ में यह पहला मौका है, जब बीजेपी और कांग्रेस के अलावा कोई तीसरा पक्ष भी मैदान में है। अजित जोगी की पार्टी जनता कांग्रेस ने बीएसपी से गठबंधन किया है। यह पार्टी पहली बार ही विधानसभा चुनाव का सामना कर रही है इसलिए इसके वास्तविक प्रभाव के बारे में अभी से कुछ कहना मुश्किल है।

 
बीएसपी की ताकत यहां सीमित ही है, लेकिन उसकी बातचीत पहले कांग्रेस से चल रही थी। इन दोनों पार्टियों का साथ आना कांग्रेस के लिए झटका तो है, पर यह गठबंधन चुनाव नतीजों को किस हद तक प्रभावित करेगा, इस बारे में फिलहाल अटकलें ही लगाई जा सकती हैं। इन पांचों ही राज्यों में कांग्रेस की स्थिति मजबूत हो सकती है, लेकिन सशक्त केंद्रीय नेतृत्व के अभाव में मतदाता कौनसी करवट लेगा, कहा नहीं जा सकता।

 
कांग्रेस भाजपा शासित राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्ता विरोधी रुझान का फायदा उठाने की पुरजोर कोशिश में है। अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस अगर इन तीनों बड़े राज्यों में कामयाब होती है, तो वह भाजपा की अजेय छवि पर गहरा प्रहार होगा। इन तीनों राज्यों में भाजपा को कांग्रेस से गंभीर चुनौती मिलने के आसार दिख रहे हैं। यही वजह है कि इन चुनावों को 2019 के चुनावी महासमर का सेमीफाइनल जा माना रहा है।

 
इन पांचों ही राज्यों में अपने अलग-अलग चुनावी मुद्दे हैं लेकिन इन मुद्दों में अब केंद्रीय मुद्दे भी जगह बना रहे हैं। लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनावों में लोगों की राय अलग-अलग रहती आई है। ऐसा जनता पार्टी की सरकार के समय, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के शासनकाल में देखने को मिल चुका है। लेकिन इस बार एक तरफ बिजली, पानी, सड़क, महंगाई, बेरोजगारी जैसे बुनियादी मुद्दों के साथ-साथ रुपए की गिरती कीमत, पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम, अर्थव्यवस्था की धीमी गति, सांप्रदायिक-धार्मिकता के मुद्दे भी अहम हो चुके हैं।

 
राज्यस्तरीय घोटालों के मुद्दे भी अहम बन रहे हैं। राजनीतिक दलों की चादर इतनी मैली है कि लोगों ने उसका रंग ही काला मान लिया है। अगर कहीं कोई 1 प्रतिशत ईमानदारी दिखती है तो आश्चर्य होता है कि यह कौन है? पर हल्दी की 1 गांठ लेकर थोक व्यापार नहीं किया जा सकता है। भ्रष्टाचार, राजनीतिक अपराधीकरण क्यों नहीं सशक्त चुनावी मुद्दे बनते?
 
इस बार के विधानसभा चुनावों में देखने को मिल रहा है कि राजनीतिक दल धार्मिक प्रतीकों का सहारा भी पहले की तुलना में कहीं अधिक लेने लगे हैं। शायद भाजपा को शिकस्त देने के लिए हिन्दुत्व का मुद्दा भी प्रमुखता से उछल रहा है। यही कारण है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को कभी शिवभक्त, कभी नर्मदा भक्त के रूप में पेश किया जा रहा है। राहुल गांधी राज्यस्तरीय मुद्दों को अपने भाषणों में बहुत कम छूते हैं बल्कि उनका सारा जोर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर प्रहार करने का रहता है। एक तरह से ये चुनाव नरेन्द्र मोदी को पछाड़ने की ही सारी जद्दोजहद दिखाई दे रहे हैं। यह विडंबना ही है कि हर दल एक बड़ी रेखा को मिटाने की बात तो करता है, लेकिन एक बड़ी रेखा खींचने का प्रयास कोई नहीं कर रहा है।

