अंबेडकर जयंती पर विशेष : सामाजिक क्रांति के महानायक डॉ. भीमराव अंबेडकर

डॉ. अशोक कुमार भार्गव
सामाजिक क्रांति के महानायक डॉ. अंबेडकर का जीवन संघर्षों का महाकाव्य है जिसने इन्सानियत को सही अर्थों में समझा और मानवीय गरिमा के इतिहास को गौरान्वित किया। मध्य‍ भारत महू में 14 अप्रैल, 1891 को अछूत महार जाति में जन्मे डॉ. भीमराव अंबेडकर भारतीय समाज के तलस्पर्शी अध्येता थे जिन्होंने गैर बराबरी, जातीय भेदभाव, छुआछूत, अन्याय, शोषण, दमन, घृणा, तिरस्कार, घोर अभावों और वेदना की पराकाष्ठा की भट्टी में तपकर सतह से शिखर की ऊंचाई को स्पर्श किया। उनका नाम प्रत्येक वंचित के मन में स्पन्दन पैदा करता है।


महाचेता डॉ.अंबेडकर ने निष्प्राण सामाजिक जीवन को जड़मूल से उखाड़कर लोकतांत्रिक आधार पर पुर्नगठित करने का संकल्प लेते हुए कहा कि "मैं अछूत हूँ,यह पाप है। लोग अछूतों को पशुओं से भी गया बीता समझते हैं। वे कुत्ते बिल्ली तो छू सकते हैं परंतु अछूत को नहीं। किसने बनाई है छुआछूत की व्यवस्था? किसने बनाया है किसी को नीच किसी को ऊंच? भगवान ने? हरगिज़ नहीं! वह ऐसा नहीं करता,वह सब को समान रूप से जन्म देता है। यह बुराई तो मनुष्य ने पैदा की है। मैं इसे समाप्त करके ही रहूंगा।"


डॉ. अंबेडकर ने बचपन से ही मर्मांतक पीड़ा को अनुभूत किया। एक दलित बालक जिसे बचपन में गाड़ियों से बाहर फेंका गया, विद्यालयों मे बहिष्कृत किया गया, अछूत होने के कारण संस्कृत के अध्ययन से वंचित रखा गया, जिसे मटके से लेकर पानी पीने की मनाही हो, नाई जिसके बाल नहीं काटता हो, जिसे एक प्रोफेसर के रूप में सरेआम बेइज्जत किया,सार्वजनिक जलाशयों, होटलों, सेलूनों, मंदिरों से दुत्कारा गया हो, बम्बई जैसे महानगर में कोई रहने के लिए किराए से मकान देने को तैयार न हो, जो वकालत आरम्भ करें तो अछूत वकील को कोई केस देने को तैयार न हो, चपरासी तक दूर से ही उनकी मेज पर फाईलें फेंका करते हों, जिसे ब्रिटिश कठपुतली ओर दैत्य की संज्ञा दी गई वही अछूत बालक भीम संस्कृत के मूल वेदों और शास्त्रों का अध्ययन कर, पश्चिम में ज्ञान के विविध क्षेत्रों में अपनी विद्वता का लोहा मनवाकर भारतीय संविधान का मुख्य निर्माता बना। दरअसल सुविधाओं का रोना उन्होंने कभी नहीं रोया वरन् अर्थाभाव की अत्यन्त विषम स्थिति में भी अपने इरादों की दृढता ओर संकल्पों को जीतने की भीष्म तूलिका से समाज में व्याप्त अनावश्यक ऊंचाईयों को उन्मूलित कर स्वतंत्रता,समानता और बन्धुता की बुनियाद पर नए मानवीय समाज की रचना की।


