Atal Bihari Vajpayee: वह कैसा था भक्त-स्वयं भगवान बन गया

भारतीय जनचेतना के शिखर पुरुष, राजनैतिक शुचिता एवं जन-गण की प्रखर आवाज राष्ट्रधर्म के संवाहक श्रध्देय अटल जी हमारे बीच आज भले ही भौतिक रुप में नहीं है किन्तु उनकी बनाई परिपाटी भारतीय इतिहास में सर्वदा चिर-प्रासंगिक रहेगी।

उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व इतना विराट है कि जिसके बारे में जितना भी कहें वह कम ही है, क्योंकि जो व्यक्ति जनश्रुतियों में समा गया हो उसका जीवन एक दर्शन बन जाता है। आधुनिक राजनैतिक इतिहास में अटलजी जैसा धीर-उदात्त, गंभीर, प्रखर, ओजस्वी, वाक्पटु, मृदुभाषी स्वभाव से समर्थक तो समर्थक बल्कि विपक्षियों को भी मोह कर अपने वशीभूत करने की कला की जादूगरी का अनूठा समन्वय अपने आप में किसी महारथ को हासिल कर लेने से कम नहीं था।

वर्तमान के राजनैतिक पारिदृश्य में लगता है कि काश! अटल जी जैसा व्यक्तित्व हम सभी के बीच होता जो कि हमारी विचार एवं दिशा विहीन होती राजनीति को नया रास्ता बतलाता किन्तु यह अब कहाँ सम्भव है? अब तो समय के गर्भ में भारत के स्वप्न पल रहे हैं, स्मृतियों के सहारे ही आगे की राह देखने एवं कार्यान्वयन की आधार शिला रखने का संकल्प दुहराया जाएगा। वास्तव में यह सच ही है कि युग पुरुष सदियों में जन्म लेते हैं जिनके आभामंडल में क्रांति और चेतना का स्वर फूटता है, उसी क्रांतिपथ में अनेकानेक व्यूहों के निर्माण एवं भेदन का रंगमंच सजता है तथा अपनी-अपनी बारी से सभी अपने किरदारों को तन्मयता के साथ निभाते हैं। इसके पश्चात एक दिन यही पथ नवमार्ग के तौर पर लोक के समक्ष नई परिपाटी के तौर स्थापित हो जाता है तथा उस युगपुरुष द्वारा अंकित पदचिह्न नवमार्ग बनकर आगे की पीढ़ी को रास्ता दिखलाते हैं।

व्यक्ति से व्यक्तित्व की यात्रा का पड़ाव कठिन संघर्षों, त्याग, तपस्या, निष्ठा, कार्य के माध्यम से विविध प्रारुपों में ढलती चली गई। वे एक ऐसे चमत्कारी पुरुष थे जिनका जन्म कवि एवं अध्यापक पिता कृष्णबिहारी वाजपेयी और माता कृष्णादेवी की संतान के तौर पर 25 दिसम्बर 1924 को हुआ। किन्तु उनका यह जन्म भारत-भू के ऐसे प्रज्ञा पुरुष के तौर पर अपनी विराटता को प्राप्त किया जिससे सम्पूर्ण भारतवर्ष की राजनीति एवं नेतृत्व को अपनी कविताओं की पंक्तियों-

हार नहीं मानूंगा-रार नई ठानूंगा, काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूं, गीत नया गाता हूं-गीत नया गाता हूं’  को स्थापित एवं सार्थक करते हुए आधुनिक योद्धा के तौर पर चरितार्थ हुआ।

उनकी शिक्षा -दीक्षा का क्रम ग्वालियर के गोरखी विद्यालय में प्रारंभिक शिक्षा से प्रारंभ हुआ तथा इसके उपरांत उन्होंने विक्टोरिया कॉलेज वर्तमान महारानी लक्ष्मीबाई कॉलेज से बीए में स्नातक करने के दौरान ही छात्र राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक के तौर पर अपनी ही धुन में भारतमाता के अखण्ड स्वरूप को ह्रदय में विराजमान करते हुए नई लीक खींचने चल पड़े तो फिर न कभी झुके, न रुके। संघ कार्यों का प्रभाव एवं निष्ठा की आहुति तथा समर्पण ने उन्हें इतना उद्वेलित एवं राष्ट्रवाद की भट्टी में फौलाद की तरह तपा दिया कि वे राष्ट्र-चिन्तन-राष्ट्र आराधना के लिए एलएलबी की शिक्षा छोड़कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक प्रचारक के तौर पर अपने कर्तव्यों के निर्वहन करने चल पड़े तो फिर कभी भी कदम पीछे नहीं खींचे। समय के साथ सफर और दायित्व बढ़ते गए, लोगों का साथ बढ़ता गया, लक्ष्यसिध्दि का आकार बढ़ता गया तो उसी अनुसार उनका व्यक्तित्व भी बहुआयामी आकार लेता चला गया।

