आधुनिक वैश्विक संदर्भ में सुशासन का अर्थ मात्र अच्छे शासन से ही नहीं वरन् अविलंब निर्णय लेने, लिये गये निर्णयों को सार्थक ढंग से लागू करने और उन्हें कार्य रूपमें परिणित करने की प्रक्रिया तथा उससे संबध्द समग्र तंत्र के कार्य निष्पादन से है। निःसंदेह सुशासन का विकास से अभिन्न संबंध है।
सुशासन के बिना विकास की अवधारणा को साकार करना संभव नहीं है। इसलिये भारतीय राजनीति के अजातशत्रु भारतरत्न एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के जन्मदिवस 25 दिसम्बर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 में सुशासन की महत्ता को रेखांकित करते हुए सुशासन दिवसके रूप में मनाये जाने की घोषणा करते हुए कहा कि सुशासन किसी भी राष्ट्र की प्रगति की कुंजी है।
भारत की सांस्कृतिक चेतना का मूल स्वरूप प्रारंभ से ही परोपकार और लोककल्याण की निर्मल भावनाओं से ओत-प्रोत रहा है। आचार्य कौटिल्य ने अपनी प्रख्यात पुस्तक अर्थशास्त्र में सुशासन के उदत्त स्वरूप को रेखांकित करते हुए कहा कि प्रजा का हित ही राजा का चरम लक्ष्य है। प्रजा के सुख में ही राजा का सुख निहित है, प्रजा के हित में उसका हित है।
महात्मा गांधी ने मेरे सपनों का भारत में जिस रामराज्य की परिकल्पना की थी उसमें सुशासन ही सुराज के रूप में अवतरित हुआ है। वहीं लोकमान्य तिलक के शब्दों में देश में स्वराज्य ही नहीं सुराज भी आना चाहिये।
सामाजिक परिवर्तन के अग्रदूत डॉ. अम्बेडकर की सामाजिक, आर्थिक न्याय की अवधारणा मानवाधिकारों की सुरक्षा की गांरटी के बिना कैसे सुशासन की परिकल्पना को साकार कर सकती है? एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का समाज के अंतिम छोर के व्यक्ति के मंगल का सपना भी सुशासन की अवधारणा में ही निहित है।
इन सब पर यदि कोई पूरी तरह से खरा उतरा तो वह थे सुशासन के पुजारी अटल जी। आप सुशासन की एक ऐसी विकासोन्नमुख व्यवस्था के पक्षधर थे जिससे समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के उन्नयन के प्रति प्रतिबध्द, समर्पित होकर राष्ट्र की उन्नति में आम आदमी भी अपनी भागीदारी की अनुभूति का सुखद अहसास कर सके।
भारतीय संस्कृति के मूल्यों के उन्नायक, उर्जावान समझ एवं सकारात्मक चिन्तन के धनी, महान राजनीतिज्ञ, प्रखर प्रेरक, ओजस्वी वक्ता, कुशल पत्रकार, दक्ष सम्पादक, साहित्यकार, संवेदनशील कवि, विपक्षियों एवं आलोचकों के मध्य प्रशंसित, भारतीय संसद के नौ बार सदस्य, दो बारराज्य सभा सदस्य एवं तीन बार भारत के प्रधानमंत्री के पद को गौरवान्ति करने वाले अद्भूत व्यक्ति थे जिन्होनें अपनी आभा से न केवल भारत की प्रतिष्ठा एवं गौरव में श्रीवृध्दि की वरन् राष्ट्र को सुशासन का अनूठा सम्बल प्रदत्त कर राष्ट्र के विकास को एक नई गति, नई दिशा, नई उर्जा और लय प्रदान की।
अटलजी का समग्र जीवन राष्ट्र की सेवा के लिये समर्पित रहा। मात्र 16 वर्ष की आयु में ही भारतीय जनसंघ से जुडकर भारत की राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हुए।
पहली बार 1996 में केवल 13 दिनों, दूसरी बार 1998-99 में 13, तीसरी बार 1999 से 2004 तक के कार्यकाल में देश के प्रधानमंत्री के रूप में अपनी सेवा का संकल्प पूर्ण किया। अटल जी लीक से हटकर एक ऐसा व्यक्तित्व थे जो अद्भुत राजनितिज्ञ के साथ, वैयक्तिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति का साधक न होकर राष्ट्र आराधन और राष्ट्र निर्माण में जीवन का प्रत्येक क्षण समर्पित करने का साध्य थे।
