विरोध कहीं जातीय टकराव में न बदल जाए

इसे 'सवर्ण विरोध' का नाम दिया जा रहा है। हालांकि विरोध प्रदर्शनों में अनेक जगह सवर्णों के साथ पिछड़ी जाति में शामिल लोग भी भागीदारी कर रहे हैं। वस्तुत: अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण कानून में उच्चतम न्यायालय द्वारा किए गए संशोधन को निरस्त करने के विरुद्ध आक्रोश प्रदर्शन बिहार से निकलकर उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान सहित कई राज्यों तक विस्तारित हो गया है। निश्चय ही यह स्थिति थोड़ी डरावनी है।
 
जातीय आधार पर हो रहे आक्रोश प्रदर्शन की संभावित प्रतिक्रिया कुछ भी हो सकती है और कोई विवेकशील व्यक्ति नहीं चाहेगा कि ऐसा हो। हालांकि अभी तक 6 सितंबर के 'भारत बंद' सहित इन विरोध प्रदर्शनों में ऐसी स्थिति पैदा नहीं हुई है, जैसी पिछले 2 अप्रैल को दलितों के नाम पर आयोजित 'भारत बंद' के दौरान हुई थी। उस दिन जिस तरह की भयानक हिंसा हुई, जिस तरह बंद कराने निकला समूह जगह-जगह हथियारों का प्रयोग करते हुए तोड़फोड़ एवं आगजनी में संलिप्त रहा, उससे तो कई घंटों के लिए लगा ही नहीं कि हमारे यहां कानून का राज भी है। उस बंद में करीब 1 दर्जन लोगों की मौत हो गई।

 
प्रश्न है कि क्या मौजूदा विरोध को उसे उचित ठहराया जा सकता है? विरोध की कोई सीमा भी हो सकती है या नहीं? अगर उच्चतम न्यायालय के फैसले को कायम रखा जाता तो मौजूदा विरोध प्रदर्शन नहीं होता। किंतु तब अनुसूचित जाति (मीडिया में 'दलित' शब्द के प्रयोग पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने रोक लगा दी है) के नेता क्या करते? जिन्होंने 2 अप्रैल को उच्चतम न्यायालय के फैसले के विरोध में ही बंद आयोजित किया था? उस बंद का तो कोई औचित्य ही नहीं था।

 
शामिल लोगों से जब पत्रकार पूछते कि आप क्यों बंद कर रहे हैं? तो कोई कहता मोदी ने हमारा आरक्षण खत्म कर दिया है, तो कोई कहता हमारा कानून खत्म हो गया है आदि-आदि। कहने का तात्पर्य यह कि बंद करने वालों को ही पता नहीं था कि वे क्यों ऐसा कर रहे हैं? यानी कुछ शक्तियों ने दुष्प्रचार कर उनको उकसाया था।
 
कोई भी ऐसा विरोध प्रदर्शन या बंद होता है, तो उसके पीछे कुछ निहित स्वार्थी तत्व होते हैं, पर स्वत: भी लोग उसमें शामिल होते है। यही स्थिति इस समय हो रहे प्रदर्शनों के साथ है। इतनी संख्या में सभी लोग किसी के उकसाने से सड़कों पर नहीं आए हैं। अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति कानून पर उच्चतम न्यायालय के संशोधन को खत्म करने के विरुद्ध एक बड़े वर्ग में असंतोष है। संभव है कि इस असंतोष का कुछ नेता या पार्टियां राजनीतिक उपयोग कर रही होंगी, किंतु इसके आधार पर इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।

 
न तो उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कानून को गलत ठहराया था और न केंद्र सरकार ने कोई नया कानून बना दिया है। न्यायालय ने तथ्यों के आधार पर यह मत व्यक्त किया कि इस कानून का व्यापक दुरुपयोग हो रहा है जिसे रोका जाना चाहिए। न्यायालय ने दुरुपयोग रोकने के लिए इसमें थोड़ा बदलाव किया। पहला, किसी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज होते ही उसे गिरफ्तार नहीं किया जाए। डीएसपी स्तर के अधिकारी उस मामले की 1 सप्ताह के अंदर जांच करके देख लें कि उसमें सच्चाई है या नहीं? उसकी रिपोर्ट वो एसएसपी को दे दें जिसके आदेश पर गिरफ्तारी हो। दूसरा, न्यायालय ने यह भी कहा कि मुकदमा देखने वाले मजिस्ट्रेट भी अपना दिमाग लगाएं कि वाकई जो आरोप लगाए गए हैं, वे सच हो सकते हैं या नहीं? तीसरा, किसी अधिकारी या कर्मचारी पर इस कानून के तहत आरोप लगे हैं, तो उसकी गिरफ्तारी के पूर्व नियुक्ति अथॉरिटी की अनुमति लेनी होगी। यानी ऐसा नहीं हो सकता कि किसी ने आरोप लगाया और उसे गिरफ्तार कर लिया जाए। और चौथा, किसी कर्मचारी या अधिकारी को अग्रिम जमानत लेने का अधिकार होगा।