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एवं पं.दीनदयाल उपाध्याय के  सानिध्य में राजनैतिक एवं सामाजिक उत्कृष्टता के गुणों को आत्मसात करते हुए अटल जी ने पत्रकारिता के क्षेत्र में आकर अपनी तीक्ष्णता, प्रहारक एवं मारक शैली के माध्यम से अपनी वैचारिक मेधाशक्ति से सभी को प्रभावित करने में सफल रहे। उनसे कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रह गया, चाहे वह साहित्य हो, समाज हो, राजनीति हो या पत्रकारिता का क्षेत्र हो। वे सभी में उत्कृष्ट रहे ही बल्कि उन्होंने अपनी नई परिपाटी तथा नवोन्मेष के माध्यम से एक अलग अलख जगाने में सफलता हासिल की।

राष्ट्रधर्म पत्रिका के प्रथम द्वय संपादकों में रहने के साथ ही पाञ्चजन्य पत्रिका के प्रथम संपादन का दायित्व सम्हालते हुए उन्होंने दैनिक स्वदेश समाचार का संपादन भी किया। उनकी पत्रकारिता के बहुविध एवं नवोन्मेषी दृष्टिकोण पर आधारित नई चेतना से मुखरित अक्स को दिल्ली से प्रकाशित  ‘वीर-अर्जुन’ का संपादन करते हुए समूचे देश ने उनके संपादकीय लेखों, राजनैतिक दृष्टिकोण एवं परिचर्चाओं के स्पष्ट कड़े तेवर, मार्मिक प्रहार तथा राष्ट्रवादी वैचारिक अधिष्ठान से पोषित पत्रकारिता के नए आयाम को देखा।

अटल जी का राजनैतिक पदार्पण भी उन्हीं के खास निराले अंदाज में हुआ था, वे कर्मपथ को लक्ष्यपथ बनाकर चलते ही चले गए। अटल जी डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी एवं पं. दीनदयाल उपाध्याय जी की प्रयोगशाला में तपकर, संकल्प को सिध्दि का स्वरूप देने के लिए राष्ट्रवादी विचारों को आत्मसात करते हुए भारत वर्ष के राष्ट्रीय फलक में मूर्तरूप देने के लिए ‘वयं राष्ट्रे जाग्रयाम’ का उद्घोष कर राजनीति के समराङ्गण में भारतीय जनचेतना की मुखरित आवाज बनने के लिए कूद पड़े। वे भले ही पहली बार लोकसभा चुनाव में हार गए किन्तु उन्होंने अपनी कविताओं की तरह ही जीवन में हार नहीं मानी बल्कि अपने प्रिय! कवि शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की कविता की पंक्तियों-

क्या हार में क्या जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं
संघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही वरदान मांगूंगा नहीं  
की भांति कर्त्तव्यपथ पर सदैव रत रहे आए।

राजनैतिक उतार-चढ़ावों के बाद वे 1957 में उप्र की बलरामपुर की लोकसभा सीट से विजयी होकर सांसद बनें, इसके पश्चात 1972 में ग्वालियर से चुनाव लड़े और विजयश्री का वरण करने के साथ ही अपने समूचे राजनैतिक जीवन का शंखनाद कर दिया। अनेकों राजनैतिक उतार-चढ़ावों के बावजूद भी वे राजनैतिक कर्त्तव्यपथ में चलते रहे तथा संघ के संकल्प, श्यामाप्रसाद मुखर्जी एवं पं. दीनदयाल उपाध्याय के ‘अन्त्योदय’ के स्वप्न को साकार करने के लिए अथक परिश्रम करते रहे।

इसी तरह जब देश को इन्दिरा गांधी ने आपातकाल की क्रूरतम त्रासदी में झोंक दिया था। उस समय अटल जी ने भी समूचे विपक्ष की भांति जेल की यातना सही, किन्तु वे कभी नहीं डिगे बल्कि दुगुने उत्साह के साथ आपातकाल का सामना किया। उनका कवि ह्रदय उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम बना तथा आपातकाल की कठिन यातना से दो-दो हाथ करते हुए उन्होंने ह्रदय एवं परिस्थितियों की हूक को ‘कैदी कविराय’ कुण्डलियों में लिखकर काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी-

धधकता गंगाजल है, जेपी डारे जेल में,
ताको यह परिणाम,पटना में परलै भई,
डूबे धरती धाम,डूबे धरती धाम
मच्यो कोहराम चतुर्दिक,शासन के पापन को
परजा ढोवे धिक-धिक,कह कैदी कविराय
प्रकृति का कोप प्रबल है, जयप्रकाश के लिए!!

