सीडीएस नियुक्ति के मायने

सरकार द्वारा चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) के पद पर जनरल विपीन रावत की नियुक्ति से भारत के रक्षा क्षेत्र में एक नए युग की शुरुआत हुई है। सीडीएस का आविर्भाव रक्षा महकमे में बहुआयामी प्रभाव डालने वाला कदम है। रक्षा की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है। 
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले से सीडीएस की नियुक्ति की घोषणा की थी उसके बाद यह साफ हो गया था कि निकट भविष्य में ही कोई जनरल इस पद नियुक्ति होगा। 24 सितंबर को मंत्रिमंडल की बैठक में इसे मंजूरी दे दी गई थी। 28 दिसंबर को सरकार ने सैन्य अधिनियम में बदलाव किया था। वास्तव में यह लंबे समय से रक्षा विशेषज्ञों की मांग को पूरा किए जाने का कदम है। 
 
प्रधानमंत्री ने लाल किले से यही कहा था कि बदले हुए समय में हमें सेना के तीनों अंगों को समान रूप से विकसित करना होगा यानी यह नहीं होना चाहिए कि थल सेना तो ज्यादा मजबूत हो लेकिन वायुसेना उससे कम और नौसेना काफी कम। तीनों का अपना महत्व है। तीनों की क्षमता और आवश्ययकता के बीच समानता होनी चाहिए। इसी क्रम में यह भी आवश्यक है कि तीनों सेनाओं के बीच पूर्ण तालमेल हो। सीडीएस की भूमिका इसीलिए महत्वपूर्ण हो गई है। 
 
दुनिया की रक्षा तैयारियों को देखें तो निष्कर्ष यही निकलता है कि आने वाले समय में जो भी युद्ध होगा वह काफी सघन होगा किंतु वह ज्यादा लंबा नहीं चल सकता। एक साथ देश की पूरी ताकत उसमें झोंकी जाएगी। इसमें जिसके पास सेना के तीनों अंग समान रूप से सक्षम होंगे तथा इनके बीच बेहतर समन्वय होगा उसकी स्थिति मजबूत होगी। बड़ी रक्षा चुनौतियों से घिरे भारत जैसे देश के लिए तो यह अपरिहार्य है। जिन्हें 1999 में करिगल में पाकिस्तानी सेना की हमारी सीमा में घुसपैठ और उसके बाद हुए युद्ध की पूरी कहानी पता है वे जानते हैं कि किस तरह उस दौरान थल सेना और वायुसेना के बीच भयावह मतभेद उभरे थे। यह हमारी बहुत बड़ी कमजोरी साबित हुई थी। 
 
युद्ध आरंभ होने के 22 दिन बाद सरकार को वायुसेना को शामिल होने का आदेश देना पड़ा था और तब तक काफी नुकसान हो चुका था। इसका मूल कारण यही था कि तीनो सेनाओं के बीच रणनीति विमर्श का तालमेल तथा सरकार के साथ समन्वय बिठाने वाला अधिकार प्राप्त कोई पद नहीं था।
वास्तव में रक्षा महकमे तथा विशेषज्ञ इसकी मांग लंबे समय से कर रहे थे। 26 जुलाई को करगिल युद्ध की समाप्ति के बाद 29 जुलाई 1999 को वाजपेयी सरकार ने दो समितियां गठित कीं थीं। इनमें एक कारगिल रिव्यू कमेटी यानी कारगिल समीक्षा समिति का गठन के. सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में तथा रक्षा मंत्रालय द्वारा गठित विशेषज्ञों की समिति जनरल डीबी शेकाटकर की अध्यक्षता में गठित की गई थी। 
 