 
निष्पक्ष तरीके से देखा जाए तो यह बदलाव कानून को ज्यादा न्यायसंगत और विवेकशील बनाने वाला था। किंतु हमारे देश की राजनीति में अब इतनी अंत:शक्ति नहीं बची है कि वह ऐसे फैसले के साथ डटकर खड़ा हो सके। सभी विरोधी पार्टियों ने मोदी सरकार पर हमला आरंभ कर दिया कि उसने जान-बूझकर न्यायालय में पक्ष ठीक से नहीं रखा, क्योंकि यह अनुसूचित जाति- जनजाति विरोधी है। जो जातियां इस समय गुस्से में हैं, वो कुछ बातों का ध्यान रखें। एक, उच्चतम न्यायालय के बदलाव को निरस्त करने वाला विधेयक सभी दलों की सहमति से संसद के दोनों सदनों में पारित हुआ। किसी एक दल को इसके लिए जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। दूसरा, कानून लगभग वही है, जो उच्चतम न्यायालय के फैसले के पूर्व था। इसमें ऐसा बड़ा बदलाव नहीं हुआ है जिससे कि यह पहले से ज्यादा कठोर हो गया हो यानी यह न कोई नया कानून है, न इसमें बड़े बदलाव किए गए हैं। यह केवल दुष्प्रचार है। इन दोनों बातों का ध्यान रखें तो निष्कर्ष यह निकलता है कि कोई भी दल यदि विरोध करने वालों के साथ खड़ा होकर सहानुभूति जताता है या पीछे से साथ होने की बात करता है तो वह झूठा और पाखंडी है।

 
कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने एक कार्यक्रम के दौरान भाषण में कहा कि उनकी पार्टी में ब्राह्मण का खून है। यह केवल पाखंड नहीं, खतरनाक बयान भी है। यह लोगों को भड़काकर जातीय युद्ध कराने और उसका राजनीतिक लाभ लेने की शर्मनाक रणनीति है। कांग्रेस सहित कुछ पार्टियों को लग रहा है कि पूरे मामले को भाजपा के खिलाफ मोड़कर इसका राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता है। यह बात अलग है कि मध्यप्रदेश में जगह-जगह विरोध करने वाले भाजपा एवं कांग्रेस दोनों का विरोध कर रहे हैं, लेकिन हर जगह यह स्थिति नहीं है।

 
हम मानते हैं कि उच्चतम न्यायालय ने दुरुपयोग रोकने के लिए गिरफ्तारी और जमानत के संबंध में जो तार्किक बदलाव किया था उसे कायम रखा जाना चाहिए था। किंतु संसद ने उसे निरस्त कर दिया तो उससे बिलकुल नई स्थिति नहीं बनी है। न्यायालय को छोड़कर किसी के निर्णय का अहिंसक विरोध करने का अधिकार हर नागरिक को है। हां, यह देखना होगा कि हम जो विरोध कर रहे हैं, उसका समाज पर कोई नकारात्मक प्रभाव तो नहीं पड़ेगा? हमारे विरोध का तरीका सभ्य और शालीन है या उसमें इन मर्यादाओं का उल्लंघन हो रहा है? मध्यप्रदेश की एक सभा में जिस तरह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर चप्पलें फेंकी गईं, उनकी गाड़ी पर पत्थर मारा गया, वह बिलकुल स्वीकार्य नहीं है। कई जगह शरीर के ऊपर के भाग से कपड़े उतारकर प्रदर्शन किए जा रहे हैं। कहीं-कहीं धमकी और भय पैदा करने की भाषा का भी इस्तेमाल हो रहा है।

 
हम नहीं भूल सकते कि अनुसूचित जाति-जनजाति में शामिल जातियों के साथ हमारे समाज में अत्याचार और अन्याय हुआ है इसलिए उनके हक में बने कानून अभी रहेंगे। ठीक है कि समता और ममता से युक्त समाज का निर्माण केवल कानून से नहीं हो सकता। उस स्थिति में तो बिलकुल नहीं, जब राजनीतिक दल वोट पाने के औजार के रूप में इसका इस्तेमाल कर रहे हों और यही हो रहा है।

 
वास्तव में अनुसूचित जाति-जनजाति के साथ न्याय करने के नाम पर राजनीति ऐसी स्थिति पैदा करती जा रही है जिससे सवर्णों के बड़े वर्ग के अंदर यह भाव पैदा हुआ है कि अब हमारे साथ अन्याय हो रहा है। कानून कोई भी हो, उसका दुरुपयोग होता है, तो उसे रोकने का उपाय किया ही जाना चाहिए। एक स्वस्थ समाज कुछ अंतराल पर अन्याय दूर करने वाले कानूनों या उपायों की समीक्षा कर उसमें समयानुसार बदलाव करता रहता है।

 
दुर्भाग्य से वोटों की छीना-झपटी की रणनीति ने हमारी राजनीति को इतना विवेकशून्य और दुर्बल बना दिया है कि वह ऐसा साहस करने को तैयार ही नहीं। लेकिन अंतत: समाज में किसी प्रकार का टकराव और संघर्ष न हो, समाज एक रहे, शांति और व्यवस्था कायम रहे इसका ध्यान रखना सबका दायित्व है। संतोष की बात है कि अभी तक टकराव की स्थिति पैदा नहीं हुई है। यह कायम रहना चाहिए।
 
विरोध से यह भाव भी पैदा नहीं होना चाहिए कि वाकई अभी भी अनुसचित जाति-अनुसूचित जनजाति को लेकर कुछ जातियों के अंदर हीनता का भाव है। यह सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। विरोधी न तो राजनीतिक दलों के हाथों का खिलौना बन जाएं और न ऐसी स्थिति पैदा करें जिससे जातीय टकराव की किंचित भी आशंका पैदा हो। साथ ही विरोध उस सीमा तक न चला जाए, जहां से वापस आने का भी कोई रास्ता न बचे। सत्ता में कोई भी दल रहेगा, इस कानून को खत्म नहीं कर सकता।
 

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