आपातकाल के बाद जब इन्दिरा गांधी सरकार भंग हुई तथा विपक्षी दलों के संयुक्त गठबंधन में मोरारजी भाई देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी तो अटल जी विदेशी मंत्री बनें तथा अपने दो वर्षों तौर पर 1977 से 1979 के कार्यकाल में भारतीय विदेशनीति का अटल अध्याय लिखा। अटल जी के व्यक्तित्व की थाह लगा पाना लगभग असंभव ही रहा आया है, उनका गूढ़, आत्मीय, संवेदनपरक, स्नेहिल व्यक्तित्व अपने-पराए के बोध से बिल्कुल अलग अटल अंदाज में ही था। उनकी राजनैतिक पारी में शायद ही कभी ऐसा हुआ होगा कि उन्होंने कभी किसी को व्यक्तिगत आक्षेप के चलते किसी भी प्रकार की क्षति पहुंचाई हो। संघ के संस्कार एवं माता-पिता की छांव में पल्लवित अटल जी का व्यक्तित्व सभी को अपनी शैली के द्वारा आकर्षित करने वाला रहा आया है, जिसमें समय के साथ ही वृद्धि होती रही आई है।

उनका ध्येय, उनके विचार एवं उनके कार्य करने की क्षमता तथा राष्ट्रवादी विचारों के प्रति प्रतिबद्धता एवं दृढ़संकल्प उनके रग-रग में बहते थे, जिनसे उन्होंने कभी भी, किसी भी परिस्थिति में समझौता नहीं किया। भले ही उन्हें इसके लिए सत्ता को गवांने की कीमत क्यों न चुकानी पड़ी हो। वे भारतीय इतिहास के ऐसे प्रज्ञा पुरुष हैं जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र  संघ के अधिवेशन में भारत की गौरवशाली परम्परा एवं एकसूत्र वाक्य-"वसुधैव कुटुम्बकम" की विवेचना के साथ सर्वप्रथम हिन्दी में भाषण देकर देश के मस्तक को विश्व पटल पर गौरवान्वित करने का अद्वितीय कार्य किया। उन्होंने यह सन्देश दिया था कि सनातन से चली आ रही राष्ट्र की संस्कृति एवं परंपराएं ही भारतवर्ष का स्वरूप एवं मूल स्वभाव हैं जिसके आधार पर ही भारत रुपी राष्ट्र का ध्वज अनंत आकाश में लहराता है।

यह उनके महान व्यक्तित्व एवं कार्यक्षमता तथा दायित्वों के निर्वहन का ही प्रतिफल था जब 6 अप्रैल 1980 को जनता पार्टी के विघटन बाद भारतीय जनता पार्टी का अभ्युदय हुआ तब उन्हें भाजपा का निर्विरोध राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। जहां उन्होंने (बम्बई) मुम्बई में देश की राजनीति को कायाकल्पित करने वाला बहुचर्चित अध्यक्षीय भाषण दिया था जिसमें-उन्होंने गांधीवादी समाजवाद से लेकर महात्मा फुले, समाजवाद, पंथनिरपेक्ष, कम्युनिस्ट, इंदिरा गांधी के शासन, किसानों के हालात, महिला उत्पीड़न सहित अन्य समस्त देशव्यापी समस्याओं की वस्तुस्थितियों पर अपने संपादकीय लेखों की तरह ही विस्तृत प्रकाश डालते हुए राजनीति के मैदान में जूझने और लड़ने का निनाद करते हुए

"अंधेरा-छंटेगा-सूरज निकलेगा-कमल-खिलेगा"
की भविष्यवाणी की। जो कि भविष्य में विभिन्न राजनैतिक उतार-चढ़ावों के लम्बे समय के बाद सच साबित हुई जिसे अब भी भाजपा अपनी पराजय के बाद दोहराती रहती है।

वे 1996 में महज 13 दिन के लिए प्रधानमंत्री बनें किन्तु उनकी यह सरकार मात्र 1 वोट के कारण गिर गई थी, बतौर प्रधानमंत्री अगर वे चाहते तो सरकार बचाने के लिए 1 सांसद का तिकड़म कर सकते थे। किन्तु उन्हें अपनी सरकार एवं प्रधानमंत्री पद से ज्यादा चिन्ता देश के लोकतंत्र की थी, इसलिए उन्होंने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर एक ऐसी मिसाल कायम की जिसमें आज की राजनीति के लिए भी सबक छुपा हुआ है। बशर्ते राजनीतिक दल इसे गंभीरता से लें।