बड़ौदा महाराज की सहायता से डॉ.अंबेडकर ने कोलम्बिया विश्वविद्यालय बॉन विश्वविद्यालय,जर्मनी ग्रेज-इन तथा लन्दन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स से उच्च अध्ययन किया। एम.ए. पी.एच.डी.डीएससी, एम.एस.सी, बार एट लॉ तथा डी.लिट् की उपाधि प्राप्त की। वे अपने समय के सबसे ज्यादा पढे लिखे व्यक्ति थे फिर भी उनकी सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ। इस दौरान उन्होंने पश्चिम के श्रेष्ठतम शैक्षिक मूल्यों को आत्मसात कर यह निश्चय किया कि वे भारत लौटने पर सोए हुए दलित समाज में मानवाधिकारों के प्रति व्यापक चेतना जागृत करेंगे। इस हेतु मूक नायक,बहिष्कृत भारत, प्रबुद्ध भारत तथा जनता समाचार पत्रों का संपादन किया।
वे चाहते थे कि स्वाधीनता की रोशनी में दलितों के लिए अवसरों के द्वार समान रूप से खुले रहें। अपनी शक्ति को राजनीतिक आजादी के बजाय सामाजिक आजादी पर केन्द्रित किया। उनके मन में ज्ञान की तीव्र लालसा व अन्याय के प्रतिकार की प्रबल आंधी थी। हिन्दू् समाज से निरन्तर उपेक्षा और अपमान की सौगातें मिलने पर भी उनका देशप्रेम किसी भी बडे़ देशभक्त नेता से कम नहीं था।


प्रथम गोलमेज सम्मेलन में डॉ.अंबेडकर ने दृढ़ता के साथ दलितोत्थान के प्रति अंग्रेज राज की उदासीनता को रेखांकित करते हुए दलितों के आत्मसम्मान व उनके मानवाधिकारों का पक्ष समर्थन किया। तब गॉंधी ने उन्हें उत्कृष्ट देशभक्त कहा।


डॉ. अंबेडकर ने पलटकर गांधीजी से कहा 'आप कहते हैं कि मेरा स्वदेश है किन्तु मैं फिर भी दोहराता हूं कि मैं स्वदेश से वंचित हूं। मैं इस देश को कैसे अपना देश और इस धर्म को कैसे अपना धर्म कह सकता हूं जिसमें हमारे साथ कुत्ते, बिल्लियों से भी बदतर बर्ताव किया जाता है। हमें पीने का पानी तक नहीं मिल पाता। कोई भी स्वाभिमानी अछूत इस देश पर गर्व नहीं कर सकता।' वे नहीं चाहते थे कि नेतृत्व आवाम को पशुओं की तरह हांके।
 
डॉ.अंबेडकर ने शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो का अदभुत मंत्र दिया। उन्होंने दलितों में हीन ग्रंथि दूर करने का एहसास जगाया कि वे किसी से भी कमतर नहीं है।

पीपुल्स एजूकेशन सोसायटी, मिलिन्द कॉलेज और सिद्धार्थ कॉलेज की स्थापना कर दलित समाज में शिक्षा के प्रति चेतना जागृति की क्योंकि आत्मसम्मान मानवाधिकार तथा सामाजिक न्याय केवल मांगने से नहीं मिलते। इन्‍हें प्राप्त करने के लिए स्वयं को काबिल बनाना पड़ता है। जिसकी बुद्धि गुलाम है वह कभी आजाद नहीं हो सकता। शिक्षा आदमी को इन्सान बनाती है। अपने आप पर भरोसा करना सिखाती है न कि देवी-देवताओं पर। किन्तु दुर्भाग्य से उनके प्रेरक संदेश को विस्मृत कर उन्हें विलक्षण प्रतिभा से पत्थर की प्रतिमा में तब्दील किया जा रहा है।


बीसवीं सदी के मानवाधिकारों के श्रेष्ठतम प्रवक्ता डॉ.अंबेडकर सदैव सवर्णों और निम्न जातियों के मध्य समानता समरसता लाने के लिए आंदोलित रहे। अछूतोद्धार के लिए महाद चवदार तालाब, मनुस्मृति दहन तथा कालाराम मंदिर प्रवेश सत्याग्रह प्रारंभ किए थे, किन्तु सवर्णों के चवदार तालाब को शुद्ध करने के कर्मकाण्ड से वे अत्यन्त उद्विग्न हुए। अतः मंदिर प्रवेश की लड़ाई के प्रति अनास्था व्यक्त करते हुए कहा कि अस्पृश्यता हिन्दू धर्म पर नहीं हम पर कलंक है। उसे धोने का पवित्र कार्य हम करेंगे।