अटलजी ने राजनीति में नैतिक मूल्यों, आदर्शो की पवित्रता को अक्षुण्ण रखते हुए सुशासन की बुनियाद रखी ताकि जवाबदेह, उत्तरदायी, पारदर्शी, प्रभावशाली, न्याय संगत, कुशल एवं समावेशी शासन व्यवस्था को साकार किया जा सके। बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भारतीय संविधान की प्रस्तावना में जिन गणतांत्रिक मूल्यों आदर्शो, स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुता,सामजिक, आर्थिक न्याय और व्यक्ति की गरिमा के सम्मान का जो उच्च आदर्श अवसर की समानताके साथ संयोजित कर प्रतिपादित किया है, वह सुशासन के स्पर्श से यथार्थ के धरातल पर साकार हो सकता है।
प्रधानमंत्री के रूप में अटल जी का सम्पूर्ण कार्यकाल आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण के माध्यम से लोकतंत्र को सार्थक और जीवंत बनाये रखने के लिये प्रतिबध्द था। 07 सितम्बर 2000 को न्यूयार्क में एशिया सोसाईटी में दिये अपने प्रेरक भाषण में सुशासन के बुनियादी विचार को इस प्रकार रखा कि व्यक्ति के सशक्तिकरण का अर्थ राष्ट्र का सशक्तिकरण और इस तीव्र सामाजिक बदलाव के साथ तेज आर्थिक विकास किया जा सकता है।
निःसंदेह वे समाज के अंतिम छोर पर खड़े हुए सर्वाधिक उपेक्षित के सशक्तिकरण को सुशासन की आवश्यक शर्त मानते थे। अपने प्रधानमंत्रीत्व कार्यकाल का कार्य निष्पादन अंततः एक मजबूत विकसित भारत के स्वप्न को साकार करने, अधिकतम सामाजिक अवसरों को सृजित करने, लोकतंत्र की परम्पराओं को संरक्षित, सुरक्षित करने, जनता की सक्रियता और भागीदारी बढ़ाने के साथ नागरिक प्रथम के महती सिध्दांत पर चलकर आम नागरिकों के कल्याण तथा आम नागरिक के शासन से जुड़ाव पर केन्द्रित रखा।
जहां आम और खास के अंतर को समाप्त करते हुए अच्छी और प्रभावी नीतियों और कार्यक्रमों के साथ जनता को भृष्टाचार मुक्त, पारदर्शी प्रशासन उपलब्ध कराने को प्राथमिकता दी गई।
अटलजी का यह विश्वास था कि सत्ताधारी दल को सदैव जवाबदेह, उत्तरदायी, निष्पक्ष और विकासोन्मुख होना चाहिये तथा विकास के लाभ समाज के सभी वर्गों तक सहजता, सरलता के साथ पहुंचने चाहिये। उन्होंने सदैव सामाजिक विषमताओं, विसंगतियो, विद्रुपताओं, अन्याय अत्याचार और शोषण का प्रबलता से प्रतिकार करते हुए सुशासन को महत्ता प्रदान की।
विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी अपने विश्वास पर अपनी मान्यताओं पर अटल जी अटल रहे। यह दृढ़ निश्चय उनकी इस भावपूर्ण कविता से इंगित होता है- सत्य का संघर्ष सत्ता से, न्याय लड़ता निरंकुशता से, अंधेरे ने दी चुनौती है, किरण अंतिम अस्त होती है, दीप निष्ठा का लिए निष्कंप, वज्र टूटे या उठे भूकम्प, किन्तु फिर भी जूझने का प्रण, अंगद ने बढ़ाया चरण, प्राण-प्रण से करेंगे प्रतिकार, दांव पर सब कुछ लगा है, रूक नहीं सकते, टूट सकते हैं मगर झुक नहीं सकते।
वो महान आर्थिक सुधारक थे, उनके नेतृत्व में भारत में आर्थिक सुधारों के एक नये युग का सूत्रपात हुआ। वर्ष 1998 से 2004 तक आर्थिक वृध्दि के मोर्चे पर आर्थिक मंदी के बावजूद हमारी सकल घरेलू उत्पाद दर में आठ प्रतिशत की वृध्दि दर्ज हुई। विदेशी मुद्रा भंडार में भी अभूतपूर्व वृध्दि हुई जो 1998 में मात्र 12 अरब डालर से बढ़कर 102 अरब डालर तक पहुंचा और हमारी मजबूत अर्थव्यवस्था का द्योतक बना।
वित्तीय घाटे को कम करने के लिए राजकोषीय उत्तरदायित्व अधिनियम लागू किया। वहीं दूसरी ओर व्यवसायों और उद्योगों के संचालन में सरकारी भूमिका सीमित करने, उनकी प्रतिबध्दता देश में एक पृथक विनिवेश मंत्रालय गठित किये जाने से परिलक्षित होती है। यह भी उल्लेखनीय है कि उनके कार्यकाल में महंगाई दर चार प्रतिशत तक ही सीमित रही।