क्या आज के परिप्रेक्ष्य में हम वैसे व्यक्तित्व की कल्पना कर सकते हैं? जो सत्ता को ठुकराकर लोकतंत्र के मूल्यों के लिए स्वयं को समर्पित कर देने का साहस रखता हो। लेकिन वह भारतीय राजनीति का अटल अध्याय था जिसने सत्ता को कभी भी महत्ता नहीं दी,यदि महत्ता दी तो विचारों, सिध्दांतों, नीतियों एवं जनता को तथा सर माथे में चूमकर राष्ट्र के लोकतंत्र एवं वैचारिक निष्ठा की प्राण प्रतिष्ठा की।

अटल जी ने  इस पर सदन में अपना वक्तव्य देते हुए कहा  कि- "सरकारें आएंगी-जाएंगी, पार्टियां बनेंगी-बिगड़ेंगी पर यह देश रहना चाहिए। इस देश का लोकतंत्र अमर रहना चाहिए"

जो  कि भारत की राजनैतिक शुचिता की कालजयी उक्ति बन गई। चाहे नरसिम्हाराव सरकार के दौरान विपक्ष में होते हुए जेनेवा में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए सम्पूर्ण विश्व में भारतीय लोकतंत्र की अमिट छाप छोड़ने का कार्य हो या कि  मोरारजी सरकार में विदेश मंत्री के दौरान का उनका कार्यकाल रहा हो, उन्होंने अपने कर्तव्यों का बेदाग, निर्विवाद, अपनी बेबाक शैली एवं अनोखे अंदाज में बखूबी निर्वहन किया था। उन्होंने सर्वदा राजनैतिक संवादों एवं लोकतंत्र की शुचिता तथा समता के लिए अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त ही नहीं की बल्कि प्रायोगिक तौर पर स्थापित कर एक लकीर खींची है।

पुनः 19 अप्रैल 1998 को उनके नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की 13 महीने की सरकार बनी जिसमें उन्होंने "गठबंधन धर्म" की नई परिपाटी का सृजन कर सफलतापूर्वक पांच वर्ष तक सरकार चलाकर देश की प्रगति एवं उन्नति के कीर्तिमान रचे।

उन्होंने राष्ट्र एवं सिध्दांतों से कभी भी किसी भी दबाव में न तो समझौता किया और न ही डिगे। उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए वैश्विक प्रतिबंधों की चिन्ता किए बिना देश के महान वैज्ञानिकों के अदम्य साहस एवं कर्तव्यनिष्ठा पर विश्वास करते हुए 11 और 13 मई 1998 की रात्रि में पोखरण में पांच भूमिगत परमाणु परीक्षण विस्फोट करने का कार्य कर भारत को परमाणु शक्ति में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने में अपना साहसिक परिचय दिया।

अटल जी के कार्यकाल में उन्हें सर्वाधिक पीड़ा पहुंचाने वाले दो वाकियों कांधार विमान अपहरण एवं कारगिल युध्द ने उन्हें "शठं शाठ्यं समाचरेत्" से पारंगत बना दिया। इन दो घटनाओं के बाद जिस तरह का कड़ा तेवर तथा सख्त रवैय्या उन्होंने पाकिस्तान के प्रति रखा उसे समूचे विश्व ने देखा। उनका कविहृदय और ज्यादा कवचपूर्ण बन गया जिसमें "नीर-क्षीर" का गुण तथा सरलता एवं कठोरता दोनों मानदंडों का समावेशन हो चुका था।

परमाणु परीक्षणोपरान्त पश्चिमी देशों द्वारा भारत पर अनेकों प्रतिबंध लगाए गए किन्तु अटल जी की दूरदर्शिता एवं इस उपलब्धि के सामने वे सभी प्रतिबंध बौने ही साबित हुए। उन्होंने यह सिध्द किया तथा विश्व को यह संकेत दिया कि भारत अपनी सामर्थ्य के बलबूते पर विश्व के कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए तैयार है, किन्तु कोई यह समझे कि भारत को आंख दिखाकर हम शांत कर लेंगें तो यह विश्व की बड़ी भूल होगी।