 
भाजपा अपनी अजेय छवि को बरकरार रखने के लिए पूरा प्रचार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर ही केंद्रित रखने की योजना बना रहा है। सत्ताविरोधी लहर से निबटने के लिए इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों को किनारे ही रखा जा सकता है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इसी रणनीति पर काम कर रहे हैं। दूसरी ओर कांग्रेस अपनी और अपने अध्यक्ष राहुल गांधी की स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए हरसंभव प्रयास करती हुई दिख रही है। कांग्रेस के लिए यह अग्निपरीक्षा का दौर है कि वह इन चुनावों में कैसा प्रदर्शन करती है। अगर कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन करती है, तो अगले लोकसभा चुनावों में महागठबंधन की दिशा तय होगी और तभी नरेन्द्र मोदीरूपी किले को ध्वस्त करने की बात सोची जा सकती है।

 
नरेन्द्र मोदी एक करिश्मा है और वह आज भी बरकरार है। जब तक प्रधानमंत्री की छवि को प्रभावित नहीं किया जाता तब तक भाजपा को हराने की बात सोचना ही नासमझी होगी। अनेक विरोधी आंधियों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिगत छवि पर कोई आंच नहीं आई है बल्कि देशवासी उन पर पूरा भरोसा कर रहे हैं।
 
कांग्रेस के जीतने की स्थिति में राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ेगी और क्षेत्रीय दलों का दबाव कम होगा। लेकिन यह दिवास्वप्न जैसा प्रतीत हो रहा है। विपक्ष के गठबंधन में कांग्रेस की भागीदारी कितनी होगी, इसका अनुमान भी 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में हो जाएगा। अगर कांग्रेस कमजोर साबित हुई तो उसे क्षेत्रीय दलों के आगे अपनी शर्तें मनवाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा।

 
कांग्रेस को आज जैसा केंद्रीय नेतृत्व चाहिए, वह उसे नहीं मिल पा रहा है, शायद यही कारण है कि जनता चाहकर भी उसे स्वीकार नहीं कर पा रही है। 'वंश परंपरा की सत्ता' से लड़कर मुक्त हुई जनता इतनी जल्दी उसे कैसे भूल सकती है? कुछ मायनों में यह अच्छा है कि राजनीति में वंश की परंपरा का महत्व घटता जा रहा है, अस्वीकार किया जा रहा है। इससे कुछ लोगों को दिक्कत होगी, जो परिवार की भूमिका को भुनाना चाहते हैं। लेकिन लोकतंत्र की सेहत के लिए अच्छा ही होगा। जनता अब जान गई है कि राजा अब किसी के 'पेट' से नहीं, 'मतपेटी' से निकलता है।

 
नरेन्द्र मोदी अपने या भाजपा के पक्ष में जिस तरह के तथ्य प्रस्तुत करते हैं, उनका जवाब न कांग्रेस के पास है और न अन्य दलों के पास। कांग्रेस पर निशाना साधते हुए मोदी ने कहा- 'वे नामदार हैं, हम कामदार हैं। उनका मकसद एक परिवार का कल्याण है, हमारा लक्ष्य राष्ट्र निर्माण है। बीजेपी विरोधी दलों की कमजोरी पर नहीं बल्कि सवा सौ करोड़ लोगों की ताकत पर चलती है।'
 
यह विश्वास, यह दृढ़ता एवं यह दिशा भाजपा के सामने खड़े किए जा रहे धुंधलकों को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। भले ही भारतीय राजनीति का इतिहास रहा है कि आम चुनावों में कोई एक पार्टी जीतकर सत्तारूढ़ हो जाती है लेकिन उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में विपक्ष की सरकारें बनती रही हैं। इस बार ऊंट किस करवट बैठेगा, यह भविष्य के गर्भ में है। 

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