आसाराम केस : घोर अनैतिकता पर नैतिकता की जीत

प्रज्ञा पाठक
अन्ततः आसाराम को उनके कुकृत्य का दंड मिल ही गया। मरते दम तक कैद की सजा सुनाकर न्यायाधीश ने अपराधी को योग्य दंड और पीड़ित को समुचित न्याय दिया। हम सब इस निर्णय से खुश हैं, लेकिन ज़रा सोचें कि जो घाव आसाराम ने पीड़िता की आत्मा को दिए हैं,वे क्या कभी भर पाएंगे?क्या कभी वो इस हादसे को भूल पाएगी,जिससे वह उस व्यक्ति के कारण गुज़री,जो उसके पूरे परिवार के लिए ईश्वर सम पूज्य था?
 
आसाराम का ये कुकृत्य व्यक्तिगत क्षति के साथ बहुत बड़ा सामाजिक अहित भी कर गया। इसने एक काफी बड़े वर्ग की आस्था और विश्वास को सदा के लिए खंडित कर दिया। जो लोग संत-समागम को परम पुण्य के अर्जन का हेतु मानते हैं, जो अपने सभी कष्टों के समाधान की सही कुंजी सन्त के श्रीचरणों में मानते हैं और जो अपना सब कुछ उन पर न्यौछावर करना ईश-पूजा का सच्चा स्वरुप मानते हैं, ऐसे निर्मल ह्रदय लोग क्या अब किसी संत पर विश्वास कर पाएंगे? नहीं,कभी नहीं.... 
 
आसाराम की ही तरह नित्यानंद, राम रहीम,भीमानंद, फलाहारी बाबा आदि सभी तथाकथित संत ऐसे ही मामलों में जेल में बंद रहे या अभी भी जेल में हैं।
 
यह समझ से परे है कि यदि इन सभी को शरीर-सुख इतना प्रिय था,तो संत का चोला क्यों धारण किया? गृहस्थ ही बने रहते,तो बेहतर होता। संत धर्म को यदि धारण किया था,तो उसका यथोचित पालन करना चाहिए था।
 
एक गृहस्थ से ये अपेक्षा की जाती है कि वह अपने परिवार के प्रति समर्पित रहकर उसका ठीक से पालन पोषण करे और सभी सदस्यों की आवश्यकताओं को पूर्ण करे। यदि कोई गृहस्थ अपने इस कर्तव्य-पालन में चूकता है, तो परिवार और समाज उसे दिशाबोध देते हैं।
 
इसी प्रकार जो व्यक्ति भौतिक संसार के मोह को त्यागकर वैराग्य पथ का अनुगामी हो गया हो,उसका दायित्व आत्मपरिष्कार के साथ-साथ समाज को सही दिशा देना होता है।'संत' शब्द स्वयं में यही अर्थ समेटे हुए है। शिक्षक बच्चों का मार्गदर्शक होता है और संत समाज का। जब समूचा राष्ट्र आपसे मार्गदर्शन की उम्मीद रखता हो,तब आप ही मार्गभ्रष्ट हो जाएं, तो क्या होगा?
 
जब धर्म को धारण करने वाला ही अधर्म की राह पर चल पड़े,तो धर्म कैसे सुरक्षित रहेगा? जब त्याग की शिक्षा देने वाला ही भोग के घिनौने अवतार में नज़र आये, तो कौनसी शिक्षा उससे ग्रहण की जाए?
 
वास्तव में एक सुदीर्घ और महती संत-परम्परा हमारे राष्ट्र की पहचान रही है। अनगिनत नाम हैं, जिनके अवदान से भारत ऐसा आत्मसमृद्ध भारतवर्ष बन सका कि विदेशियों के लिए ये भूमि, भ्रमण के साथ-साथ नमन की भूमि भी बन गई।
 
ऐसे गौरवशाली भारत की उस महान सन्त परम्परा को आसाराम और उनके जैसे अन्य भगवा वेशधारी दुराचारी कलंकित कर रहे हैं। आसाराम ना तो सच्चे संत बन सके,ना सद्गृहस्थ। न्यायालय ने उन्हें दंड देकर दिशाबोध देने का प्रयास किया है, लेकिन वे अब भी पूरी बेशर्मी के साथ स्वयं को निर्दोष बता रहे हैं। घोर लज्जा के साथ यह आश्चर्य का भी विषय है कि उन्हें अपने किये पर कोई पछतावा नहीं है।
 
