बहुत सरल है खुशियों की डगर.... आइए चलें

प्रज्ञा पाठक
प्रज्ञा पाठक
बहुत आसान है खुशियों की राह
 
न्यूयार्क की सबवे ट्रेन में कॉरी सिमंस गणित के सवालों में उलझ रहे थे। उद्देश्य था गणित में अनुत्तीर्ण पुत्र को गणित पढ़ाने का ताकि वह अगली बार अच्छे अंकों से गणित में उत्तीर्ण हो सके।उन्हें सवाल समझ नहीं आ रहे थे। उनकी उलझन को देखकर पास बैठे एक गणित के टीचर ने उन्हें मदद की पेशकश की,जिसे कॉरी ने सहर्ष स्वीकार किया और एक-दूसरे से सर्वथा अनजान दो व्यक्तियों के मध्य आत्मीय सहयोग का रिश्ता कायम हो गया।
 
इस घटना से एक अन्य सहयात्री डेनिस विल्सन बहुत प्रभावित हुईं और उन्होंने इस पूरी वार्ता को रिकॉर्ड कर इंटरनेट पर अपलोड कर दिया।
 
इस घटना को पढ़कर एक सुखद अहसास हुआ क्योंकि इसमें मानवीयता की गंध थी। जहां आज रक्त-संबंध 'अपनेपन' के स्पर्श के लिए तरसते हैं, वहां दो अपरिचितों का निर्मल स्नेह मन को छूने के लिए पर्याप्त था।
 
आज के यांत्रिक युग में ऐसी छोटी मदद भी बड़ा सुकून दे जाती है। हम अपने दैनंदिन जीवन में अत्यंत सरलता से इसका आनंद ले सकते हैं।
 
आप अपने कार्यस्थल पर हों,भ्रमण पर हों,अस्पताल में हों या बाज़ार में,कहीं भी कोई सहायता का अपेक्षी दिखे और आप उसकी संबंधित मदद करने में सक्षम हों,तो देर मत कीजिए। तत्काल उस क्षण को अपनी मानवीयता का तिलक कर दीजिए।
 
वस्तुतः खुशी बहुत आसानी से ली-दी जा सकती है। इसमें पैसों का व्यय जरुरी नहीं,मन को खर्च करना होता है। बस,अपने मन को थोड़ा उदार कर लें,दृष्टि को तनिक मानवोचित। ऐसा होने पर आप लगभग हर दिन कोई व्यक्ति,समूह अथवा प्रसंग जरूर ऐसा पाएंगे जहां आपकी मदद से काम आसान हो जाएगा।
 
कोई आवश्यक नहीं कि आपको इसके लिए बड़े प्रयास करना पड़े। किसी भूखे को भोजन कराना हो,किसी बुज़ुर्ग को उनके गंतव्य तक पहुंचाना हो,बैंक या अस्पताल में किसी अशिक्षित के लिए कोई फॉर्म भरना हो,किसी ज़रूरतमंद को अपने पुराने वस्त्र,जूते आदि देना हो,किसी घायल को चिकित्सा उपलब्ध करानी हो या किसी अनाथ को उपहार या अन्य तरीके से अपनेपन का सुख देना हो,इन सभी कार्यों में धन और परिश्रम या तो लगते नहीं हैं अथवा अत्यल्प ही लगते हैं।
 
इस प्रक्रिया में कई अनजानों को 'अपना' बनते और इसके कारण स्वयं भी लाभान्वित होते देखा क्योंकि निःस्वार्थ दान कम-अधिक रूप में फलता ही है और व्यावहारिक रूप से भले न फले,मन के पोर-पोर को हर्ष से आप्लावित अवश्य कर देता है।यही मानसिक आनंद तो जीवन का पाथेय होता है।
 
एक बहुत ही छोटा-सा उदाहरण दूं। चन्द रोज़ पहले मैं अपने सांध्यकालीन भ्रमण पर थी। कोई परिचित मिल गया,तो हम पास ही स्थित बगीचे में एक बेंच पर बैठकर बात करने लगे। तभी एक बुज़ुर्ग महिला घबराई हुई मेरे पास आई और मुझे अपना मोबाइल देते हुए बोली-"बेटा! ये सबसे ऊपर वाला नम्बर मेरे पोते का है।उसे फ़ोन नहीं लग रहा। अब वो मुझे लेने कैसे आएगा?उसे नहीं पता कि मैं यहां हूँ।"
 
मैंने उनका मोबाइल देखा और पाया कि उसकी बैटरी लगभग शून्य पर पहुंच चुकी थी। वो बंद होता,उसके पहले तत्काल वो पहला नंबर  स्मृति में ले लिया।
 
इस बीच मोबाइल बंद होता देख वे परेशान हो गईं क्योंकि उन्हें नंबर याद नहीं था। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि मुझे नंबर याद है और मेरे पास मोबाइल भी है।
 
मैंने उनके पोते से उनकी बात करवाई। कुछ ही देर में वह उन्हें लेने आया और वे मुझे आत्मा से आशीष देती हुईं चली गईं। घर लौटते समय मेरा मन संतोष से आच्छादित था।
 
देखा आपने-न धन,न परिश्रम और दो मानवों ने एक-दूसरे को सुख दे दिया। ऐसे ही राह-बाट पर चलते हुए भी आप ख़ुशी को भरपूर जी सकते हैं।
 
यह सत्य है कि हम उस युग में जी रहे हैं, जहां आगे बढ़ने की होड़ में अपने परिवार के साथ ही ठीक से जीने का समय नहीं मिलता। रिश्ते अपनी मधुरता खोने लगे हैं और संबंध व्यावसायिक हो चले हैं। लेकिन मेरे विचार से चूक कहीं हमसे ही हो रही है।
 
यदि बच्चों के विद्यालय में तय आठ कालखंडों में आठ विषय नित्य पढ़ाये जा सकते हैं, तो आप भी अपनी दिनचर्या को कुछ निश्चित समय-वर्गों में विभाजित कर अपने कर्तव्य-पालन और प्रगति-चक्र के साथ-साथ अपने आत्मिक आनंद को भी सुनिश्चित कर सकते हैं।
 
बड़ी-बड़ी चीजों से बेशक प्रसन्नता हासिल होती है, लेकिन वो सभी का भाग्य नहीं होती। इससे मायूस होकर किस्मत को या स्वयं को कोसने के स्थान पर छोटी-छोटी बातों में खुशियां खोजनी चाहिए और ये खुशियां हमारे आसपास ही बिखरी हुई हैं। आवश्यकता उन्हें अपनी हार्दिकता से चुन लेने की है। ऐसा करने से प्रथमतः आप उस मानवीयता को जी पाएंगे,जो ईश्वर की दृष्टि में आपके सृजन का मूल उद्देश्य था। द्वितीयतः आपके छोटे-से जीवन में बड़ा-सा आनंद सदा के लिए आरक्षित हो जाएगा।

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