7 जनवरी, 2000 को रिपोर्ट भी आ गई। दोनों समितियों ने उसी समय सीडीएस की सिफारिश की थी। इनमें इसकी आवश्यकता के साथ इसकी भूमिका का भी उल्लेख था। कारगिल समीक्षा समिति ने अपनी सिफारिशों में सीडीएस के साथ ही एक वाइस सीडीएस बनाने की सिफारिश भी की थी। रिपोर्टों पर विचार करने के लिए तत्कालीन उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की अध्यक्षता में 2001 में मंत्रियों का एक समूह गठित हुआ जिसने रिपोर्ट को स्वीकार कर सीडीएस बनाने की अनुशंसा कर दी। इसके बाद की भूमिका नौकरशाही के हाथ आ गई। वहां से इसमें अड़ंगा लगना आरंभ हो गया। यह तर्क दिया गया कि अगर तीनों सेना की एक कमान बनाकर उसके शीर्ष पर किसी व्यक्ति को बिठा दिया गया तो सैन्य विद्रोह की संभावना बढ़ जाएगी। किंतु वाजपेयी इस पर अड़ रहे। इसमें एक नई संरचना सामने आई। 
 
अक्टूबर, 2001 में हेटक्वार्टर इंटिग्रेटिड डिफेंस स्टाफ (एचक्यूआईडीएस) बनाया गया। यह एक ऐसा संगठन बन बया जो 18 वर्ष से काम रहा था लेकिन इसका अलग से कोई प्रमुख तक नहीं रहा। वस्तुतः वीसीडीएस को चीफ ऑफ इंटिग्रेटिड डिफेंस स्टाफ में तब्दील करते हुए चेयरमैन चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी (सीआईएससी) का रूप दिया गया। तीन सेना प्रमुखों में से जो वरिष्ठ है उसे चीफ ऑफ स्टाफ कमिटी का अध्यक्ष बना दिया जाता था। लेकिन उसके पास कोई अधिकार नहीं था। वहां से रक्षा मंत्री तक पत्राचार होता था। रक्षा सचिव उसे फाइलों में रख दें या रक्षा मंत्री तक ले जाएं एवं कार्रवाई हो यह उनके अधिकार क्षेत्र में रहा है।
 
सीआईएससी अपनी ही निहित कमजोरियों के कारण सेना के तीनों अंग के बीच तालमेल बिठाने में सफल नहीं रहा है। इसकी किसी मायने में प्रभावी भूमिका रही नहीं। हो भी नहीं सकती थी। रक्षा सचिव को रक्षा मामले में सबसे ज्यादा अधिकार प्राप्त है। ध्यान रखिए, सेना एवं रक्षा विशेषज्ञों द्वारा मामला उठाने पर 2012 में यूपीए सरकार में नरेश चंद्र समिति का गठन हुआ था। उन्होंने सिफारिश की थी कि चेयरमैन, चीफ्स ऑफ स्टाफ कमिटी को स्थायी कर दिया जाए और सेनाध्यक्षों में से जो सबसे वरिष्ठ है उसे अध्यक्ष बनाया जाए। दरअसल, नौकरशाही में हमेशा सीडीएस को गहरा संदेह रहा है। इसलिए वे इसके पक्ष में न सिफारिश कर सकते थे न सिफारिश को स्वीकार ही।
 
अब प्रश्न है सीडीएस की जिम्मेदारी और दायित्वों का। यह न तो इतना उच्चाधिकार प्राप्त पद होगा जिससे कोई बड़ा खतरा पैदा हो और न बिना अधिकार के केवल नामधारी होगा। वह एक चार-तारा सैन्य अधिकारी होगा जिसकी भूमिका रक्षा व इससे जुड़े मामलों में प्रधानमंत्री व रक्षा मंत्री के एकीकृत सलाहकार की होगी। इसके लिए रक्षा मंत्रालय में डिपार्टमेंट ऑफ मिलिट्री अफेयर्स यानी सैन्य मामलों के विभाग नाम से नया विभाग गठित होगा और सीडीएस इसके प्रमुख यानी सचिव होंगे। यह विभाग केवल सैन्य क्षेत्र से जुड़े मामले देखेगा।
 