आसाराम बीते 5 वर्षों से निरंतर जेल से छूटने के लिए याचिका पर याचिका लगाते रहे,गवाहों को धमकाया,उन पर हमले करवाए,तीन गवाहों की हत्या तक करवा दी,लेकिन अपनी गलती नहीं मानी। अभी भी वे अपने उसी आभामंडल में जीना चाहते हैं, जो संत का चोला धारण करने पर उनके आसपास मौजूद रहा करता था।
 
मुझे भीषण क्रोध आता है उनकी या उनके जैसे अन्यों की सोच पर। श्रद्धा,कर्मों से उपजती है। आप सत्कर्म करेंगे,तो श्रद्धा कमाएंगे ना!
जब आपने पाप कर्म ही किये हैं, तो श्रद्धा कहां से अर्जित करेंगे? संत बने थे,तो शान से संतों वाले कर्म करते। विविध प्रकार से लोकसेवा करते,वैराग्य को अपनी वाणी के साथ आचरण में भी जीते,अपने सदुपदेशों से समाज को वैचारिक रूप से समृद्ध बनाते। ये सब करते,तो आज जेल में दिन नहीं काटते बल्कि लोगों के दिलों पर राज करते और समाज के द्वारा पूजित,अभिनंदित होते।
 
आसाराम ने अपनी अधिक उम्र का वास्ता देकर न्यायाधीश महोदय से सजा कम करने का आग्रह किया।मैं उनसे पूछना चाहती हूँ कि उस नाबालिग लड़की के साथ दुष्कर्म करते समय उन्हें उम्र का ख्याल नहीं आया? उम्र तो ठीक,अपने पद,कद और कर्तव्य किसी का भी स्मरण नहीं हुआ? एक समूचे जीवन और उसकी अस्मिता को अपनी लपलपाती वासना के तले कुचलते वक़्त उन्हें अपना संतत्व याद नहीं आया?
 
जानती हूं कि आज भी अपनी विगत ख्याति के अहंकार में आपादशीर्ष डूबे इस शख़्स के पास इन बातों का कोई जवाब नहीं होगा क्योंकि बकौल उसके, 'जेल में भी हम मज़े करेंगे।'
 
ना अपने किये का अफ़सोस, ना अपनी प्रतिष्ठा खोने का ग़म। ना किसी का जीवन नर्क कर देने का पश्चाताप, ना किसी के प्राण हर लेने का दुःख।
 
यदि ऐसे लोग संत हैं, तो समाज का दिशाहीन होना तय है क्योंकि अनुकरण सहज मानवीय वृत्ति है। बेहतर होगा कि ऐसे दुष्टों को इतनी कठोर सजा दी जाये कि इनके जैसे कुकृत्यों की इच्छा रखने वालों की रूह कांप जाये। कम से कम संत की उपाधि धारण करने वाले तो अपने कर्मों की उपयुक्त दिशा तय कर ही लें।
 
अंत में,एक निवेदन और, उस धर्मभीरु तबके से,जो अब भी आसाराम को अपराधी न मानकर उनकी सजा पर अश्रु बहा रहा है और उनकी जेल से मुक्ति के लिए होम-हवन कर रहा है। कृपया अपनी आंखों पर लगी आस्था की पट्टी को 'विवेक' के हाथों से खोलिए। देखिए, समझिये,कौन सही है,कौन गलत है?
 
बारह जमानत याचिकाएं निरस्त,चौदह नामचीन वकीलों के पुरज़ोर प्रयास धराशायी,सारे अनैतिक हथकंडे फेल। सभी प्रमाण और गवाह सत्य उपस्थित कर चुके हैं। न्यायाधीश नीर-क्षीर विवेक को अपनाकर निर्णय सुना चुके हैं। यदि आपका 'पूज्य' सही होता तो कोई तो तर्क,कोई तो प्रमाण,कोई तो गवाह ऐसा होता,जो न्याय-तुला को उसके पक्ष में झुका देता।
 
लेकिन ऐसा वस्तुतः था ही नहीं,इसलिए इसे न्यायालय का नहीं ईश्वर का न्याय समझकर स्वीकार कीजिए और आसाराम के साथ खड़े होकर उसकी और उसके जैसे अन्य तथाकथित धर्मगुरुओं की हिम्मत मत बढ़ाइए बल्कि इस दंड का स्वागत कर उस बेटी का हौंसला बढ़ाइए जिसने विगत पांच वर्षों से जेल जैसा यातनामय जीवन जीया है और अब स्वयं को जैसे-तैसे समेटकर आईएएस बनने का सपना मन में लिए अध्ययन कर रही है।
 
आइए,हम सब उसके साथ खड़े होकर उसके सपने को जीने की ताकत दे दें। बस,इतना भी यदि उसके लिए कर सकें,तो सपने को सच में साकार तो वह कर ही लेगी।

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