अटलजी भारत में आधुनिक दूरसंचारप्रणाली के जनक भी हैं, उन्होंने विश्वस्तर पर सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की साख को मजबूतकरने के लिए 1999 में नई दूरसंचार क्रांति का शुभारंभ किया। उन्होंने राजस्व हिस्सेदारी व्यवस्था के साथ दूरसंचार कंपनियों के लिए नियत लायसेंस फीस परिवर्तित कर दूरसंचार के क्षेत्र में नीतिगत पहल भी की। फलस्वरूप उद्योगों को शुरूआती दौर की चुनौतियों का सामना करने की ताकत मिली।
अटलजी के प्रगतिशील दूरदर्शी नेतृत्व में आम आदमी के कल्याण के लिए अन्त्योदय अन्न योजना प्रारंभ हुई ताकि गरीबों को सस्ता खाद्यान्न उपलब्ध हो सके। किसानों के लिए क्रेडिट कार्ड और फसल बीमा योजना लागू कर भारत की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था को नये क्रांतिकारी आयाम दिये।
ज्ञान की रोशनी का लोक व्यापीकरण करने के लिए सर्वशिक्षा अभियान का शुभारंभ देश को सूखे और बाढ़ से मुक्ति दिलाने के लिये प्रमुख नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना, वरिष्ठजनों के लिये दादा-दादी बांड योजना, छात्रों को अध्ययन हेतु सस्ती दरों पर कर्ज का प्रावधान, सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना और दुर्घटना एवं स्वास्थ्य बीमा योजना इत्यादि उनके सुशासन माडल की महत्वपूर्ण उपलब्धियां है।
प्रत्येक पंचायत को प्रधानमंत्री ग्रामीण सडक योजना के माध्यम से जोडने की सडक क्रांति भारतीय अर्थव्यवस्था की अधोसंरचना के निर्माण में मील का पत्थर सिध्द हुई है। स्वर्णिम चतुर्भुज राज मार्गों का विराट नेटवर्क चैन्नई, कोलकाता, दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों को आपस में जोडता है जो आर्थिक विकास की संभावनाओं को साकार रूप प्रदान करता है।
प्रधानमंत्री ग्रामीण सडक योजना भारत की आत्मा को स्पर्श करती हुई उन दूरस्थ ग्रामीण अंचलों को जोडती है जो संपर्क सडकें न होने से विकास की मुख्य धारा से कटे हुए थे। इसका सबसे बड़ा लाभ ग्रामीण जनजीवन का सशक्तिकरण हुआ। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नई उंचाईयां मिली, उपज समय पर कृषि उपज मंडियों तक पहुंचने से किसानों का सशक्तिकरण हुआ।
कारगिल युध्द के दौरान आपरेशन विजय के माध्यम से पाकिस्तानी सेना को धूल चटाने वाले पुरोधा के राष्ट्र केन्द्रित नेतृत्व में तमाम विरोधों के बावजूद विपरीत परिणामों की चिंता किये बगैर परमाणु परीक्षण कराया जो उनकी दृढता की अद्भुत मिसाल है।
विकसित राष्ट्रों के आर्थिक बहिष्कार की धमकी के सामने झुकने से इंकार करते हुए, बाधाओं से कभी भी विचलित न होने वाला अपने विरोधियों को भी साथ लेकर चलने वाला उनका कवि हृदय कह उठता है- “बाधाएं आती हैं आयें, घिरे प्रलय की घोर घटायें, पांव के नीचे अंगारे, सिर पर बरसे यदि ज्वालायें, निज हाथों में हंसते-हंसते आग लगाकर जलना होगा, कदम मिलाकर चलना होगा।” एक मजबूत, विकसित और स्वाभिमानी राष्ट्र के स्वर्णिम भविष्य की आधारशिला रखने में अटलजी के सुशासन मॉडल के महत्वपूर्ण योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। किसी ने सच ही लिखा है- यों तो हजारों वर्षो से है जमीं पर आदमी का वजूद, मगर आंख आज भी तरसती है आदमी के लिए।
(लेखक से.नि.सचिव, मप्र शासन हैं।) (आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)