डॉ. अंबेडकर मूलत: महान अर्थशास्त्री थे और सामाजिक अनर्थ को मानवीय अर्थ देने की उनमें अद्भूत क्षमता थी। उन्होंने रा‍ष्ट्रीमय लाभांश,रुपये की समस्या,प्राचीन भारतीय व्यापार,भारतीय मुद्रा व बैंकिंग इतिहास,प्रान्तीय वित्त का विकास और विकेन्द्री्यकरण तथा भारत में लघुजोतों की समस्या समाधान जैसे विषयों पर प्रामाणिक पुस्तकें लिखी।


वे जानते थे कि उन्हें सामाजिक अन्याय के खिलाफ ही नहीं बल्कि आर्थिक शोषण के खिलाफ भी लड़ना है। इस अर्थ में वे समाजवादी अर्थव्यस्था के काफी निकट थे। वे राजनैतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र में बदलना चाहते थे।


वे आर्थिक शोषण के खिलाफ संरक्षण को संविधान के मूलभूत अधिकारों के भाग में सम्मिलित किए जाने के पक्षधर थे। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डॉ. अंबेडकर भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पी थे। उन्होंने विश्व के लगभग सभी संविधानों के श्रेष्ठतम मूल्यों, उन्नत प्रावधानों को हमारी संस्कृति के अनुरूप ढाल कर भारतीय संविधान को वैश्विक आदर्शों और अनुभवों से समृद्ध किया। भारतीय संविधान हमारी उदारवादी सांस्कृतिक चेतना का अमृत कलश है और सामाजिक शोषण की व्यवस्था से दमित वर्ग का रक्षा कवच जो सदियों से भेदभाव और अस्पृश्यता के संताप झेल रहे हैं।


भारतीय उपमहाद्वीप में भारत के साथ स्वाधीन हुए देश आंतरिक कलह, गृहयुद्ध,विखंडन,अस्थिरता जैसे हालातों से जूझ रहे है वहीं हमारा देश स्थिरता के साथ विश्व शक्ति बनने की ओर अग्रसर है। निसंदेह यह हमारे संविधान के कठोर लचीले सशक्त एवं चिरप्रासंगिक होने का प्रमाण है।


वस्तुतः डॉ अंबेडकर के योगदान के अनेक पक्ष प्रकाश में नहीं आ पाए हैं। भारत में वित्त आयोग,रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया,स्वतंत्र निर्वाचन आयोग, दामोदर घाटी, हीराकुंड और सोन नदी परियोजना,पानी बिजली और ग्रिड सिस्टम, रोजगार कार्यालयों की स्थापना एवं संपत्ति में महिलाओं के अधिकार सशक्तिकरण व श्रम कल्याण नीतियों में डॉ अंबेडकर का अविस्मरणीय योगदान है।


वंचितों की मुक्ति संग्राम के अपराजेय योद्धा डॉ.अंबेडकर की महानता को कम करके आंकना उनके अस्तित्व को नकारना है। आचार्य रजनीश ने ठीक ही कहा है 'किसी को खारिज करने का सबसे आसान तरीका है उसे महान बना दीजिए, उसे अवतार करार दे दीजिए बस उसकी प्रतिमा का पूजन शुरू हो जाएगा। उस पर विचार होना बंद हो जाएगा। डॉ.अंबेडकर के साथ आज यही हो रहा है क्योंकि हम अपने राष्ट्र नायकों पर विचार नहीं श्रद्धा भर करना जानते हैं। यह विडम्बना है कि उन्हें आज महज दलितों के मसीहा के रूप में स्थापित कर जातीय कोष्ठकों में बंद किया जा रहा है। जबकि उनका अवदान समूचे राष्ट्र के लिए है।


मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित डॉ. अंबेडकर की संवेदना का पात्र वह प्रत्येक व्यक्ति जो शोषित, पीडित, पददलित और तिरस्कृत था, वह आज भी समतामूलक समाज की स्थापना के अधूरे कार्य की पूर्णता की प्रतीक्षा में है। यह देश डॉ अंबेडकर के क्रांतिकारी विचारों और युगदृष्टि का सदैव ही ऋणी रहेगा।
 
लेखक म.प्र के पूर्व आईएएस अधिकारी हैं।
 
 

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