सीडीएस का उद्देश्य सेनाओं को प्रशिक्षण, स्टाफ व अन्य अभियानों के लिए एकीकृत करना होगा। तीनों सेवाओं के परिचालन, लॉजिस्टिक्स, प्रशिक्षण, सहायक सेवाओं, संचार, मरम्मत एवं रखरखाव जैसी अन्य बातों के लिए तीनों सेनाओं के एकीकरण पर काम करेंगे। सीडीएस परमाणु कमांड अथॉरिटी (एनसीए) का भी सैन्य सलाहकार होगा। साइबर और अंतरिक्ष से संबंधित तीनों सेनाओं की एजेंसियां, संगठन और कमान भी उसके अधीन काम करेंगे। यह चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी (सीओएससी) का चेयरमैन भी होगा। सीडीएस रक्षा मंत्री की अध्यक्षता वाली रक्षा अधिग्रहण परिषद और एनएसए की अध्यक्षता वाली रक्षा नियोजन समिति के सदस्य भी होगा। 
 
अवसंरचना का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करने के साथ तीनों सेवाओं के बीच समग्रता के जरिए तर्कसंगत बनाने की जिम्मेदारी भी सीडीएस की ही होगी। सीडीएस को एकीकृत क्षमता विकास योजना के बाद पंचवर्षीय रक्षा पूंजीगत सामान अधिग्रहण योजना और दो वर्षीय सतत वार्षिक अधिग्रहण योजनाओं को कार्यान्वित करना होगा। यही नहीं सीडीसी अनुमानित बजट के आधार पर पूंजीगत सामान खरीद के प्रस्तावों को अंतर-सेवा प्राथमिकता देंगे। अनावश्यक खर्च में कमी करके सशस्त्र बलों की लड़ाकू क्षमता बढ़ाने के लिए तीनों सेवाओं के कामकाज में सुधारों को लागू करेंगे।  
 
ध्यान रखने की बात है कि सीडीएस की नियुक्ति के बाद भी तीनों सेना प्रमुख विशेष मामलों को लेकर रक्षा मंत्री को सलाह देते रहेंगे। सीडीएस की जिम्मेदारी और भूमिका देखने के बाद साफ हो जाता है कि अब सेना की ओर से आई सलाह फाइलों में दबी नहीं रहेगी। ज्यादातर मामलों में सीडीएस तीनों सेनाओं के बीच तालमेल की भूमिका अदा करेगा। तालमेल का मतलब है कि उनके बीच जहां भी मतभेद होगा उसे भी दूर करने में भूमिका निभाएगा। इस तरह कहा जा सकता है कि सीडीएस के आविर्भाव के साथ सेनाओं की कार्यप्रणाली में काफी सुधार हो जाएगा। वह औपनिवेशिक प्रणाली से मुक्त होगी। इसको पूर्णता देने के लिए रक्षा मंत्रालय का चरित्र भी धीरे-धीर एक समन्वित कमान का हो जाना चाहिए। सैन्य मामलों के विभाग से इसकी शुरुआत हुई है।


जब सीडीएस की नियुक्ति हो गई है तो सेना के तीनों प्रमुखों की भूमिका में भी थोड़ा बदलाव होगा। इसे थोड़ा और परिभाषित और उल्लिखित करने की जरूरत होगी। तीनों सैन्य प्रमुखों को सामान्य स्थिति में जवानों के प्रशिक्षण, संगठन और सैन्य साजो-सामान से सुसज्जित करने जैसे मूल काम पर फोकस करना चाहिए। इनके लिए भी सुविधा हो गई है कि ये जिस क्षण चाहें सीडीएस से बात कर अपना मंतव्य पहुंचा सकेंगे और वह बगैर लंबी औपचारिकता के सरकार तक पहुंच जाएगा। 
 
सीडीएस तीनों सेना प्रमुखों से गहन विचार-विमर्श के बाद ही रणनीति को अंतिम रूप देकर रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री को अवगत कराएंगे। उसमें यह शामिल होगा कि तीनों प्रमुखों का क्या मत है। दुनिया के अनेक प्रमुख देशों में यह किसी न किसी नाम से सीडीएस की नियुक्ति काफी पहले हो चुकी है। हम इसमें पीछे रह गए थे। भारत में मूल बात रक्षा मामले में एक राष्ट्रीय सोच तथा कार्यसंस्कृति विकसित करने की है। सरकार ने इस दिशा में पहले भी कई कदम उठाए हैं, सीडीएस की नियुक्ति के साथ यह आगे बढ़ा है। 
 

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