वृद्धाश्रम को वृद्धाश्रम की तरह होना चाहिए...लेकिन कुछ लोग अलग तासीर के होते हैं, कुछ लोग अलग सोच के होते हैं, कुछ लोगों की अलग जाणीव (मराठी शब्द, अर्थ अनुभूति) होती है। अलग सोच की छह गृहणियां जब वर्ष 1994 में मिलीं तो उन्होंने सोचा वृद्धाश्रम को महज़ वृद्धाश्रम जैसा नहीं होना चाहिए...जहां लाचार, थकी,बूढ़ी आंखें पनाह पाने आएं बल्कि जो लोग परिवार के साथ रह सकते हैं,वे परिवार के पास लौट भी जाएं और यहां आने वाले किसी मजबूरी में नहीं, बल्कि जीवन के उत्सव को आखिरी क्षणों तक जीने की उम्मीद में आएं।