अटल जी अपने राजनैतिक जीवन के 40 वर्षों तक देश के दोनों सदनों लोकसभा एवं राज्यसभा के सदस्य के तौर पर  राष्ट्र की मुखरित आवाज बने तथा अनेकानेक कीर्तिमान रचें। किन्तु स्वास्थ्य की प्रतिकूलताओं के कारण 2005 से उन्होंने सक्रिय राजनीति को अलविदा कह दिया। अटल जी भारतीय राजनीति की मुख्यधारा से भले ही नेपथ्य में चले गए हों किन्तु भारत के जन-जन के ह्रदय में अटल जी बसे हुए हैं, उनकी अमिट छाप आज भी पक्ष एवं विपक्ष से परे भारतवासियों के बीच विद्यमान है।

उनके अंदर बसने वाले विराट कवि ह्रदय ने प्रखर तौर पर स्पष्ट अभिव्यक्तियों को उकेरा है उनकी कविताओं तथा काव्यपाठ में मर्मस्पर्शी संवेदनाओं के साथ ही शौर्य की गर्वानुभूति देखने को मिलती है।

वे अपनी कविताओं के बारें में वे कहते कि- "मेरी कविता जंग का ऐलान है, पराजय की प्रस्तावना नहीं वह हारे हुए सिपाही का नैराश्य-निनाद नहीं, जूझते योद्धा का जय-संकल्प है। वह निराशा का स्वर नहीं,आत्मविश्वास का जयघोष है।"

अटल जी चाहे प्रधानमन्त्री के पद पर रहे हों या विपक्षी दलों के नेता के रूप में उन्होंने जीवनपर्यंत राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखा। उनके विराट व्यक्तित्व की महानता ही है कि उन्होंने नीतियों को लेकर स्पष्ट तौर पर आलोचनाएं की किन्तु कभी भी व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोपों की राजनीति नहीं की। भारत सरकार ने 2015 में उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान "भारत रत्न" से विभूषित किया इसके पहले पद्मविभूषण सहित देश-विदेश से उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के लिए उन्हें विभिन्न सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त होते रहे आए हैं

उन्होंने कभी भी तुष्टिकरण करने के चक्कर में अपनी हिन्दुत्वनिष्ठ विचारधारा से कभी भी मुंह नहीं मोड़ा बल्कि  प्रखरता के साथ अपनी कविताओं एवं भाषणों के माध्यम से व्यक्त किया-"हिन्दू तन मन-हिन्दू जीवन रग-रग हिन्दू -मेरा परिचय " शीर्षक की कविता उनके तेवर को अभिव्यक्ति प्रदान करती है। उनके अखण्ड भारत का संकल्प - सावरकर की साधना, डॉ. मुखर्जी के संघर्ष एवं बलिदान तथा दीनदयाल उपाध्याय के वैचारिक अधिष्ठान का उद्देश्य ही है।

भारतीय राजनीति के इतिहास में जब भी राजनैतिक शुचिता, तपस्या, त्याग, सैध्दांतिक प्रतिबद्धता की बात एवं जन-जन के मध्य लोकप्रिय एवं अपनत्वता हासिल करने वाले राजनेता की बात होगी, तब-तब अटल जी का नाम एवं छवि सभी को मनोमस्तिष्क में स्वमेव ही स्मृतियों के सहारे जीवंत हो उठेगी। परमपूज्य अटल जी राजनैतिक समर्थकों और विरोधियों के ह्रदयतल में अपनी बेमिसाल कार्यशैली,वाक्पटुता, मृदुस्वभाव एवं प्रभावी राष्ट्रचिन्तन की अवधारणा की वैशिष्ट्यता के फलस्वरूप हमारी चेतना में विद्यमान हैं।

अटल जी स्वयं में एक युग प्रवर्तक हैं और अपनी बनाई परिपाटी के महायोध्दा जिन्होंने राष्ट्र को एकसूत्रता के बन्धन में अपने प्रखर व्यक्तित्व,संयमित जीवन शैली, सभी के प्रति सहजता एवं सामंजस्य के बदौलत अटल बनें!!
16 अगस्त 2018 की तारीख ने हमसे "अटल रत्न" को भौतिक तौर पर भले ही छीन लिया किन्तु भारतीय राजनीति के अजातशत्रु एवं आधार स्तंभ के रूप में दैदीप्यमान होते हुए अपने विचारों- कृतित्व के प्रेरणा स्त्रोत के रूप में जन-जन के मध्य विद्यमान रहेंगे ।

अटल जी के अधूरे रह गए नारे- "भारत उदय" को पूर्णता देने के लिए उनके आदर्शों एवं राष्ट्र के गौरवशाली सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास को मानस पटल पर जीवंतता प्रदान कर धरातल पर कार्यान्वित करना होगा!!

नोट: इस लेख में व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक की न‍िजी अभिव्‍यक्‍त‍ि है। वेबदुन‍िया का इससे कोई संबंध नहीं है।

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